Cotton Crisis: गुलाबी सुंडी के बाद अब कॉटन की खेती पर नया संकट, टिंडा गलन रोग ने किसानों को रुलाया

Cotton Crisis: गुलाबी सुंडी के बाद अब कॉटन की खेती पर नया संकट, टिंडा गलन रोग ने किसानों को रुलाया

Cotton Crisis: कुरनूल और रायलसीमा क्षेत्र के प्रमुख कपास उत्पादक इलाकों में बॉल रॉट रोग का गंभीर प्रकोप हो चुका है. नमी और आर्द्रता वाले वातावरण में तेजी से फैलने वाली यह बीमारी अब खड़ी फसल को नुकसान पहुंचा रही है. इसकी वजह से  2025-26 में उत्पादन घटने और रेशे की गुणवत्ता खराब होने से किसानों को बड़ा आर्थिक नुकसान होने की आशंका है. 

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Cotton Crisis: गुलाबी सुंडी के बाद अब कॉटन की खेती पर नया संकट, टिंडा गलन रोग ने किसानों को रुलायाCotton Crisis: आंध्र प्रदेश में कपास किसानों के सामने नई मुसीबत

आंध्र प्रदेश के कपास किसानों के लिए खरीफ 2025-26 मौसम एक नई मुसीबत लेकर आया है. अभी तक सिर्फ कपास पर गुलाबी सुंडी के हमले की बातें होती थीं लेकिन अब यहां के किसानों को एक नई मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है. बॉल रॉट या टिंडा गलन रोग ने कपास की फसल को चौपट कर दिया है और यह रोग ने तेजी से पैर पसार रहा है. असामान्य मॉनसून, लगातार बारिश और बहुत ज्‍यादा नमी की वजह से बीमारी का फैलाव ज्‍यादा हो रहा है. अनुकूल माहौल की वजह से पनप रहे इस रोग को लेकर वैज्ञानिकों ने चेतावनी भी दी है. उन्‍होंने आगाह किया है कि अगर समय रहते रोकथाम नहीं की गई तो उत्पादन में भारी गिरावट हो सकती है और किसानों को बड़ा आर्थिक नुकसान झेलना पड़ सकता है. यह कपास में लगने वाला वह रोग है जिसके बारे में समझा जाता था कि इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है. 

कुरनूल कपास का बड़ा क्षेत्र 

दक्षिण एशिया जैव प्रौद्योगिकी केंद्र (एसएबीसी), जोधपुर की तरफ से प्रोजेक्‍ट बंधन के तहत केवीके बनवासी की मदद से हुए एक सर्वे में यह बात सामने आई है कि कुरनूल और रायलसीमा क्षेत्र के प्रमुख कपास उत्पादक इलाकों में बॉल रॉट रोग का गंभीर प्रकोप हो चुका है. नमी और आर्द्रता वाले वातावरण में तेजी से फैलने वाली यह बीमारी अब खड़ी फसल को नुकसान पहुंचा रही है. इसकी वजह से  2025-26 में उत्पादन घटने और रेशे की गुणवत्ता खराब होने से किसानों को बड़ा आर्थिक नुकसान होने की आशंका है. 

आंध्र प्रदेश के सबसे बड़े कपास उत्पादक जिलों में कुरनूल की काफी अहमियत है. राष्‍ट्रीय स्तर पर जहां कपास की खेती का रकबा घट रहा है, वहीं 2025 में समय पर और जरूरी बारिश से राज्य में रिकॉर्ड बुआई की गई. खरीफ 2025-26 में पूरे राज्य में करीब 3.39 लाख हेक्टेयर में कपास बोया गया, जिसमें अकेले कुरनूल का हिस्सा 2.36 लाख हेक्टेयर रहा. यह अब तक का सबसे अधिक आंकड़ा है और राज्य में कुल बुआई का करीब 70 फीसदी है. 

