Insider: जीएम सरसों का देश में स्वागत करें या ब‍हि‍ष्कार, यहां समझें पूरा गणि‍त

Insider: जीएम सरसों का देश में स्वागत करें या ब‍हि‍ष्कार, यहां समझें पूरा गणि‍त

देश में जीएम फसलों से जुड़ी बहसों का ज‍िन्न एक बार फ‍िर बाहर न‍िकल आया है. अक्टूबर में पर्यावरण मंत्रालय से जुड़ी एक कमेटी ने जीएम सरसों के बीज को पर्यावरण मंजूरी दी थी. इसके बाद से जीएम फसलों को लेकर व‍िमर्श तेज हो गया है. हालांक‍ि मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में है. लेक‍िन, देश का राजनीत‍िक पारा गरमाया हुआ है.

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Insider: जीएम सरसों का देश में स्वागत करें या ब‍हि‍ष्कार, यहां समझें पूरा गणि‍तMustard

    
राष्ट्रीय राजधानी द‍िल्ली के रायसीना ह‍िल्स से अक्टूबर के महीने जारी हुए एक आदेश ने देश का राजनीत‍िक पारा गरमा द‍िया है. इसके बाद से देश की राजनीत‍िक-समाज‍िक बौद्ध‍िक बहसों के केंद्र में एक बार फ‍िर क‍िसान, खेत और कृष‍ि उत्पाद आ गए हैं. असल में 19 अक्टूबर के पर्यावरण व वन मंत्रालय की जेनेट‍िक इंजीन‍ियर‍िंंग से जुड़ी एक कमेटी ने जेनेटिकली मॉडिफाइड मस्टर्ड (जीएम सरसों) के बीज तैयार करने और इसकी बुआई से जुड़े परीक्षण की इजाजत दी थी.  इस मंजूरी के बाद से देश में जीएम फसलों से जुड़ी बहसों का ज‍िन्न एक बार फ‍िर बाहर न‍िकल आया है. हालांक‍ि मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में है. लेक‍िन, फील्ड ट्रायल शुरू हो गया है. 

वहीं, हमेशा की तरह इस फैसले को लेकर पक्ष-व‍िपक्ष आमने-सामने आ गए हैं. हालांंक‍ि‍, इस बार तस्वीर बदली हुई सी नजर आ रही है. ज‍िसमें, इस फैसले को लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े संगठन ही सरकार की मुखालफत करते हुए नजर आ रहे हैं. इसे देखते हुए माना जा रहा है क‍ि जीएम सरसों की राह बेहद ही मुश्क‍िल भरी होने वाली है. लेक‍िन, जीएम सरसों के शुरु हुए फील्ड ट्रायल और इसको लेकर शुरू हुई इस राजनीत‍िक नूरा-कूश्ती से क‍िसान और आमजन अपने भव‍िष्य को लेकर आशंक‍ित हैं.

खैर, यह तय है क‍ि जीएम सरसों, क‍िसान और आमजन का भव‍िष्य आने वाले समय की चाल में कैद है. लेक‍िन, मौजूदा समय में जीएम सरसों को लेकर जारी व‍िवाद और उसकी वजह की एक पड़ताल भी जरूरी है. इसी कड़ी में जीएम फसलों और जीएम सरसों की पड़ताल करती एक र‍िपोर्ट...

पहले जानते हैं क‍ि, जीएम फसलें हैं क्या

 

जीएम सरसों पर पड़ताल करने से पहले जरूरी है क‍ि जीएम फसलें हैं क्या, इसे समझा जाए. असल में जेनेट‍िक इंजीन‍ियर‍िंंग के माध्यम से जेनेट‍िकली मॉड‍िफाई क‍िए गये बीज से उत्पन्न होने वाली फसलों को जीएम फसलें कहा जाता है. सरल शब्दों में कहा जाए तो जेनेट‍िक इंजनीय‍र‍िंंग के माध्यम से पौधों की दो अलग-अलग किस्मों के जीनों में बदलाव कर एक नई क‍िस्म तैयार की जाती है, उसे जीएम फसलें कहा जाता है. 

