Halodiya Sarai Baodhan Khai: गरीब किसान के अपनी ही ज़मीन पर हक हासिल करने के संघर्ष की मार्मिक कहानी

Halodiya Sarai Baodhan Khai: गरीब किसान के अपनी ही ज़मीन पर हक हासिल करने के संघर्ष की मार्मिक कहानी

फिल्म की कहानी जीवन की असलियत और उसमें निहित विडंबनापूर्ण हालात को बखूबी पेश करती है. कहीं कोई मेलोड्रामा नहीं लेकिन फिर भी छोटे छोटे प्रसंग दिल छू जाते हैं. मसलन-रखेस्वर के बच्चे बहुत उत्सुकता और उत्साह से एक खास दही के बनने का इंतज़ार कर रहे हैं.

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Halodiya Sarai Baodhan Khai: गरीब किसान के अपनी ही ज़मीन पर हक हासिल करने के संघर्ष की मार्मिक कहानीगरीब किसान के अपनी ही ज़मीन पर हक हासिल करने के संघर्ष की मार्मिक कहानी

असम उत्तर पूर्व भारत का ऐसा प्रदेश है, जो साहित्य और फिल्म के क्षेत्र में काफी समृद्ध रहा है. खासकर साहित्य के क्षेत्र में ज्योतिप्रसाद अगर्वाला, इन्दिरा गोस्वामी, बिरिञ्चि कुमार बरुआ और होमेन बोर्गोहइन जैसे दिग्गजों ने असमी साहित्य की समृद्ध परंपरा को परिपोषित किया है और इन लेखकों की रचनाओं का कई देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है. पैसे की लगातार किल्लत के बीच यहां के फिल्ममेकर्स भी अच्छी फिल्में बनाते रहे हैं. भूपेन हजारिका के योगदान को भला कौन भूल सकता है. ऐसे ही एक फिल्म निर्देशक हैं जानु बरुआ, लेकिन जानु बरुआ के बारे में बात करने से पहले ज़रा ये जान लें कि असमिया में फिल्में बनना कब शुरू हुईं.

1935 में ज्योतिप्रसाद अगर्वाला द्वारा निर्देशित और प्रोड्यूस की गयी फिल्म ‘जोयमोती’ रिलीज़ हुई. 17वीं सदी की अहोम राजकुमारी जोयमोती के बलिदान पर आधारित यह फिल्म हालांकि बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई नहीं कर सकी लेकिन विद्रोह का स्पष्ट स्वर लिए यह भारत की पहली राजनीतिक फिल्म और पहली नारीवादी फिल्म भी कही जा सकती है. ज्योतिप्रसाद स्वतंत्रता सेनानी थे और फिल्म की स्क्रिप्ट भी उन्होंने जेल में ही लिखी थी.

फिल्म ‘हलोदिया सराइ बाओधन खाइ’ 

ज्योतिप्रसाद के अलावा भूपेन हजारिका, भबेंद्र नाथ सेकिया, मंजु बोरा, जानु बरुआ और रीमा दास असम के प्रमुख फ़िल्मकार रहे हैं, जिन्होने मुनाफे की चिंता किए बगैर इस अंचल से जुड़ी बहुत खूबसूरत फिल्में बनाई हैं. रीमा दास की फिल्म ‘विलेज रॉकस्टार्स’ ने बहुत से राष्ट्रीय पुरस्कार जीते और 90वें अकादमी अवार्ड्स में भारत की तरफ से इसी फिल्म को भेजा गया था.

फिलहाल हम बात करते हैं एक अन्य प्रमुख असमिया निर्देशक जानु बरुआ की फिल्म ‘हलोदिया सराइ बाओधन खाइ’ के बारे में, इसका अंग्रेज़ी शीर्षक दिया गया ‘द केटेस्ट्रोफ़ी’. यह फिल्म आधारित है. असम के प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार होमेन बोर्गोहइन द्वारा लिखित कहानी पर. जानु बरुआ आधुनिक असमिया निर्देशकों में एक खास जगह रखते हैं. इस अंचल की फिल्मों पर उन्होने एक अमिट छाप छोड़ी है. हिन्दी दर्शक उन्हें 'मैंने गांधी को नहीं मारा' जैसी चर्चित फिल्म के कारण जानते हैं.

1987 में रिलीज़ हुई थी यह फिल्म

जानु बरुआ की नवयथार्थवादी शैली, फिल्मांकन का सरल और काव्यात्मक अंदाज़ अब असमिया फिल्मों की पहचान बन चुके हैं. ‘हलोदिया सराइ बाओधन खाइ’ ने भी असमिया फिल्मों को देश और विश्व पटल पर प्रमुखता से रखा. 1987 में रिलीज़ हुई यह फिल्म कहानी है रखेस्वर नाम के एक गरीब किसान की, जिसे पता चलता है कि जिस ज़मीन पर खेती करने का टैक्स वह सालों से भरता आया है. वह ज़मीन उसकी नहीं बल्कि उस इलाके के जमींदार सनातन सरमा की है. अनपढ़ और मासूम रखेस्वर को यह तो मालूम है कि उसके पिता ने कुछ समय के लिए अपनी ज़मीन जमींदार के यहां गिरवी रखी थी, लेकिन उसे छुड़ा भी लिया था, लेकिन यह साबित करने के लिए उसके पास कोई रसीद या कागज नहीं हैं.