अंदर से चिपचिपे हुए बीज 

शुरुआती चरण में गर्म मौसम और कम बारिश के कारण जल्दी बुआई हुई, जिससे कपास एफिड (Aphis gossypii) का प्रकोप बढ़ा. बार-बार रासायनिक छिड़काव करने के बावजूद यह कीट नियंत्रण में नहीं आया. इसके बाद अगस्त में हुई लगातार बारिश और खेतों में जलभराव ने फफूंद संक्रमण के लिए आदर्श स्थितियां पैदा कर दीं. कई तरह की फफूंद ने परिपक्व हो रहे बीजकोषों पर हमला कर दिया. ये  फफूंद अक्सर दरारों, एफिड द्वारा बने घावों या झड़े हुए फूलों से अंदर प्रवेश कर जाते हैं. प्रभावित बीजकोष पहले हरे रहते हैं लेकिन धीरे-धीरे भूरे-काले होकर अंदर से चिपचिपे हो जाते हैं. 

विशेषज्ञ बोल, तुरंत हो रिसर्च 

कपास के खेतों में, विशेष रूप से प्रजनन से लेकर बीजकोषों के विकास के चरणों में, अब बाहरी और आंतरिक बीजकोषों में काफी ज्‍यादा सड़न देखी गई. यह प्रकोप लगातार दो सालों से जारी गुलाबीसुंडी (पीबीडब्ल्यू) के गंभीर संक्रमण के बाद आया है. इससे पूरे आंध्र प्रदेश में कपास की खेती में किसानों का विश्वास और कम हुआ है. व्यापक क्षेत्र के दौरे और घूम-घूम कर किए गए सर्वेक्षण के बाद, दक्षिण एशिया जैव प्रौद्योगिकी केंद्र केभागीरथ चौधरी ने 'किसान तक' को बताया‍ कि बॉल रॉट कॉम्प्लेक्स कपास में एक बड़ी चुनौती के तौर पर उभर रहा है जिससे उत्‍पादन पर संकट गहराता जा रहा है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कपास वैज्ञानिकों को प्रतिरोधी आनुवंशिक स्टॉक के विकास और टिकाऊ सहनशीलता प्रदान करने के लिए जीन एड‍िटिंग का फायदा उठाते हुए, इस पर तत्काल रिसर्च को प्राथमिकता देनी चाहिए. 

इस रोग के लक्षण 

कपास में बॉल रॉट बाहर और अंदर दोनों जगहों पर नजर आता है.  बीज के अंदर होने वाला रोग खासतौर पर बैक्‍टीरिया इनफेक्‍शन से जुड़ा होता है. जबकि बाहरी बीमारी आमतौर पर फाइटोपैथोजेनिक फफूंद और बाकी माइक्रो बैक्‍टीरिया की वजह से होती है. सिंगल बैक्‍टीरिया या फिर पैंटोइया एग्लोमेरेंस, पी. एनानाटिस, पी. डिस्पर्सा, पी. एंथोफिला, एर्विनिया यूरेडोवोरा, ज़ैंथोमोनस कैंपेस्ट्रिस पीवी. मालवेसेरम, निग्रोस्पोरा ओराइजी और कोलेटोट्राइकम गॉसिपी जैसे बैक्‍ट‍ीरिया की वजह से यह बीमारी हो सकती है. 

इस रोग कपास के बीजकोष के टिश्‍यूज धीरे-धीरे पीले से भूरे रंग में बदल जाते हैं क्योंकि जल्दी बने बीजकोषों के बीज में सड़न होने लगती है. बाहरी लक्षणों में सतह पर भूरे से काले धब्बे, काले बीजकोष और विकसित हो रहे बीजकोषों पर फफूंद बढ़ने लगती है. 

बीजकोष के अंदर, रेशे और बीज भूरे से काले रंग के हो जाते हैं जिससे रेशे की गुणवत्ता में गिरावट, कताई क्षमता में कमी और बाजार मूल्य में गिरावट आती है. गंभीर रूप से प्रभावित बीजकोष अक्सर सिकुड़ जाते हैं, सूख जाते हैं और समय से पहले झड़ जाते हैं, जिससे उपज में भारी नुकसान होता है. कई मामलों में, दिखाई देने वाले लक्षण सबसे पहले युवा बीजकोषों की बाहरी सतह पर दिखाई देते हैं. अगर समय पर नियंत्रण के उपाय नहीं किए गए तो तेजी से बढ़ते हैं. इससे किसानों को कटाई के समय भारी नुकसान का सामना करना पड़ सकता है. 

