धान फसल (सांकेतिक तस्वीर)भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) और कृषि मंत्रालय पर धान की दो जीनोम-एडिटेड धान किस्मों के परीक्षण नतीजों में हेराफेरी कर उन्हें झूठे तरीके से “सफल” बताने का आरोप लगा है. जीएम-मुक्त भारत गठबंधन ने संस्थान और मंत्रालय पर यह आरोप लगाए हैं. संगठन ने दावा किया है कि यह मामला वैज्ञानिक ईमानदारी और सार्वजनिक सुरक्षा दोनों से जुड़ा है और इसमें पारदर्शिता की घोर कमी है. गठबंधन ने इस कथित वैज्ञानिक फर्जीवाड़े की स्वतंत्र जांच, जवाबदेही तय करने और जीनोम-एडिटेड फसलों की रिलीज पर रोक लगाने की मांग की है. गठबंधन ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में चार प्रमुख मांगें रखी हैं.
गठबंधन ने आरोप लगाया है कि आईसीएआर और कृषि मंत्रालय ने दो जीनोम-एडिटेड धान की किस्मों पूसा डीएसटी-1 और डीआरआर धान 100 (कमला) के आंकड़ों में हेरफेर कर उन्हें “विश्व में पहली बार” की उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया. लेकिन, आईसीएआर की अपनी वार्षिक रिपोर्टों (2023 और 2024) में मौजूद आंकड़े इन दावों को खारिज करते हैं. गठबंधन ने कहा कि आईसीएआर की रिपोर्टों में दिए गए वास्तविक परिणाम और उनके निष्कर्षों में स्पष्ट विरोधाभास है.
संगठन ने रिपोर्टों के हवाले से बताया कि पूसा डीएसटी-1 के परीक्षण में 2023 में पर्याप्त बीज न होने के कारण सूखा और खारापन सहनशीलता का कोई आंकड़ा ही नहीं था. जहां परीक्षण हुआ, वहां इसका उत्पादन MTU-1010 किस्म के बराबर या उससे कम रहा. 20 में से 12 परीक्षण स्थलों पर यह कम उत्पादक पाई गई. 2024 में भी इसे खारी मिट्टी में कोई खास बढ़त नहीं मिली, जबकि क्षारीय मिट्टी में महज 1.6% सुधार दर्ज किया गया. इसके बावजूद रिपोर्ट के सारांश में “30% अधिक उत्पादन” का दावा किया गया.
इसी तरह डीआरआर धान 100 ‘कमला’ को “चमत्कारी बीज” कहकर प्रचारित किया गया, लेकिन रिपोर्टों से पता चला कि 2023 में 19 में से 8 परीक्षण स्थलों पर इस किस्म का प्रदर्शन कमजोर रहा. कई जोनों में यह अपनी मूल किस्म से भी कमतर रही. 2024 में कई स्थलों के आंकड़े हटाकर केवल छह साइट्स के आधार पर “+17% उत्पादकता” का दावा किया गया, जबकि वास्तविक औसत उत्पादन 4% कम था. साथ ही इसके 20 दिन जल्दी पकने का भी कोई प्रमाण नहीं मिला.
जीएम-मुक्त भारत गठबंधन ने कहा कि यह कोई तकनीकी भूल नहीं, बल्कि बार-बार होने वाली वैज्ञानिक अनियमितताओं का एक खतरनाक पैटर्न है. रिपोर्टों में बुनियादी मापदंडों जैसे प्रति वर्गमीटर फूलों के गुच्छों की संख्या, फूल आने में लगने वाले दिनों और दानों की गुणवत्ता में मनमानी दर्ज की गई है. उदाहरण के तौर पर “कमला” किस्म का फूल आने का औसत समय (DFF) 101 दिन बताया गया है, जबकि इसकी मूल किस्म का 104 दिन. यानी दोनों में केवल तीन दिन का अंतर है, न कि 20 दिन जैसा दावा किया गया है.
गठबंधन की सदस्य कविता कुरुगंटी ने कहा कि सरकारी संस्थानों द्वारा इस तरह की वैज्ञानिक लापरवाही किसानों के जीवन और आजीविका के साथ खतरनाक खिलवाड़ है. उन्होंने कहा कि यह बुनियादी मानवाधिकार का मसला है और इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता. उन्होंने आगे कहा, “विज्ञान के नाम पर जुमलेबाजी को स्वीकार नहीं किया जा सकता. देश के ईमानदार वैज्ञानिकों का दायित्व है कि वे ऐसी अनैतिक प्रवृत्तियों पर सवाल उठाएं और संस्थानों की साख बचाएं.”
वहीं, शोधकर्ता और बायोटेक्नोलॉजिस्ट सौमिक बनर्जी ने भी सवाल उठाया कि अगर यह तकनीक इतनी सुरक्षित और प्रभावशाली है तो इसकी सभी परीक्षण रिपोर्ट और आंकड़े सार्वजनिक करने में हिचक क्यों. उन्होंने कहा कि खुलेपन से ही विज्ञान पर भरोसा बनता है, छुपाने से नहीं.
गठबंधन ने चेतावनी दी है कि नवाचार के नाम पर “घटिया विज्ञान” को बढ़ावा देना न सिर्फ किसानों की सेहत और आजीविका के लिए खतरा है, बल्कि भारतीय विज्ञान की साख और नागरिकों के भरोसे को भी कमजोर कर सकता है. संगठन ने सरकार से अपील की है कि वह विज्ञान के नाम पर कॉर्पोरेट हितों की नहीं, किसानों और जनता की सुरक्षा की रक्षा करे.
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