Chinnamul Movie: विभाजन के दौरान घरों से उजड़े किसानों की मर्मस्पर्शी कहानी, गांव के लोग ही बने कलाकार

Chinnamul Movie: विभाजन के दौरान घरों से उजड़े किसानों की मर्मस्पर्शी कहानी, गांव के लोग ही बने कलाकार

‘छिन्नमूल’ यानि जड़ों से उखड़ा – का विषय था विभाजन के दौरान पूर्व बंगाल के एक गांव से किसानों का कलकत्ता की तरफ पलायन. ये कथानक ना सिर्फ जटिल था बल्कि विवादास्पद भी. इस इंसानी त्रासदी को शब्दों में बयान करना ही मुश्किल था.

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Chinnamul Movie: घरों से उजड़े किसानों की मर्मस्पर्शी कहानी, गांव के लोग ही बने कलाकारबांग्ला फिल्म ‘छिन्नमूल’

बंगाल के सिनेमा का भारतीय सिनेमा में अप्रतिम योगदान रहा है. जब भी कभी भारतीय और बंगाली सिनेमा की बात होती है तो सबसे पहले ज़बान पर नाम आता है सत्यजित रे का . सत्यजित रे, ऋत्विक घटक, बिमल रॉय, मृणाल सेन, ऋतुपर्णो घोष जैसे नामों से फिल्मों के शौकीन भारतीय परिचित होते ही हैं.बेशक भारतीय सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर प्रतिष्ठा दिलाने का श्रेय सत्यजित रे को जाता है, लेकिन रे से पहले भी बंगाल की ज़मीन पर बहुत प्रतिभावान फिल्म निर्देशक अच्छी और प्रासंगिक फिल्म बना रहे थे. ऐसे ही एक निर्देशक थे, नेमाई घोष.

कल्पना कीजिये 1947 के बाद के भारत की, जब देश आज़ादी की खुशी और विभाजन की त्रासदी का बोझ लिए अपनी एक नयी पहचान बनाने में जुटा था. अव्यवस्था के बीच व्यवस्था बनाने का प्रयास और अपने लोगों से अलग होने की टीस के बीच रचनात्मक लोग देश की छवि को तिनका-तिनका बनाने की कोशिश कर रहे थे तो साथ ही, अपने समाज की कमजोरियों और बुराइयों को भी हाइलाइट कर रहे थे ताकि एक नए स्वस्थ और शांतिपूर्ण समाज का निर्माण किया जा सके.

ऐसे में, नेमाई घोष, जो उस वक्त सिनेमेटोग्राफर के तौर पर काम कर रहे थे और मशहूर थिएटर ग्रुप इप्टा के सदस्य भी थे, उन्होंने विभाजन के दौरान किसानों की दुर्दशा पर फिल्म बनाने के बारे में सोचा. इससे पहले वे इप्टा द्वारा मंचित ‘नबान्न’ नामक नाटक में काम कर चुके थे जिसमें 1942-43 के अकाल के दौरान कलकत्ता में बेघरबार और भूख से बेहाल ग्रामीणों के जीवन का मार्मिक चित्रण था.

फिल्म ‘छिन्नमूल’ का स्क्रीनप्ले लिखने के लिए उन्होंने सत्यजित रे की मदद ली. उस वक्त तक सत्यजित रे ने फिल्म निर्देशन का सफर शुरू नहीं किया था लेकिन स्क्रीनप्ले लिखने में उनकी मदद उपयोगी साबित हुई. ऋत्विक घटक भी इप्टा के सदस्य थे. जब उन्हे मालूम हुआ कि नेमाई फिल्म बना रहे हैं तो उन्होने असिस्टेंट बनने की इच्छा ज़ाहिर की. आखिरकार, ऋत्विक को फिल्म में एक छोटी सी भूमिका दी गई. यह पहली और आखिरी फिल्म थी जिसमें ऋत्विक घटक ने अभिनय किया.

‘छिन्नमूल’ यानि जड़ों से उखड़ा – का विषय था विभाजन के दौरान पूर्व बंगाल के एक गांव से किसानों का कलकत्ता की तरफ पलायन. ये कथानक ना सिर्फ जटिल था बल्कि विवादास्पद भी. इस इंसानी त्रासदी को शब्दों में बयान करना ही मुश्किल था फिर फिल्मांकन तो लगभग नामुमकिन. लेकिन नेमाई ने निश्चय कर लिया था.

