गाय के गोबर से बने पर्यावरण के अनुकूल 'दीये' इस दिवाली झारखंड में एक अनोखे आकर्षण के रूप में उभरे हैं जो न सिर्फ ग्रीन एनवॉयरमेंट के लिए प्रतिबद्धता का प्रतीक है, बल्कि ग्रामीण महिलाओं के लिए आजीविका का एक नया स्रोत भी प्रदान करता है. स्थानीय महिला मंडलों से जुड़ी महिलाओं द्वारा तैयार किए गए इन दीयों का उत्पादन रांची जिले के कई हिस्सों में किया जा रहा है, जिसमें कांके, अरसंडे और धुर्वा शामिल हैं.
यह पहल खासतौर पर कांके के सुकुरहुतु गौशाला में फल-फूल रही है. यहां करीब 90 से 100 महिलाएं रोजाना हजारों पर्यावरण के अनुकूल दीयों का उत्पादन करती हैं. सोनाली मेहता के साथ गौशाला का प्रबंधन करने वाले रोशन सिंह ने कहा, 'अकेले सुकुरहुतु यूनिट में, हम प्रतिदिन 7,000 दीये बना रहे हैं.' इस त्योहारी सीजन में, केंद्र को पहले ही वाराणसी से लगभग तीन लाख दीयों का थोक ऑर्डर मिल चुका है. इस पहल में शामिल महिलाओं को प्रति दीया 75 पैसे मिलते हैं. सुकुरहुतु टोला की बसंती देवी जैसी कई लोग रोजाना 400 दीये बनाती हैं. बसंती देवी ने कहा, 'मुझे हमारी महिला समिति के माध्यम से दीया बनाने की गतिविधि के बारे में पता चला. हमने गौशाला का दौरा किया और इस प्रक्रिया में प्रशिक्षित हुईं. इसने हमें आय और उद्देश्य का स्रोत दिया है.'
एक और कारीगर, बीना देवी ने कहा कि दीयों के साथ-साथ, महिलाएं गाय के गोबर का उपयोग करके अन्य सजावटी सामान भी बनाती हैं. उन्होंने कहा, 'मांग बढ़ रही है, जिससे हमें खुशी है.' प्रक्रिया गाय के गोबर को सुखाने, घास जैसी अशुद्धियों को हटाने, इसे पाउडर में पीसने और फिर सांचों का उपयोग करके दीयों का आकार देने से शुरू होती है. एक बार सूखने के बाद, दीये बाजार के लिए तैयार होते हैं जहां वे 10 रुपये से 15 रुपये प्रति पीस बिकते हैं. करमटोली में, ललिता तिर्की के नेतृत्व में एक स्वयं सहायता समूह अपने हाथ से रंगे दीयों और त्योहारों की वस्तुओं से लोगों का ध्यान आकर्षित कर रहा है.
समूह की प्रमुख तिर्की ने कहा, 'हम कुम्हारों (पारंपरिक कुम्हारों) से कच्चे दीये खरीदते हैं और उन्हें लाल व सुनहरे रंग से सजाते हैं. हम उन्हें स्थानीय मेलों और पूजा की दुकानों पर बेचने के लिए 11, 21 या 51 के सेट में पैक करते हैं.' 11 रंगे हुए दीयों का एक पैकेट 100 रुपये में बिकता है. पिछले 16 दिनों में, समूह ने 80,000 रुपये का कारोबार किया है, जिसमें हर सदस्य त्योहारों के दौरान प्रतिदिन करीब 550 रुपये कमा रहा है. रंगे हुए दीयों के अलावा, समूह टी-आकार की मोमबत्तियां, लिफाफे, कागज के थैले (थोंगा) और घर की सजावट की वस्तुएं भी बनाता है. समूह की सदस्य शीला लिंडा ने कहा कि इस पहल ने कई महिलाओं के जीवन को बदल दिया है, जो पहले घरेलू कामों तक ही सीमित थीं और आर्थिक रूप से अपने परिवारों पर निर्भर थीं.
उन्होंने कहा, 'अब हमारे पास आय, प्रशिक्षण और सामुदायिक भावना है. हम सभी एक ही गांव से हैं और एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं.' उनका कहना था कि महिलाएं अपनी सफलता का श्रेय राज्य सरकार की 'माईं सम्मान योजना' को देती हैं, जिसके तहत प्रत्येक सदस्य को 2,500 रुपये प्रति माह मिलते हैं. लिंडा ने आगे कहा, पहले, आर्थिक तंगी के कारण हमें अपना काम जारी रखने में काफी मुश्किल होती थी. इस योजना ने हमें बहुत सहारा दिया है और हमें आगे बढ़ने में मदद की है.
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