किसके हाथ में है भारत की खेती? कृषि पर कब्जे की वैश्विक लड़ाई, अब देश को यह काम करने की जरूरत

किसके हाथ में है भारत की खेती? कृषि पर कब्जे की वैश्विक लड़ाई, अब देश को यह काम करने की जरूरत

आज कृषि की असली लड़ाई सिर्फ खाद, कीटनाशक या भंडारण तक सीमित नहीं है- यह लड़ाई इस बात की है कि खेती में पैसा किसका लगेगा और नियंत्रण किसका होगा. दुनिया के सॉवरेन वेल्थ फंड्स (Sovereign Wealth Funds - SWFs)- जिन्हें संयुक्त अरब अमीरात, सिंगापुर, नॉर्वे और चीन जैसे देशों की सरकारें चलाती हैं- अब भारतीय कृषि में अरबों रुपये निवेश कर रहे हैं.

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किसके हाथ में है भारत की खेती? कृषि पर कब्जे की वैश्विक लड़ाई, अब देश को यह काम करने की जरूरतबिनोद आनंद
  • बिनोद आनंद

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का "विकसित भारत 2047" केवल सड़कों, इमारतों या डिजिटल क्रांति तक सीमित नहीं है. यह भारत की रीढ़- हमारे किसानों को सशक्त बनाने का संकल्प है. जब हम एक विकसित भारत की बात करते हैं, तो हमें यह भी पूछना चाहिए कि विकास का असली अर्थ उन लोगों के लिए क्या है, जो पूरे देश का पेट भरते हैं? क्या इसका मतलब केवल ज्यादा उपज, बेहतर कीमतें और आधुनिक तकनीक है? या फिर इसका अर्थ यह है कि भारत के किसान अब दूसरों की दया पर निर्भर नहीं रहेंगे, बल्कि अपने भाग्य के खुद मालिक बनेंगे?

आज कृषि की असली लड़ाई सिर्फ खाद, कीटनाशक या भंडारण तक सीमित नहीं है- यह लड़ाई इस बात की है कि खेती में पैसा किसका लगेगा और नियंत्रण किसका होगा. दुनिया के सॉवरेन वेल्थ फंड्स (Sovereign Wealth Funds - SWFs)- जिन्हें संयुक्त अरब अमीरात, सिंगापुर, नॉर्वे और चीन जैसे देशों की सरकारें चलाती हैं- अब भारतीय कृषि में अरबों रुपये निवेश कर रहे हैं. वे कृषि स्टार्टअप्स, कीटनाशक कंपनियों, लॉजिस्टिक्स और प्रत्यक्ष खेती में निवेश कर रहे हैं. पहली नजर में यह अच्छा लगता है- अधिक पैसा, नई तकनीक, वैश्विक अनुभव, लेकिन क्या यह सच में किसानों के हित में है?

सच्चाई यह है कि जब विदेशी फंड हमारी कृषि व्यवस्था को नियंत्रित करेंगे, तो वे हमारे किसानों को भी नियंत्रित करेंगे. भारत का किसान दशकों से उचित मूल्य और बाजार में अपनी भागीदारी के लिए संघर्ष कर रहा है. लेकिन, अब विदेशी पूंजी बीज से लेकर बाजार तक हर स्तर पर अपना प्रभाव बढ़ा रही है. अगर विदेशी फंड यह तय करने लगें कि कौन खरीदेगा, कौन बेचेगा, और किस दाम पर बेचेगा, तो भारतीय किसान अपनी ही खेती में किराए के मजदूर बनकर रह जाएंगे.

सॉवरेन वेल्थ फंड्स Vs भारत की सहकारी व्यवस्था

अगर विदेशी निवेशक भारतीय कृषि में इतनी रुचि दिखा रहे हैं, तो यह किसानों की भलाई के लिए नहीं है. वे भारतीय खाद्य प्रणाली को एक बड़े वैश्विक व्यापार में बदलना चाहते हैं और इसी कारण वे भारत की सहकारी आर्थिक व्यवस्था (Cooperative Economic Framework) के बढ़ते प्रभाव से डरते हैं. सहकारी मॉडल किसानों को स्वामित्व और निर्णय लेने का अधिकार देता है.

अमूल, इफको और नाफेड जैसी संस्थाएं दिखा चुकी हैं कि कैसे सहकारी संस्थान वैश्विक कॉर्पोरेट नियंत्रण का सामना कर सकते हैं और किसानों को वास्तविक लाभ पहुंचा सकते हैं. लेकिन, सॉवरेन वेल्थ फंड्स, अंतरराष्ट्रीय व्यापारी और निजी कृषि कंपनियां यह नहीं चाहतीं कि यह मॉडल और आगे बढ़े. क्यों? क्योंकि अगर सहकारी मॉडल मजबूत हुआ तो किसान खुद अपने भविष्य के मालिक बन जाएंगे और यह विदेशी निवेशकों को मंजूर नहीं है.