फिल्म की शूटिंग कठिन हालात में हुई. बजट तो कम ही था. फिर कथानक के मद्देनजर निर्देशक ने फैसला किया कि अभिनेताओं की बनिस्पत आम ग्रामीणों से अभिनय करवाएंगे. कुछ कलाकार इप्टा के थे, और कुछ आमजन. ज़्यादातर शॉट्स बाहर के थे स्टूडिओ के नहीं. तो इसलिए नेमाई ने गुरिल्ला तरीका अपनाया- चलती हुई ट्रेन में कैमरे को छिपा कर शूटिंग की गई . उस जमाने के कैमरे को छिपना भी मुश्किल था तो ज़ाहिर है, ये चोरी पकड़ी गई. किसी ने शिकायत लगा दी कि सांप्रदायिकता को हवा देने के लिए इस तरह की शूटिंग की जा रही है. नतीजतन, गृह मंत्रालय ने सख्ती से मना कर दिया कि कोई शूटिंग नहीं की जाएगी. एक कोर्ट ऑर्डर के तहत पुलिस ने उनसे स्क्रिप्ट भी छीन ली.

गृह मंत्रालय को कई स्तरों पर मनाया गया. और फिर रेलवे के कुछ कर्मचारियों ने भी नेमाई की मदद की. नेमाई की टीम ने जिस-किसी तरह से सियालदह स्टेशन पर ट्रेनों में शूटिंग पूरी की. इस बात का श्रेय पूरी तरह से नेमाई घोष के निर्देशन को जाता है कि उनके अभिनेता शरणार्थियों की भीड़ के साथ पूरी तरह घुलमिल जाते थे और मिड शॉट, लॉन्ग शॉट में अंदाज़ा ही नहीं लगाया जा सकता था कि कौन अभिनेता है, कौन नहीं. फिर क्लोज़-अप का सशक्त इस्तेमाल किया गया बेघरबार और अपनी ज़मीन से जुदा होने की अथाह पीड़ा को दर्शाने के लिए.

फिल्म की कहानी के केंद्र में है पूर्व बंगाल के एक छोटे से गाँव नल्दंगा में रहने वाले किसान –जो हिंदू भी हैं और मुस्लिम भी. अपनी सीमित आय में वे सभी सकून की ज़िंदगी बिता रहे हैं. इनमें सिर्फ श्रीकांत ही है जो राजनीतिक और सामाजिक तौर पर सजग है और उसे देश में हो रहे बदलावों की जानकारी भी है. विभाजन से ठीक पहले दो लालची लोग किसी षड्यंत्र में फंसा कर श्रीकांत को जेल भिजवा देते हैं. कुछ ही दिनों में दंगों की खबरें नल्दंगा तक पहुँचती हैं तो वहाँ के किसान परेशान हो जाते हैं. उनकी इसी असुरक्षा की भावना का फ़ायदा उठा कर ये दोनों लालची लोग किसानों को कम दामों में अपनी ज़मीन बेचने के लिए मना लेते हैं और उन्हें आश्वस्त कर देते हैं कि कलकत्ता पहुँच कर सब कुछ ठीक हो जाएगा.

भोले-भाले किसान इन लोगों के झांसे में आ जाते हैं. श्रीकांत की गर्भवती पत्नी भी अपनी ज़मीन छोड़ कर इन लोगों के साथ सियालदाह के लिए चल निकलती है. सियालदाह स्टेशन पर पहुँच कर उन्हें एहसास होता है कि वे अपना घर संसार छोड़ कर एक अजनबी जगह पर आ गए हैं और यहाँ से वापिस लौटना नामुमकिन है. उन्हें अन्य शरणार्थियों के साथ विषम परिस्थितियों में रहना पड़ता है.

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उधर श्रीकांत जेल से छूट कर अपने परिवार की तलाश में निकलता है और तमाम जद्दोजहद के बाद वह शरणार्थियों के बीच अपने गाँव के लोगों और पत्नी को ढूंढ लेता है. ठीक उस वक्त जब मकान का मालिक इन किसानों को अपने मकान से जबरन निकालने के लिए गुंडों को बुला लेता है, तो श्रीकांत की पत्नी एक बेटे को जन्म देकर दम तोड़ देती है. श्रीकांत के थके, असहाय और दुख से आक्रांत चेहरे के साथ ही फिल्म का अंत होता है और यह चेहरा आपको बहुत देर तक सालता रहता है. श्रीकांत का दुख एक पूरे समाज की टूटन और वेदना का प्रतीक है. फिल्म बहुत मार्मिक तरीके से दिखलाती है इन शरणार्थियों को सरवाइवल के लिए संघर्ष करते हुये; कि किस तरीके से गाँव के किसान और कारीगर महज़ मजदूर में तब्दील हो जाते हैं जिन्हें बस दो जून की रोटी के लिए रोजाना संघर्ष करना पड़ता है.

