एक किसान के बेटे ने बनाया ऐसा रॉकेट जो करता है तारों से बात... कहानी ISRO के वैज्ञानिक बीएन सुरेश की 

एक किसान के बेटे ने बनाया ऐसा रॉकेट जो करता है तारों से बात... कहानी ISRO के वैज्ञानिक बीएन सुरेश की 

एक साधारण किसान परिवार के इस बेटे ने  को वह ऊंचाई दी, जिस पर आज पूरा देश गर्व करता है. पीएसएलवी को दुनिया का सबसे भरोसेमंद रॉकेट बनाने से लेकर स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरिमेंट (एसआरई) तक, डॉक्‍टर सुरेश का योगदान भारतीय अंतरिक्ष यात्रा की रीढ़ रहा है. साल 1969 में इसरो ज्वाइन करने के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने पीएसएलवी और जीएसएलवी के कई सफल लॉन्च कराए.

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एक किसान के बेटे ने बनाया ऐसा रॉकेट जो करता है तारों से बात... कहानी ISRO के वैज्ञानिक बीएन सुरेश की बीएन सुरेश को हमेशा PSLV के लिए श्रेय दिया जाता है

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो दिन पर दिन नई ऊंचाईयों को छू रहा है. इसरो का पीएसएलवी रॉकेट आज दुनिया के सामने एक नई मिसाल है. लेकिन क्‍या आप जानते हैं कि इस रॉकेट को जिस शख्‍स ने इनवेंट किया, उसने बचपन से जमीन से धान जैसी फसलों को उगाने की कला को करीब से सीखा था. उस समय किसी को नहीं मालूम था कि किसान का बेटा किसान नहीं बल्कि एक ऐसा वैज्ञानिक बनेगा जो देश को नई ऊंचाईयों पर लेकर जाएगा. हम बात कर रहे हैं पद्मभूषण सम्‍मान से नवाजे गए इसरो के वैज्ञानिक बीएन सुरेश की जिन्‍हें आज उनके जन्‍मदिन पर वैज्ञानिकों की तरफ से बधाईयां मिल रही हैं. 

IIT मद्रास से पढ़ाई 

एक साधारण किसान परिवार के इस बेटे ने  को वह ऊंचाई दी, जिस पर आज पूरा देश गर्व करता है. पीएसएलवी को दुनिया का सबसे भरोसेमंद रॉकेट बनाने से लेकर स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरिमेंट (एसआरई) तक, डॉक्‍टर सुरेश का योगदान भारतीय अंतरिक्ष यात्रा की रीढ़ रहा है. डॉ. बायरना नागप्पा सुरेश का जन्म 12 नवंबर 1943 को कर्नाटक के एक छोटे से गांव होसाकेरे में हुआ था. पिता भले ही किसान थे लेकिन बेटे को उन्‍होंने पढ़ने के लिए हर बेहतर साधन मुहैया कराया. कन्नड़ माध्यम से स्कूली शिक्षा पूरी करने वाले सुरेश ने मैसूर यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग और आईआईटी मद्रास से पोस्ट ग्रेजुएशन की. 

1969 में बने इसरो का हिस्‍सा 

साल 1969 में इसरो ज्वाइन करने के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर (वीएसएससी) के निदेशक (2003-2007) रहते हुए उन्होंने पीएसएलवी और जीएसएलवी के कई सफल लॉन्च कराए. उनके नेतृत्व में पीएसएलवी-सी5, सी6 और सी7 जैसी उड़ानें हुईं, जो आज भी रिकॉर्ड हैं. उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि साल 2007 में स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरिमेंट (एसआरई-1) रही. पहली कोशिश में ही कैप्सूल को सटीक जगह पर सुरक्षित उतारा गया. यह भारत की मानव अंतरिक्ष उड़ान की दिशा में पहला कदम था. डॉ. सुरेश ने सभी भारतीय लॉन्च व्हीकल्स के लिए नेविगेशन, गाइडेंस एंड कंट्रोल (एनजीएस) सिस्टम विकसित किए. इलेक्ट्रो-हाइड्रॉलिक और इलेक्ट्रो-मैकेनिकल एक्ट्यूएशन सिस्टम भी उनके नेतृत्व में स्वदेशी बने, जिससे आयात पर निर्भरता खत्म हुई. 

IIST की शुरुआत 

डॉ. सुरेश ने ही भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईएसटी, तिरुवनंतपुरम) की नींव रखी और उसके संस्थापक निदेशक बने. आज आईआईएसटी देश की इकलौती ऐसी यूनिवर्सिटी है जहां पर अंतरिक्ष के बारे में विस्‍तार से बताया जाता है. साथ ही यहां के 100 प्रतिशत छात्रों को इसरो में नौकरी मिलती है. रिटायरमेंट के बाद भी वह आईआईएसटी के चांसलर और इसरो हेडक्‍वार्टर में ऑनरेरी डिस्टिंग्विश्ड प्रोफेसर हैं. उनकी सेवाओं को देखते हुए पद्म भूषण (2013), पद्म श्री (2002), आर्यभट्ट अवॉर्ड, आईईईई साइमन रामो मेडल (2020), इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ सिस्टम्स इंजीनियरिंग का ग्लोबल पायनियर अवॉर्ड जैसे दर्जनों सम्मान दिए गए. 

वे भारतीय राष्ट्रीय इंजीनियरिंग अकादमी (आईएनएई) के भी चार साल तक अध्यक्ष रहे. डॉ. सुरेश ने डॉ. के. सिवन के साथ मिलकर 'इंटीग्रेटेड डिजाइन फॉर स्पेस ट्रांसपोर्टेशन सिस्टम' किताब लिखी और 'फ्रॉम फिशिंग हैमलेट टू रेड प्लैनेट' और 'एवर अपवर्ड: इसरो इन इमेज' जैसी किताबों में इसरो की कहानी को संजोया. आज जब चंद्रयान-3 और आदित्य-एल1 जैसी सफलताओं से भारत अंतरिक्ष की महाशक्ति बन रहा है, तो उसके पीछे डॉ. बी.एन. सुरेश जैसे वैज्ञानिकों की मेहनत है. 

इनपुट IANS 

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