किसान के संघर्ष की कहानी है ये फिल्म

सीमित संसाधनों में संतुष्ट और अपने बेटे को कलेक्टर बनाने का सपना देखने वाले रखेस्वर की ज़िंदगी में तूफान आ जाता है. अगर ज़मीन नहीं रहेगी तो उसका परिवार जीवनयापन कैसे करेगा? आखिरकार वह कानूनी सलाह लेता है और ब्यूरोक्रेसी के चक्रव्यूह में फंस जाता है. इधर महत्वाकांक्षी सनातन सरमा स्थानीय एमएलए बनने का सपना देख रहा है.
अपनी ज़मीन पाने के लिए रखेस्वर को पहले अपनी गाय बेचनी पड़ती है, फिर दो बैल गिरवी रखने पड़ते हैं, और अंततः अपने बेटे को गांव के मुखिया के यहां नौकर रखना पड़ता है. विडम्बना ये कि पैसा कमाने के लिए उसे खुद अपने बेटे के साथ जमींदार सरमा के चुनावी पोस्टर भी चिपकाने पड़ते हैं. आखिरकार, एसडीसी की मदद से उसे अपनी ज़मीन तो मिल जाती है, लेकिन अफसोस ये कि अब उसके पास उस ज़मीन पर खेती करने के लिए बैल नहीं हैं.

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जीवन की असलियत बताती है ये कहानी

फिल्म की कहानी जीवन की असलियत और उसमें निहित विडंबनापूर्ण हालात को बखूबी पेश करती है. कहीं कोई मेलोड्रामा नहीं लेकिन फिर भी छोटे छोटे प्रसंग दिल छू जाते हैं. मसलन-रखेस्वर के बच्चे बहुत उत्सुकता और उत्साह से एक खास दही के बनने का इंतज़ार कर रहे हैं, जिसे एक विशिष्ट भोज पर खाना है. दोनों बच्चे दही की हांडी के हिस्से भी बांट लेते हैं, लेकिन रखेस्वर को कानूनी सलाह देने वाला वकील उसी दही की मांग रख देता है और रखेस्वर चुपचाप दही की हंडिया उठा कर उसके घर ले जाता है.

या फिर, अंत का सीक्वेंस, जहां रखेस्वर एक कुल्हाड़े से ज़मीन को जोतने की कोशिश कर रहा है और सामने पेड़ पर लगा सनातन सरमा का पोस्टर देखता है, तो आग बबूला होकर उस पोस्टर पर प्रहार करते हुए चिल्लाता है “तुमने ज़मीन वापिस कर दी तो क्या मैं तुझे वोट दे दूंगा? मैं तुझे वोट नहीं दूंगा!”.

रखेस्वर की जीवन शैली से आम आदमी के जीवन में निहित विडंबनाएं भी प्रतिबिम्बित होती हैं. एक किसान के तौर पर वह बारिश का इंतज़ार करता है, लेकिन जब बारिश आती है तो घर की छत टपकने लगती है. वह उदास होकर बुदबुदाता है. एक किसान तो बारिश का मज़ा भी नहीं ले सकता!

होमेन बोर्गोहइन की कहानी और किरदार जीवंत थे

जानु बरुआ की फिल्मों की खासियत है, उनके नायकों का पूरी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष. एक असहाय किसान भी अपनी आस्था और विश्वास के साथ पूरी व्यवस्था से संघर्ष में जुट जाता है. उसकी सफलता आंशिक या विडंबनापूर्ण हो सकती है, लेकिन उसका संघर्ष आम आदमी की जीवटता को दर्शाता है, और हमारी व्यवस्था में व्याप्त अन्याय और असमानता को भी.
जानु बरुआ ने एक इंटरव्यू में बताया था कि होमेन बोर्गोहइन की कहानी और किरदार बहुत जीवंत थे, इसलिए उन्हें स्क्रिप्ट लिखने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई.

जानु बरुआ के निर्देशन के संदर्भ में एक असमिया निर्देशक अंशुमान बरुआ ने माना कि जानु असम के फिल्म निर्देशकों के लिए प्रेरणास्रोत हैं, वे सिर्फ फिल्म बनाने के लिए ही फिल्म नहीं बनाते बल्कि वे उस आइडिया, फिल्म और किरदारों का हिस्सा हो जाते हैं. अंशुमान ने एक और दिलचस्प बात बताई, जब तक जानु फिल्म सेट पर होते हैं, वो अपने किरदारों के बाल खुद ही काटते हैं!

ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के आने से फिल्मों को मिला नया मंच

बहरहाल, ‘हलोधिया सराइ, बाओधन खाइ’ ने बहुत से राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते. रखेस्वर की भूमिका में अभिनेता इंद्र बानिया ने अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई. जानु बरुआ नौ बार राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके हैं. लेकिन दस फिल्में बनाने के बाद क्षुब्ध होकर जानु ने एक बार कहा था कि फिल्म बनाने से तो अच्छा है कि वे कोई छोटा-मोटा कारोबार कर लेते.
उनकी ये हताशा जायज़ भी है क्योंकि उत्तरपूर्व प्रदेशों में बनने वाली फिल्में बॉक्सऑफिस पर अच्छी कमाई नहीं कर पातीं.

इसके पीछे फिल्म हाल्स की कमी और भाषाओं की अनेक स्थानीय बोलियों का होना है, लेकिन अब ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के आने से इन फिल्मों को एक नया मंच और बाज़ार भी मिला है. ‘हलोदिया सराइ, बाओधन खाइ’ इस बात का सबूत है कि एक गरीब किसान की छोटी सी आंचलिक कहानी समय और स्थान से परे वैश्विक स्तर पर प्रासंगिक हो सकती है और कलात्मक स्तर पर एक बहुमूल्य धरोहर.

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