सुबह से सोशल मीडिया व्याकुल है. फैसला उसके मुताबिक नहीं है. ‘ऐसी उम्मीद नहीं थी’.. ‘कांग्रेस को मर ही जाना चाहिए’... ‘अब तो अमेठी हारना तय है’... ‘यह संदेश गया कि डर गए.’ ये कुछ टिप्पणियां हैं, जो सोशल मीडिया पर वो लोग कर रहे हैं, जो लगातार विपक्ष का समर्थन करते रहे हैं. टिप्पणी यह भी है कि जो कह रहा था- डरो मत, भागो मत.. वही डरकर भाग गया.
विपक्ष तो ऐसे फैसले के इंतजार में था. प्रधानमंत्री ने भी तंज कस ही दिया कि डरो मत, भागो मत. कांग्रेस को सुबह से जितनी सलाह मिली हैं, ऐसा लगता है कि सारी दुनिया सिर्फ इसी पार्टी का भला चाहती है. पहले ही पूरा चुनाव कांग्रेस के मैनिफेस्टो के इर्द-गिर्द लड़ा जा रहा था. सारे भाषणों में ऐसी पार्टी के मैनिफेस्टो को सबसे ज्यादा समय मिल रहा है, जिसे विपक्ष 40 से भी कम सीटों पर सिमटने वाला बता रहा है. ऐसे में अमेठी का मुद्दा और आ गया है.
क्या वाकई राहुल गांधी डर गए हैं? या जैसा जयराम रमेश ने कहा- शतरंज की कुछ चालें बाकी हैं, इंतजार कीजिए. क्या यह रणनीतिक फैसला है? या विकल्प न होने की सूरत में ऐसा किया गया है? अगर रायबरेली से ही राहुल गांधी को लड़ना था, तो क्या यह फैसला कुछ दिन पहले नहीं हो सकता था? ऐसा क्या था, जिसकी वजह से नामांकन के आखिरी दिन तक रुकने की जरूरत थी.
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बहुत सारे सवाल हैं. सवाल यह भी है कि दोनों जगह जीत गए तो कौन सी सीट छोड़ेंगे, रायबरेली या वायनाड? और अगर, खुदा न खास्ता रायबरेली हार गए, तो कांग्रेस का क्या होगा? और यह सवाल तो है ही कि खुद डरो मत कहने वाले राहुल अपनी उस सीट को छोड़ने के लिए कैसे तैयार हो गए, जो खुद राहुल के अलावा उनके पिता और मां दोनों को संसद पहुंचा चुकी है. सवाल इतने हैं कि जवाब कम पड़ रहे हैं.
डरो मत वाले सवाल पर अरविंद केजरीवाल याद आते हैं. अभी वो मुश्किल में हैं. जेल में हैं. लेकिन ज्यादा साल नहीं हुए, जब वो डर छोड़कर नई दिल्ली में शीला दीक्षित के सामने उतर गए थे. शायद ही किसी ने सोचा होगा कि केजरीवाल जीत जाएंगे. लेकिन उस जीत ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर का नेता बना दिया था. लड़े वो वाराणसी से भी थे. हारे, लेकिन वोट ठीक-ठाक मिल गए थे. तो लोगों को वो लोग पसंद आते हैं, जिनमें ‘डेयरिंग’ हो. राहुल गांधी ने कम से कम डेयरिंग वाला फैसला नहीं किया. उन्होंने वाकई शतरंज के खिलाड़ी जैसा फैसला किया. उसका कितना पॉजिटिव असर होगा, वो अभी नहीं कह सकते. लेकिन उनका फैसला शॉर्ट टर्म के बजाय लॉन्ग टर्म को ध्यान में रखते हुए लिया गया है.
पहली बात, अगर कांग्रेस को पनपना है, तो हिंदी बेल्ट.. खासतौर पर उत्तर प्रदेश में कहीं न कहीं अपना असर जमाना होगा. सोनिया गांधी चुनाव से दूर हो चुकी हैं. प्रियंका चुनाव लड़ नहीं रहीं. ऐसे में राहुल को यूपी की किसी सीट से चुनाव लड़ने की सख्त जरूरत थी. देश की सबसे पुरानी पार्टी के अस्तित्व की लड़ाई में यूपी बेहद अहम है.
अब सवाल अमेठी पर आता है. भले ही तमाम विश्लेषक बता रहे हों कि इस बार राहुल सिर्फ खड़े हो जाते, तो स्मृति ईरानी पर भारी पड़ते. लेकिन स्मृति ईरानी दिखा चुकी हैं कि उन पर भारी पड़ना आसान नहीं है. संभव है कि अमेठी की जनता उनसे नाराज हो. यह भी संभव है कि राहुल गांधी खड़े होते तो जीत जाते. लेकिन वहां से हार का खतरा किसी भी दिन रायबरेली के मुकाबले ज्यादा है.
क्या कांग्रेस अपने सबसे बड़े नाम के लिए लगातार दूसरी बार अमेठी में हारना बर्दाश्त कर पाती? शायद नहीं. बाहर से देखने में अमेठी के मुकाबले रायबरेली सीट ज्यादा मुफीद दिखाई देती है. यहां टिकट वितरण को लेकर नाराजगी है. यह सीट सोनिया गांधी के नाम से जुड़ी है. अपनी मां की सीट पर राहुल खड़े हो रहे हैं. जीतने का मतलब है कि एक झरोखा खोल दिया, जहां से रोशनी की किरण आ रही है, जो कांग्रेस के लिए बेहद जरूरी है. इसीलिए पहले तो जीत के बेहतर मौके वाली सीट को चुना और संभावना यही है कि दोनों सीटें जीतने पर राहुल वायनाड की जगह रायबरेली को तरजीह दें.
राहुल उस तरह की राजनीति नहीं कर सकते जो केजरीवाल करते थे. उसकी वजह है कि आम आदमी पार्टी के पास खोने के लिए कुछ नहीं था. केजरीवाल तब तक इतना बड़ा नाम नहीं थे. उनकी पार्टी चंद रोज पहले ही बनी थी. हार का मतलब खड़े होने का फिर से मौका था. यहां कांग्रेस के पास ‘डेयरिंग’ दिखाने और हार जाने के बाद मौका नहीं होता. इसीलिए राहुल ने शायद ‘डेयरिंग’ की जगह रणनीति को चुना.
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रणनीति कामयाब भी हो सकती है और नाकाम भी. लेकिन अगर कांग्रेस ने इन्हीं वजहों से फैसला किया है, जो दूर बैठकर समझ आ रहा है, तो लॉन्ग टर्म सोच को दिखाता है. हालांकि यह फैसला थोड़ा जल्दी लिया जा सकता था. इसके लिए नामांकन के आखिरी दिन तक इंतजार की जरूरत न पड़ती तो बेहतर था. लेकिन यह कांग्रेस है, जिनके लिए कोई भी फैसला शायद आसान नहीं होता.
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