भारत का धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ में उर्वरक संकट मंडरा रहा है. कागज़ों पर तो आपूर्ति भरपूर दिखती है, लेकिन गांवों में गोदाम खाली हैं, किसानों की कतारें लंबी हैं, और निराशा बढ़ती जा रही है. छत्तीसगढ़ में लगभग 48 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि जिंदा रहने के लिए खादों पर ही निर्भर है. फिर भी, सुचारू आपूर्ति के सरकारी दावों के बावजूद, किसान या तो खाली हाथ लौट रहे हैं या काला बाजार में दोगुनी कीमत चुका रहे हैं.
अंबिकापुर के एक किसान ने कहा, “सुबह से लाइन में खड़े हैं, दो बोरी भी नहीं मिली... अब बुआई कैसे करेंगे?” वहीं, राजनांदगांव के एक किसान ने भी शिकायती लहजे में कुछ ऐसी ही बातें कहीं.
पूरे भारत में औसत खाद उपयोग 120 किलो प्रति एकड़ है. छत्तीसगढ़ में यह केवल 38 किलो है. इतनी कम मांग के बावजूद, राज्य पर्याप्त आपूर्ति नहीं कर पा रहा है. हर साल, राज्य को लगभग 22 लाख टन खाद की जरूरत होती है, लेकिन इस साल केवल 17 लाख टन की आपूर्ति हुई है, यानी 5 लाख टन का अंतर.
खाद की इस कमी का असर पूरे प्रदेश में देखा जा रहा है. किसान लाइनों में खड़े-खड़े दिन गुजार रहे हैं. जब खाद नहीं मिलती है तो वे विरोध प्रदर्शन पर उतर जाते हैं. विरोध प्रदर्शन की तस्वीरें पूरे प्रदेश में देखी जा रही हैं.
अब यह खाद का संकट राजनीति में भी फैल गया है. सरकार डीएपी की कमी स्वीकार कर रही है और उसने अपना लक्ष्य 3 लाख टन से घटाकर 2 लाख टन कर दिया है. अधिकारियों का तर्क है कि एक बैग डीएपी की जगह तीन एसएसपी और एक यूरिया का इस्तेमाल किया जा सकता है. लेकिन यहां भी, गणित सही नहीं बैठ रहा है.
इस बारे में छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष संजय पराते कहते हैं, यह फेरबदल (डीएपी के बदले एसएसपी और यूरिया) सस्ता नहीं है. किसानों का कहना है कि डीएपी की जगह लेने से लागत 1,000 रुपये प्रति एकड़ बढ़ जाएगी. राज्य भर में, यह 1,200 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ है, जो किसानों को पीएम किसान या बोनस योजनाओं में मिलने वाली राहत से कहीं ज़्यादा है.
बढ़ते दबाव के बीच, जनजातीय मामलों के मंत्री और वरिष्ठ बीजेपी नेता राम विचार नेताम ने अब इस मामले को दिल्ली तक पहुंचा दिया है. उन्होंने हाल ही में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा से मुलाकात की और संकट के समाधान के लिए तत्काल केंद्रीय दखल की मांग की.
विशेषज्ञों का कहना है कि समस्या नीतियों में फंसी हुई है. वे मोदी सरकार द्वारा उर्वरक क्षेत्र के निगमीकरण को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं. खाद का सेक्टर निजीकरण और नियंत्रण-मुक्त होने के कारण, कीमतें अब सरकार के हाथ में नहीं हैं, जिससे किसानों को किल्लत, बढ़ी हुई लागत और कालाबाज़ारी का सामना करना पड़ रहा है. यही वजह है कि कई राज्यों से खाद के लिए मारामारी की तस्वीरें सामने आ रही हैं.
48 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि से लेकर किसान परिवारों की राशन की थाली तक क्योंकि इसी से अनाज पैदा होता है, अब खाद संकट गहराता जा रहा है. करोड़ों रुपये खाद की कागजी सप्लाई पर बह जाते हैं, कई क्विंटल जमीन पर गायब हो जाती है, और भारत का धान का कटोरा भूखा रह जाता है क्योंकि उसके लिए समय पर खाद उपलब्ध नहीं हो पाती.
किसान सभा के उपाध्यक्ष संजय पराते कहते हैं, “छत्तीसगढ़ पहले ही किसान आत्महत्या के मामलों में शीर्ष राज्यों में है. यह उर्वरक संकट कृषि संकट को और बढ़ाएगा और किसानों को कर्ज और निराशा की गहरी खाई में धकेल देगा.”
छत्तीसगढ़ में उर्वरक की कमी केवल कृषि उत्पादन पर असर नहीं डाल रही, बल्कि यह किसानों के मनोबल और आर्थिक स्थिरता पर गहरा असर डाल रही है. यदि देश और राज्य सरकारें समय रहते महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाती हैं, तो इसका सामाजिक, आर्थिक और मानवीय प्रभाव गंभीर रूप ले सकता है. (सुमी राजाप्पन की रिपोर्ट)
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