जीएम सरसों को कैसे और क‍िसने तैयार क‍िया

जीएम फसलों का गण‍ित समझने के बाद जरूरी है क‍ि जीएम सरसों के बारे में जाना जाए. ज‍िसमें आवश्यक है क‍ि क‍िसने और कैसे जीएम सरसों को तैयार क‍िया है. असल में द‍िल्ली व‍िश्वव‍िद्यालय के सेंटर फॉर जेनेटिक मैनिपुलेशन ऑफ क्रॉप प्लांट्स के वैज्ञानिकों ने जेनेटिक मॉडिफिकेशन से जीएम सरसों को वि‍कस‍ित क‍िया है. पूर्व कुलप‍त‍ि दीपक पेंटल के नेतृत्व में वैज्ञानि‍कों ने सरसों की स्वदेशी किस्म वरुणा की क्रॉसिंग पूर्वी यूरोप की किस्म अर्ली हीरा 2 से करा कर जीएम सरसों को व‍िकस‍ित क‍िया है. ज‍िसे DMH-11 का नाम द‍िया गया है. 

 

जीएम सरसों की जरूरत के पीछे का तर्क और दावा   

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जीएम फसलों को कीट प्रत‍िरोधी और अध‍िक उत्पादन देने वाली फसलों के तौर पर प्रचार‍ित क‍िया जाता रहा है. इसी तरह जीएम सरसों को भी प्रचार‍ित क‍िया जा रहा है. जीएम सरसों की पैरवी करने वाले पक्ष (ज‍िसमें सरकार से जुड़ी एजेंस‍ियां शाम‍िल हैं) का दावा है क‍ि जीएम सरसों सामान्य क‍िस्म की सरसों से 28 फीसदी अध‍िक उत्पादन देने में सक्षम है. इसके प्रयोग से देश को फायदा होगा और खाद्य तेलों के मामले में देश आत्मन‍िर्भरता की तरफ आगे बढ़ाएगा.   

सरसों के उत्पादन में बढ़ोतरी, क‍ितनी है जरूरी 

देश में सरसों के उत्पादन में बढ़ोतरी बेहद ही जरूरी है. सरसों के उत्पादन में ही बढ़ोतरी कर भारत खाद्य तेलों में आत्मन‍िर्भरता का लक्ष्य दोबारा हा‍स‍िल कर सकता है. असल में भारत खाद्य तेलों की अपनी घरेलू आवश्यकता का 65 फीसदी खाद्य तेल व‍िदेशों से आयात करता है. इसके ल‍िए भारत को बड़ी रकम व‍िदेशों को चुकानी पड़ती है, ज‍िसे भारतीय अर्थव्यवस्था के व‍िकास में बाधक माना जाता है. ज‍िसे देखते हुए भारत का यह कदम खाद्य तेलों में आत्मन‍िर्भर बनने की राह पर बढ़ाया हुआ नजर आता है.       

 खाद्य तेलों में आत्मन‍िर्भर का लक्ष्य हास‍िल कर नीचे उतर चुका है भारत 

खाद्य तेलों में आत्मन‍ि‍र्भर बनने की आवश्यकता और यह नारा भारत के ल‍िए नया नहीं है. आजादी के बाद से ही भारत खाद्य तेलों की अपनी घरेलू जरूरतों को पूरा करने के ल‍िए व‍िदेशों पर न‍िर्भर रहा है. लेक‍िन, आजादी के बाद से अब तक के काल खंड में एक दौर ऐसा भी आया, जब भारत ने खाद्य तेलों में आत्मन‍िर्भरता का लक्ष्य लगभग हास‍िल कर ल‍िया. लेक‍िन, वह मुकाम लंबे समय तक कायम नहीं रह सका और भारत को नीचे उतरना पड़ा. 

यह पूरी कहानी देश के इत‍िहास में ऑपरेशन गोल्डन फ्लो के नाम से दर्ज है. इस ऑपरेशन के जर‍िए 1980 में वर्गीज कुर‍ियन के नेतृत्व में देश के सबसे बड़े खाद्य तेलों के ब्रांड धारा का जन्म हुआ. इसमें वर्गीज कुर‍ियन के नेतृत्व में एनडीडीबी ने अपने डेयरी नेटवर्क का इस्तेमाल करते हुए देश के क‍िसानों से त‍िलहन की खरीददारी की. इसी कड़ी में धारा ने सरसों, बिनौला, मूंगफली खाद्य तेलों की श्रृंखला बाजार में उतारी.

एनडीडीबी के इस ऑपरेशन को बाजार में खूब समर्थन म‍िला और 4 सालों में ही धारा ने देश के आधे बाजार पर कब्जा कर ल‍िया. तो वहीं क‍िसानों को उनकी फसल के बेहतर दाम म‍िलने लगे. ज‍िससे क‍िसानों ने बड़ी संख्या में त‍िलहनी फसलों की खेती शुरू कर दी. ज‍िससे ति‍लहनी  फसलों के उत्पादन में र‍िकाॅर्ड बढ़ोतरी दर्ज की गई. 

