Moong Ki Kheti: मूंग की खेती न केवल किसानों को अतिरिक्त आमदनी देती है बल्कि यह मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में भी बड़ी भूमिका निभाती है. इसकी फसल अवधि कम हैं और साथ ही साथ यह नैचुरल नाइट्रोजन उपलब्ध कराती है. इसकी इस क्षमता के चलते यह रबी के बाद गर्मियों में बोने के लिए बेहद उपयुक्त फसल बन गई है. विशेषज्ञों की मानें तो दलहनी फसलों की खासियत होती है कि वो वातावरण से नाइट्रोजन खींचकर उसे मिट्टी में बांध सकती हैं और मूंग की फसल सबसे आगे है.
कृषि विशेषज्ञों की मानें तो मूंग में राइजोबियम नामक बैक्टीरिया होता है, जो इसकी जड़ों में रहते हैं. ये बैक्टीरियर वायुमंडल से नाइट्रोजन को पकड़कर मिट्टी में परिवर्तित करते हैं. इसका सीधा फायदा यह होता है कि अगली फसल के लिए केमिकल लैस खादों की जरूरत कम पड़ती है. इससे लागत घटती है और पर्यावरण पर भी कम असर पड़ता है. उत्तर भारत में गेहूं की कटाई के बाद खेत कुछ समय के लिए खाली पड़े रहते हैं. किसान इस समय मूंग की खेती कर सकते हैं. यह न सिर्फ खेत को खाली रहने से बचाती है बल्कि जैविक तत्वों से मिट्टी की उर्वरता को भी बढ़ाती है.
यह मिट्टी में माइक्रो-बैक्टीरिया की संख्या और गतिविधियों को भी बढ़ाती है. इससे जमीन उपजाऊ होती है और लंबे समय तक बेहतर बनी रहती है. मूंग की फसल यूरिया और डीएपी जैसी महंगी रासायनिक खादों पर निर्भरता घटाती है. इससे उत्पादन लागत में कमी आती है. इसकी वजह से यह छोटे और सीमांत किसानों के लिए विशेष रूप से फायदेमंद है. इसकी खेती करके किसान लागत घटाकर मुनाफा बढ़ा सकते हैं. इसके अलावा, मूंग कम पानी में भी अच्छी तरह उग जाती है.
गर्मियों में खेतों में बची नमी का भरपूर उपयोग करती है. साथ ही यह मिट्टी को सूखने और फटने से भी बचाती है. इससे मिट्टी के स्ट्रक्चर को कोई नुकसान नहीं होता है. विशेषज्ञों का कहना है कि किसानों को चाहिए कि वो हर कुछ वर्षों में मिट्टी की जांच कराएं ताकि नाइट्रोजन और जैविक तत्वों की स्थिति पर निगरानी रखी जा सके. ऐसे में मूंग की खेती केवल एक फसल नहीं, बल्कि मिट्टी को जीवित और इसकी उर्वरता बनाए रखने का एक बड़ा जरिया हो सकती है.
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