इस फिल्म को दो दृश्यों के लिए हमेशा याद किया जाता है- एक- रेलवे स्टेशन पर हताश, थके हुये शरणार्थियों की भीड़ के सीक्वेंस के लिए, दूसरा- वह दृश्य जिसमें एक बूढ़ी किसान विधवा अपने घर का दरवाजा पकड़े खड़ी है और चिल्ला कर कहती है- “मैं कहीं नहीं जाऊँगी! मैं अपने पति का घर छोड़ कर कहीं नहीं जाऊँगी!” लेकिन बाद में उसे भी वह घर छोडना पड़ता है.

इस वृद्ध महिला की भी अपनी कहानी है जिसे नेमाई घोष ने एक इंटरव्यू के दौरान साझा किया था. नेमाई ने बताया कि ये बुजुर्ग महिला जो खुद शरणार्थी थीं, कोई अभिनेता नहीं थीं, ना ही उन्होने पहले कभी सिनेमा देखा था. इसलिए उन्हें यह दृश्य बार-बार समझाया जा रहा था.

इन बुज़ुर्ग ने ध्यान से सुना और फिर कैमरा और लाइट्स की तरफ इशारा करते हुये नेमाई से कहा, “अगर तुम मुझे इन सबके बारे में बताना चाहते हो तो बताओ, मैं यह सब सीख लूँगी.“ फिर कुछ क्षण की चुप्पी के बाद उन्होने लगभग चिल्लाते हुये कहा, “लेकिन तुम मुझे यह नहीं बता सकते कि अपना सब कुछ छोड़ कर जाने में अंदर क्या जलता है, कैसा महसूस होता है! ये मैं तुम्हें बताऊंगी.” नेमाई कुछ भी नहीं बोल सके. इंटरव्यू में ही उन्होने बताया कि ये संवाद जो अब बंगला सिनेमा में ही नहीं भारतीय सिनेमा में अमर हो चुके हैं, उन बुजुर्ग महिला ने खुद ही शूटिंग के दौरान बगैर किसी पूर्वाभ्यास के बोले थे.

‘छिन्नमूल’ 1951 में रिलीज़ हुई. यह भारतीय सिनेमा की पहली नव यथार्थवादी फिल्म है और पार्टीशन पर बनी पहली फिल्म. लेकिन यह कुछ खास कारोबार नहीं कर पायी. विभाजन की त्रासदी के घाव अभी ताज़ा थे और शायद लोग अपने दर्द भरे अतीत को एक बार फिर जीना नहीं चाहते थे. किस्मत से उसी दौरान प्रसिद्ध रूसी निर्देशक पुदोव्किन का भारत आना हुआ. जब पुदोव्किन ने यह फिल्म देखी तो वे बहुत प्रभावित हुए और उन्होने इसे रूस में दिखलाने का फैसला किया. फिल्म को रूसी सरकार ने खरीदा और रूसी भाषा में सबटाइटल्स के साथ यह 181 सेंटर्स में दिखलाई गई. यह पहली भारतीय फिल्म थी जिसे रूस में इतना सम्मान मिला और इससे फिल्म की कीमत भी वसूल हो गयी.

ये भी विडम्बनापूर्ण है कि नेमाई घोष को इस फिल्म के बाद बांग्ला फिल्म इंडस्ट्री में कोई खास काम नहीं मिला और ‘छिन्नमूल’ के किरदारों की तरह उन्हें भी बंगाल छोड़ कर मद्रास जाना पड़ा जहां उन्होने तीस दशक तक काम किया. 1960 में उन्होंने तमिल में एक फिल्म बनाई – ‘पाथी थेरी यूडु पार’ जिसे राष्ट्रीय सम्मान से नवाजा गया. ‘छिन्नमूल’ विभाजन के दौरान किसानों की दुखद दास्तां तो बयान करती ही है, साथ ही उन लाखों प्रवासी मजदूरों की पीड़ा की भी याद दिला जाती है जो आजकल शहरों में हमारे आसपास काम करते रहते हैं और हमें नज़र भी नहीं आते लेकिन लॉकडाउन के दौरान घर लौटने की आपाधापी में उन्होने अकथनीय दिक्कतों का सामना किया.


 

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