 धारा नहीं खरीदने का एनडीडीबी ने जारी क‍िया व‍िज्ञापन 

1980 में शुरु हुआ ऑपरेशन गोल्डन फ्लो एक दशक में पूरे देश में छा गया. लेक‍िन, 1990 का दशक इस ऑपरेशन की सफलता पर ग्रहण लगाने वाला साल साब‍ित हुआ. वर्ष 1994 में भारत ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए. मीड‍िया र‍िपोर्टस के मुताब‍िक ज‍िसके बाद भारत को 10 लाख टन सोयाबीन के बीज अमेर‍िका से खरीदने पड़े. तो वहीं इसी दशक के अंत में देश में म‍िलावटी खाद्य तेलों की वजह से कई लोगों की मौत हुई तो कई लोग बीमार हुए. यह घटना देशी खाद्य तेल कंपन‍ियों के ल‍िए नुकसानदेयक साब‍ित हुई. वहीं इस घटना के बाद सरकार ने खुले सरसों तेल की ब्र‍िक्री पर प्रत‍िबंध लगा द‍िया. तो एनडीडीबी को भी धारा तेल न खरीदने का आग्रह करने वाले विज्ञापन देना पड़ा. 

 

अब जीएम फसलों का इत‍िहास

जीएम फसलों पर कोई राय बनाने से पहले ये उनका इत‍िहास जानना जरूरी है. उससे पहले हाईब्र‍िड क‍िस्मों के बारे में जानते हैं. क्योंक‍ि हाईब्र‍िड क‍िस्म से ही जी जीएम प्रक्र‍िया जुड़ी हुई है. यूएस फूड एंड ड्रग व‍िभाग की वेबसाइट के मुताब‍िक लगभग 8000 ईपू से ही मनुष्य  पौधों की पारंपर‍िक तरीके से क्रॉस-ब्रीडिंग यानी उन्हें हाईब्र‍िड बनाने का काम करते थे. वहीं 1900वीं सदीं के आस पास यानी 1866 में ऑस्ट्रियाई ग्रेगोर मेंडल ने दो अलग-अलग प्रकार के मटर का प्रजनन किया.

इसके बाद 1922 में पहला हाईब्रिड मक्का व्यावसायिक रूप से उत्पादित क‍िया गया. लेक‍िन, पौधों के डीएनए में बदलाव करने का काम 1940 में हुआ. उस दौरान वैज्ञान‍िकों ने किसी जीव के डीएनए को बेतरतीब ढंग से बदलने के लिए रसायनों का उपयोग करना सीखा तो 1953 में रसायनशास्त्री रोजालिंड फ्रैंकलिन की खोजों के आधार पर वैज्ञानिक जेम्स वाटसन और फ्रांसिस क्रिक ने डीएनए संरचना की पहचान की.

इसके आधार पर 1973 में बायोकेमिस्ट हर्बर्ट बोयर और स्टेनली कोहेन ने एक बैक्टीरिया से दूसरे बैक्टीरिया में डीएनए डालकर जेनेटिक इंजीनियरिंग विकसित की. तो वहीं इस तकनीक को आधार बनाकर 1982 में एफडीए ने जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विकसित पहले जीएमओ उत्पाद को मंजूरी दी, जि‍से डायब‍ि‍टीज के उपचार के ल‍िए प्रयोग में होने वाले इंसुलिन के तौर पर जाना जाता है. 

इसी कड़ी में 1994 में जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से बनाया गया पहला GMO उत्पाद टमाटर बिक्री के लिए उपलब्ध हो गया. यूएसए फूड एंड ड्रग व‍िभाग की वेबसाइट के मुताब‍िक उस दौरान संघीय एजेंसियों द्वारा किए गए अध्ययनों ने यह साबित क‍िया क‍ि ये जीएम टमाटर भी पारंपरिक रूप से पैदा हुए टमाटर जितना ही सुरक्षित है. यहीं वह दशक था, ज‍ब सोयाबीन, कपास, मक्का, पपीता, टमाटर, आलू और कैनोला के जीएम बीच व‍िकस‍ित क‍िए गए. हालांक‍ि इनमें से अभी तक कई उत्पाद अभी प्रभावी नहीं है.