सिरसा स्थित आईसीएआर-सीआईसीआर के पूर्व प्रमुख और पूर्व कपास रोग विशेषज्ञ डॉ. दिलीप मोंगा के अनुसार, 'लगातार बारिश के कारण बॉल रोट की गंभीरता कई गुना बढ़ गई है. बॉल रोट के अलावा, हाल के वर्षों में दक्षिणी क्षेत्र में पत्ती धब्बों का प्रकोप भी बढ़ा है. इससे पत्तियों पर इकट्ठा होने वाले धब्बों के जरिये से उनका रंग भूरा हो सकता है, जिससे समय से पहले पत्तियां झड़ सकती हैं. इसलिए किसानों को सलाह दी जाती है कि वे नए विकसित हो रहे बोलों की सुरक्षा के लिए रोगनिरोधी छिड़काव करें. 

कैसे करें बचाव 

इस रोग से होने वाले नुकसानों को कम करने के लिए किसानों को आईसीएआर-सीआईसीआर की तरफ से मंजूर किए गए इंटीग्रेटेड मैनेजमेंट रणनीति अपनाने की सलाह दी जाती है. इस रणनीति में प्रभावी और स्थायी नियंत्रण के लिए कृषि पद्धतियों, संतुलित पोषण, रोगनिरोधी उपायों और एकीकृत कीट प्रबंधन का संयोजन होना चाहिए. 

इसके अलावा किसान साफ-सफाई का खास ध्‍यान रखें. सूखी पंखुड़ियों को हटा दें क्‍योंकि वो नमी बनाए रखती हैं और बैक्‍टीरियल इनफेक्‍शन की संभावना बढ़ जाती है. इसके अलावा नाइट्रोजन लैस उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग से बचें. 

गुच्छों के शुरुआती चरणों के दौरान, बादल छाए रहने, ज्‍यादा नमी और गुच्छों के बनने, फूल बनने के दौरान और गुच्छों के विकास के दौरान रुक-रुक कर होने वाली बारिश की स्थिति में, कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50 फीसदी WP @ 2.5 ग्राम/लीटर पानी, या कार्बेन्डाजिम 12 फीसदी + मैन्कोजेब 63 फीसदी WP @ 2.5 ग्राम/लीटर पानी के साथ 15 दिनों के अंतराल पर रोगनिरोधी फफूंदनाशक छिड़काव की सलाह दी जाती है. 

एफिड्स/जैसिड्स और पिंक बॉलवर्म (पीबीडब्ल्यू) जैसे चूसने वाले कीटों को सही और मंजूरी पाए कीटनाशकों के साथ प्रभावी ढंग से प्रबंधित किया जाना चाहिए. उनके खाने से होने वाले नुकसान से बॉल्स सड़ने वाले रोगाणुओं के लिए पनपने के मौके बन जाते हैं. 

कौन से कीटनाशक रहेंगे सही 

नीचे बताए गए कीटनाशकों को 10 लीटर पानी में मिलाकर छिड़कने से इस आफत से छुटकारा मिल सकता है. इन कीटनाशकों को आईसीएआर-सेंट्रल इंस्‍टीट्यूट फॉर कॉटन रिसर्च (सीसीआईआर) नागपुर की तरफ से मंजूरी दी गई है. 

  • प्रोपिकोनाजोल 25 फीसदी ईसी-10 मिलीलीटर 
  • कार्बेन्डाजिम 12 प्रतिशत +मैन्कोजेब 63 फीसदी  WP-30 ग्राम 
  • प्रोपिनेब 70 प्रतिशत WP-25–30 मिली
  • पायराक्लोस्ट्रोबिन 5 प्रतिशत + मेटिराम 55 फीसदी WG-20 ग्राम
  • कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत WP-420 ग्राम
  • एजोक्सीस्ट्रोबिन 18.2 फीसदी w/w+डाइफेनोकोनाजोल 11.4 प्रतिशत w/w SC-10 मिली
  • पाइराक्लोस्ट्रोबिन 20 प्रतिशत WP-10 ग्राम
  • क्रेसोक्सिम-मिथाइल 44.3 प्रतिशत SC-10 मिलीलीटर 
  • फ्लक्सापायरोक्सैड 167 ग्राम/लीटर + पायराक्लोस्ट्रोबिन 333 ग्राम/लीटर SC-6 ग्राम 
     

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