कुछ आंकड़े सिर्फ़ आंकड़े नहीं होते, वे इतिहास के मोड़ बन जाते हैं. हालिया विश्व बैंक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में अत्यधिक गरीबी की दर 2011-12 में 27.1% थी, जो 2022-23 में घटकर मात्र 5.3% रह गई. इसका अर्थ है कि करीब 269 मिलियन यानी 26 करोड़ 90 लाख भारतीयों ने गरीबी की जंजीरें तोड़ दीं. यह आर्थिक या सांख्यिकीय चमत्कार नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गहराई से किए गए संस्थागत सुधारों और सहकारी ढांचे के पुनरुद्धार का परिणाम है. इस परिवर्तन की सबसे बड़ी मिसालें हमें बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में देखने को मिलती हैं- जो कभी पिछड़ेपन, पलायन और गरीबी के प्रतीक माने जाते थे. आज यही राज्य भारत के ग्रामीण पुनरुत्थान की धुरी बन गए हैं.
उत्तर प्रदेश ने पिछले एक दशक में ग्राम स्तरीय सहकारी समितियों को पुनर्जीवित किया है. PACS का डिजिटलीकरण और कृषि सेवा केंद्रों में परिवर्तन एक बड़ा कदम रहा है. मुख्यमंत्री सहकारिता योजना के तहत युवाओं और महिलाओं को सहकारी ढांचे से जोड़कर आजीविका के नए रास्ते खोले गए हैं. प्रदेश में दुग्ध सहकारिता और बागवानी आधारित FPOs ने किसानों की आय को बहुगुणित किया है.
बिहार, जो कभी देश में ग़रीबी सूचकांकों में सबसे ऊपर था, अब सहकारिता के ज़रिए नये सामाजिक-आर्थिक प्रतिमान रच रहा है. मखाना, मक्का और सब्ज़ी उत्पादन जैसे क्षेत्रों में FPOs और PACS ने किसानों को सीधा बाज़ार उपलब्ध कराया है. दूध उत्पादन में महिला सहकारी समितियों की भूमिका सराहनीय रही है. बिहार सरकार द्वारा सहकारी समितियों को रुरल गोदाम और उर्वरक वितरण केंद्रों के रूप में तैयार करना किसानों के लिए गेम-चेंजर साबित हुआ है.
बिहार की नदियों और जल संसाधनों को सहकारी सिंचाई समितियों के ज़रिए जोड़ा गया है, जिससे जल संरक्षण और कृषि उत्पादकता दोनों में वृद्धि हुई है. कोसी और गंडक परियोजनाओं को सहकारी ढांचे से जोड़ना जलवायु अनुकूलन का सशक्त उदाहरण है. उत्तर प्रदेश में सहकारिता का पुनरुद्धार सिर्फ़ कृषि तक सीमित नहीं है. सरकारी स्कूलों की मिड-डे मील योजनाओं में सहकारी महिला समूहों की भागीदारी और सोलर पंप वितरण में सहकारी समितियों की भूमिका ने ऊर्जा और शिक्षा में भी सहकारिता को एक प्रभावशाली सामाजिक उपकरण बना दिया है.
इन दोनों राज्यों में यह सिद्ध हो गया है कि जब सहकारिता को सही संसाधन, नीतिगत समर्थन और डिजिटल तकनीक के साथ जोड़ा जाता है, तब यह न केवल ग़रीबी मिटाती है, बल्कि स्थानीय नेतृत्व और आत्मगौरव को भी जन्म देती है. इन अनुभवों ने भारत को वैश्विक विकास मॉडल में अग्रणी बना दिया है. PACS आधारित वेयरहाउसिंग, फार्म गेट खरीद, स्थानीय मूल्यवर्धन, सिंचाई का सामुदायिक प्रबंधन, ये सब एक ऐसे मॉडल को जन्म दे रहे हैं जो न केवल जलवायु परिवर्तन का समाधान है, बल्कि SDG 1, 2, 8 और 13 को प्राप्त करने का ज़मीनी रास्ता भी है.
आज विश्व बैंक को यह मानना पड़ा कि ग़रीबी उन्मूलन अब आंकड़ों की बाज़ीगरी नहीं, बल्कि भारत के गांवों की जीवंत हकीकत है. अब वक़्त है कि संयुक्त राष्ट्र और वैश्विक वित्तीय संस्थाएं भारत की इस सहकारी क्रांति से सीखें और नीति निर्माण में इसकी गंभीरता से भागीदारी करें. भारत की आवाज़ साफ़ है- ग़रीबी कोई तक़दीर नहीं और समृद्धि कोई विशेषाधिकार नहीं. जब गांवों को ताक़त दी जाती है, जब किसान को निर्णयकर्ता बनाया जाता है और जब समाज मिलकर विकास करता है, तब कोई भी राष्ट्र दुनिया का नेतृत्व कर सकता है.
(लेखक वर्ल्ड कोऑपरेशन इकोनॉमिक फोरम के कार्यकारी अध्यक्ष हैं)
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