 

यूएसए में 90 फीसदी जीएम सोयाबीन, कपास और मक्के का उत्पादन

अमेर‍िका यानी यूएसए में जीएम फसलों ने धूम मचाई हुई है. यूएस फूड एंड ड्रग व‍िभाग की वेबसाइट के मुताबक‍ि वहां पर 90 फीसदी जीएम सोयाबीन, कपास और मक्के का उत्पादन होता है. व‍िभाग की वेबसाइट के मुताब‍िक वर्ष में कुल लगाए गए सोयाबीन में 94 फीसदी जीएम सोयाबीन, कपास में 96 फीसदी जीएम कपास और 92 फीसदी मक्के का उत्पादन हुआ था. वहीं 99 फीसदी चुकंदर और 95 फीसदी कैनोला का उत्पादन हुआ था. इसके साथ ही जीएम आलू, पपीता, अनानास भी बाजार में बेचा जा रहा है.  

 

भारत में 2002 में हुई पहली जीएम फसल की इंट्री 

जीएम फसलों के भारतीय इत‍िहास पर बात की जाए तो भारत में 2002 में पहली जीएम फसल की एंट्री हुई है. ज‍िसे बीटी कॉटन यानी जीएम कपास के तौर पर जाना जाता है. असल में 2002 में सरकार ने कानून बनाया. हालांक‍ि क‍िसानों ने वर्ष 2006 से बीटी कॉटन की खेती शुरू की है और तब से अब तक इसकी खेती जारी है. इस दौर में देश में बीटी कॉटन की तर्ज पर भी बीटी बैंगन के बीज भी लाने को लेकर नूरा-कुश्ती होती रही. तो वहीं बीटी सरसों पर भी पक्ष-व‍िपक्ष होता रहा. लेक‍िन, बीटी बैंगन की दाल अभी तक देश में नहीं लगी और बीटी कॉटन देश में एंट्री लेते हुए द‍िखाई दे रहा है. 

 

बीटी कॉटन की खेती कर रहे क‍िसान की आपबीती 

जीएम सरसों को ठीक से समझने के ल‍िए बीटी कॉटन से उपजे हालातों को ठीक से समझना जरूरी है. इस बात को ध्यान में रखते हुए क‍िसान तक ने महाराष्ट्र के जलाना ज‍िले न‍िवासी क‍िसान सोमनाथ से बात की. सोमनाथ ने एक क‍िसान के नज‍र‍िये से बीटी कॉटन पर श्वेत पत्र जारी क‍िया. क‍िसान सोमनाथ बताते हैं, जब बीटी कॉटन की खेती शुरु हुई थी, तब से एक दशक के बाद तक सब बेहतर था. दावे के मुताब‍िक सामान्य बीज की तुलना में बीटी कॉटन के बीज से अध‍िक उत्पादन म‍िला. लेक‍िन, 2015 के बाद हालात बेहद खराब हैं. एक तरफ तो उत्पादन में कोई सुधार नहीं हुआ है. तो वहीं दूसरी तरफ बीटी कॉटन में लगने वाली बीमारी से क‍िसानों का नुकसान बड़ा है.

क‍िसान सोमनाथ बताते हैं क‍ि बीटी कॉटन पर लगने वाली गुलाबी सुंडी की वजह से खेती की लागत का खर्च बड़ा है. पहले ज‍ितना खर्च बुवाई पर आता था. उससे कहीं अध‍िक खर्च कीटनाशक के छ‍िड़काव में आता है. इसके बाद भी उत्पादन बेहतर होने की गांरटी नहीं है. इस वजह से बीटी काॅटन की खेती करने वाले क‍िसान मुश्क‍िल में हैं. सोमनाथ आगे जोड़ते हुए कहते हैं क‍ि अब हम कपास के पारंपर‍िक बीजों की तरफ भी नहीं लौट सकते हैं. क्योंकि‍ अच्छी गुणवत्ता के बीज बाजार में उपलब्ध ही नहीं है, जो उन्हें उनसे बेहतर उत्पादन संभव नहीं है. ऐसे में क‍िसान बीच में फंस गया है. 

सोमनाथ आगे कहते हैं क‍ि बीटी कॉटन क‍िसानों पर ध्यान देने की जरूरत है. वह न‍िराशा है. अपने स्तर से इसका सुझाव सुझाते हुए वह कहते हैं क‍ि अमेर‍िका में बीटी 5 कॉटन के बीजों से खेती हो रही है, जबक‍ि यहां जो बीजी बीज हैं, वह बीटी 2 हैं. या तो बीटी 5 के बीजों को यहां के ल‍िए अनुमत‍ि दी जाए. नहीं तो क‍िसानों को पारंपर‍िक बीज उपलब्ध कराए जाएं.               

