कृषि वानिकी में किसान अपने खेत पर जंगल उगाते हुए गेहूं और धान सहित अन्य उपज ले सकते हैं. इसके लिए खास तरीके से Farm Designing करके जलाऊ एवं इमारती उपयोग वाले Forest Trees की खेती के लिए उपयुक्त बनाया जाता है. इसके तहत बुंदेलखंड जैसे इलाकों में कृषि वानिकी को किसानों की आय बढ़ाने वाले कारगर माध्यम के तौर पर बढ़ावा देने की शुरुआत हो चुकी है. इसके लिए झांसी स्थित रानी लक्ष्मीबाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय की ओर से शुरू की गई परियोजना के शुरूआती दौर में कारगर परिणाम मिलने के बाद अब किसानों को एग्रोफोरेस्ट्री के गुर सिखाए जा रहे हैं. इसके तहत झांसी जिले के दर्जन भर किसानों ने कृषि वानिकी को Farming Practice के रूप में स्वीकार कर लिया है.
विश्वविद्यालय की ओर से बताया गया कि Vice Chancellor डॉ. अशोक कुमार सिंह और निदेशक, प्रसार शिक्षा डॉ. एसएस सिंह की पहल पर किसानों को कृषि वानिकी से जोड़ने का सफल प्रयोग किया गया. विश्वविद्यालय में इसके बेहतर परिणाम मिलने के बाद खेत पर जंगल लगाकर खेती करने की इस विधा को किसानों तक पहुंचाने का सिलसिला शुरू किया गया है.
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वैज्ञानिकों का दावा है कि इससे भूमि सुधार का मकसद पूरा होने के साथ पर्यावरण के लिए भी खेती का यह तरीका कारगर है. इसके तहत Climate Change की चुनौतियों से भी निपटने में किसानों को मदद मिलती है. इस परियोजना से जुड़े Agroforestry Department के वैज्ञानिक डॉ. प्रभात तिवारी ने रोनिजा गांव के 12 किसानों को प्रथम चरण में कृषि वानिकी के लिए चयनित किया है. इनके खेतों पर Industrial Importance के लिहाज से महत्त्वपूर्ण माने गए पेड़ मीलिया और कदम्ब को लगाया गया है. डॉ. तिवारी ने बताया कि ये पेड़ महज 3 से 6 साल में पूरी तरह से तैयार हो जाते हैं.
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उन्होंने कहा कि इनकी लकड़ी से Plywood Industry के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराया जा सकेगा. इससे किसानों की आमदनी में अगले 5 साल में इजाफा होना तय है. खेत में निश्चित दूरी पर लगाए गए इन पेड़ों के साथ किसान अंतर फसल के रूप में चना, गेहूं और मटर जैसी अन्य पारंपरिक फसलें भी ले सकते हैं.
उन्होंने बताया कि विश्वविद्यालय की ओर से किसानों के खेत पर ये पेड़ लगाने के लिए गड्ढे बनवाने हेतु यंत्र और पौधे भी उपलब्ध कराए गए हैं. इतना ही नहीं, वैज्ञानिक विधि द्वारा इन वृक्षों को कृषि वानिकी पद्धति से लगाने के पहले Soil Testing की जांच भी वैज्ञानिकों द्वारा की गई है.
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