दुनिया की सबसे बड़ी कृषि व्यापार कंपनियां- कारगिल, आर्चर डेनियल्स मिडलैंड, बंगे और लुइस ड्रेफस (जिन्हें ग्लोबल कृषि व्यापार का ABCD कहा जाता है)- प्रत्यक्ष रूप से सॉवरेन वेल्थ फंड्स के साथ काम करती हैं. वे केवल अनाज का व्यापार नहीं करतीं, बल्कि वैश्विक खाद्य कीमतों, लॉजिस्टिक्स और आपूर्ति श्रृंखलाओं को नियंत्रित करती हैं. उन्हें सबसे बड़ा डर किस बात से है? अगर भारत अपनी स्वयं की संप्रभु संपत्ति कोष (SWF) बना ले और किसानों को मूल्य निर्धारण में स्वतंत्रता दे दे.

भारत को खुद के सॉवरेन वेल्थ फंड की जरूरत क्यों?

भारत को अब और इंतजार नहीं करना चाहिए. हमें कृषि के लिए अपने स्वयं के संप्रभु संपत्ति कोष (SWF) की स्थापना करनी होगी, जिससे भारतीय कृषि में निवेश भारतीय स्वामित्व, किसान नेतृत्व और राष्ट्रीय हितों के अनुसार हो. इस कोष को सरकार के वित्तीय भंडार से समर्थन मिलना चाहिए और इसका एक हिस्सा भारत की विदेशी मुद्रा भंडार से कृषि वित्तपोषण को मजबूत करने के लिए आवंटित किया जाना चाहिए.  नाबार्ड और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक किसानों को सहकारी संस्थानों के माध्यम से वित्तीय सहायता दें.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि किसान सहकारी समितियां इस कोष की मालिक हों ताकि मुनाफा विदेशी निवेशकों के बजाय किसानों के पास लौटे. आज भारत दुनिया में चावल का सबसे बड़ा निर्यातक, गेहूं का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक, और मसाले व दालों में अग्रणी है. फिर भी, हम वैश्विक मूल्य निर्धारण को नियंत्रित नहीं कर पाते- क्यों? क्योंकि हम केवल कच्चे उत्पाद निर्यात करते हैं और मूल्य निर्धारण का निर्णय विदेशी बाजार लेते हैं.

समाधान क्या है? 

एक राष्ट्रीय कृषि व्यापार मंच (National Agri Trading Hub) बनाना, जहां भारतीय किसान अपनी फसलों का व्यापार भारतीय कीमतों पर करें- जैसे ओपेक (OPEC) तेल की कीमतें तय करता है. साथ ही, भारत को वैश्विक कृषि प्रौद्योगिकी और खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों में निवेश करना होगा, ताकि हम केवल कच्चा उत्पाद न बेचें, बल्कि मूल्य-वर्धित कृषि उत्पादों का निर्यात करें. किसानों को मालिक बनाना ही असली आत्मनिर्भरता है. अब समय आ गया है कि भारतीय किसान केवल अन्नदाता न रहें, बल्कि अपने भाग्य के स्वयं निर्माता बनें. 

कल्पना करें, एक ऐसा भारत जहां किसान वैश्विक बाजार के संकेतों का इंतजार नहीं करता, बल्कि अपनी शर्तों पर कीमतें तय करता है. जहां कृषि का धन भारतीय किसानों और सहकारी समितियों के हाथों में रहता है और जहां किसान न्यायसंगत कीमतों पर अपना उत्पाद बेचने के लिए मजबूर नहीं होते. भारत की कृषि शक्ति विदेशी निवेशकों के नियंत्रण से नहीं आएगी. यह आएगी एक राष्ट्रीय, किसान-नेतृत्व वाले संप्रभु संपत्ति कोष (SWF) से.

यह आएगी एक सहकारी आर्थिक व्यवस्था से जो ग्रामीण संपत्ति का निर्माण करे. यह आएगी एक ऐसी सरकार से जो किसानों को केवल वादों से नहीं, बल्कि स्वामित्व और बाजारों पर नियंत्रण देकर सशक्त बनाए. दुनिया देख रही है. वैश्विक कृषि कंपनियां प्रतिरोध कर रही हैं. लेकिन, इतिहास गवाह है- जब भारत के किसान संगठित होते हैं, तो कोई भी ताकत उन्हें रोक नहीं सकती.
यह हमारा समय है. सवाल यह है- क्या हम इसे अपनाने के लिए तैयार हैं?

 (लेखक वर्ल्ड कोऑपरेशन इकोनॉम‍िक फोरम के कार्यकारी अध्यक्ष हैं)

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