 

हर‍ियाणा में देशी कपास की खेती करने वाले क‍िसानों को सब्स‍िडी 

बीटी काॅटन पर लगने वाली गुलाबी सुंडी की बीमारी से महाराष्ट्र ही नहीं हर‍ियाणा, पंजाब समेत अन्य राज्यों के क‍िसान भी परेशान हैं. इस बात को ध्यान में हर‍ियाणा देशी कपास की खेती को बढ़ावा दे रहा है. इसके ल‍िए राज्य सरकार ने एक योजना बनाई है. ज‍िसके तहत देशी कपास की खेती करने वाले क‍िसानों को राज्य सरकार प्रत‍ि एकड़ 3 हजार रुपये की सब्स‍िडी दे रही है . 

 

अब जीएम सरसों के अध‍िक उत्पादन के दावे की पड़ताल  

जीएम सरसों के पैरोकार दावा कर रहे हैं क‍ि इसके प्रयोग से देश में सरसों का उत्पादन बढ़ेगा. इसके पैरोकारों की तरफ से दावा क‍िया गया है जीएम सरसों का बीज अपने मूल क‍िस्म वरुणा से 30 फीसदी अध‍िक उत्पादन देने में सक्षम है. इस दावे की पड़ताल के ल‍िए सरसों की वरुणा क‍िस्म के बारे में जानना जरूरी है. असल में वरुणा क‍िस्म 1986 में व‍िकस‍ित की गई थी. जो औसत 18 क्व‍िंटल प्रत‍ि हेक्टेयर का उत्पादन देने में सक्षम है. जबक‍ि इसमें तेल की मात्रा भी 36 फीसदी है. लेक‍िन, तब से लेकर अब तक गंगा में कई लाख लीटर पानी बह चुका है. मसलन, तब से लेकर अब तक कई नई क‍िस्म व‍िकस‍ित की जा चुकी हैं. जो वरुणा क‍िस्म से अध‍िक उत्पादन देती हैं. इसमें पूसा डबल जीरो 31 एक प्रमुख क‍िस्म है, जो 22 से 25 क्व‍िंटल प्रत‍ि हेक्टयर उत्पादन देने में सक्षम है. तो वहीं इसमें तेल की मात्रा भी 40 फीसदी से अध‍िक है. 

 

अब कोई भी राय बनाने से पहले पक्ष-व‍िपक्ष जान लेते हैं    

पर्यावरण मंत्रालय की कमेटी से जीएम सरसों को म‍िली मंजूरी के बाद देश का राजनी‍त‍िक पारा गरमाया हुआ है. इसको लेकर पक्ष-व‍िपक्ष खुलकर आमने-सामने हैं. पक्ष में जहां कृष‍ि वैज्ञान‍िक नजर आ रहे हैं. तो वहीं व‍िरोध में पर्यावरणव‍िद, क‍िसान संगठन और संघ से जुड़े सामाज‍िक संगठन हैं. तो वहीं इस पक्ष-व‍िपक्ष के बीच कुछ तथ्य भी हैं, इन सभी पर एक नजर.        

व‍िरोध 

- जीएम सरसों में में थर्ड ‘बार’ जीन मौजूद है, इससे पौधों पर ग्लूफोसिनेट अमोनियम का असर नहीं होता. इस रसायन का छिड़काव खर-पतवार को नष्ट करने में होता है. ऐसे में जीएम फसल तो खरपतवार झेल जाएंगे, लेक‍िन नॉन-जीएम पौधे खर-पतवार नाशक केमिकल को बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे. ज‍िनके नष्ट होने का खतरा है. 

- जीएम सरसों से मधुमक्खियों पर बुरा असर पड़ेगा, उनकी आबादी घट सकती है. 

-जीएम सरसों से कैंसर और नपुषंकता जैसे दावे भी क‍िए जा रहे हैं. 

-इस क‍िस्म को सरसों की देशी क‍िस्मों का वजूद नष्ट करने वाला माना जा रहा है. माना जा रहा है क‍ि इसका बढ़ता प्रभाव सरसों की देशी क‍िस्मों के वजूद को संकट में डाल सकता है.

पक्ष 

- जीएम सरसों के पैरोकारों का दावा है क‍ि इससे उत्पादन बढ़ेगा और खाद्य तेलों में न‍िर्भरता आएगी. 

- पैरोकारों का पक्ष है क‍ि मधुमक्ख‍ियों पर इसका कोई बुरा असर नहीं है. व‍िदेशों में खेती हुई है. वहां ऐसे कोई दुष्प्रभाव नहीं देखे गए हैं. 

- सरसों की देशी क‍िस्म को कोई नुकसान नहीं है.      

 

 

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