
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान पूसा दिल्ली (IARI) द्वारा विकसित बासमती किस्मों के चावल आज वैश्विक स्तर पर भारी डिमांड के कारण आज अलग पहचान बन चुकी है. इस साल फरवरी में आयोजित आईआरआई के दीक्षान्त समारोह में बताया गया कि बासमती धान की किस्मों की खेती खूब की जा रही है. अकेले 95 फीसदी क्षेत्र में आईआरआई द्वारा विकसित बासमती धान पूसा बासमती 1121, पूसा बासमती 1718 और 1509 की खेती किसान करते हैं. बासमती धान से साल 2023-24 के दौरान 40,000 करोड़ रुपये अर्जित किए गए हैं. बासमती धान की कुछ किस्मों में अधिक रोग लगने के कारण ज्यादा कीटनाशक छिड़काव करना पड़ता है. दरअसल, अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के देश ही नहीं, बल्कि दूसरे छोटे मुल्क भी अब सेहत से जुड़े मामलों की वजह से केमिकल अवशेष मुक्त बासमती चावल की मांग करने लगे हैं.
भारतीय किसानों के सामने कीटनाशकों की चुनौती से निपटने की बड़ी समस्या आ गई है. पेस्टिसाइड न डालें तो धान की खेती रोगों से खराब होती है जो मानक के विपरीत हो जाती है और फिर चावल एक्सपोर्ट में दिक्कत होती है. क्योकि किसान बासमती धान में जीवाणु झुलसा रोग के लिए इस रोग को कंट्रोल के लिए स्ट्रेप्टोसाइकलिन और झोका रोग के लिए हेक्साकोनाजोल, प्रोपीकोनाजोल, अथवा ट्राईसाइकलोजोल का इस्तेमाल करते हैं. बासमती आयातक देशों, विशेष रूप से यूरोपीय संघ, द्वारा बासमती चावल में इन रसायनों के उपयोग को लेकर चिंता जताई जा रही है और कुछ मामलों में आयातकों द्वारा बासमती चावल की खेपों को लेने से इनकार किया जा रहा है. हाल के वर्षों के दौरान यूरोपीय संघ ने ट्राइसाइक्लाजोल,नेक ब्लास्ट रोग के नियंत्रण में सबसे अधिक उपयोग की जाने वाली फंगीसाइड के एमआरएल (न्यूनतम सीमा) को घटाकर 0.01 पीपीएम कर दिया है. इसलिए, बासमती चावल के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में बादशाहत बनाए रखने के लिए इन समस्याओं का तत्काल निपटान करना जरूरी है.
रोगो की परेशानी से निपटने के लिए आईआरआई पूसा ने बासमती की तीन नई प्रजातिया विकसित की हैं - पूसा बासमती 1847, पूसा बासमती 1885, और पूसा बासमती 1886 इसमें मुख्य रूप से जीवाणु झुलसा रोग (वैक्टिरियल ब्लाइट ) और झोका रोग (ब्लास्ट ) के प्रति इन किस्मों में रोगरोधी क्षमता का विकसित किया गया है और उपज क्वालिटी भी बेहतर है. इन तीन प्रजातियों को लेकर किसानों में भी काफी उत्सुकता है, क्योकि बासमती धान से मिल रहे लाभ के कारण हर साल बासमती का लगभग 10 फीसदी क्षेत्र बढ़ रहा है.
आईआरआई पूसा के अनुसार इसमें पूसा बासमती 1847, लोकप्रिय बासमती धान को 1509 को सुधार करके बनाई गई थी. इस किस्म में बैक्टीरियल ब्लाइट से लड़ने के लिए ब्रीडीग के माध्यम से दो जीन और ब्लास्ट रोग के लिए लड़ने के 2 जीन डाले गए हैं, जिससे इस किस्म में इन दोनो रोगों से लड़ने की क्षमता होती है. यह जल्दी पकने वाली और अर्ध-बौनी बासमती चावल की किस्म है जो 125 दिनों में तैयार हो जाती है जिसकी औसत उपज 22 से 23 क्विंटल प्रति एकड़ है. जबकि पंजाब के किसानों ने इसकी उपज 31 क्विंटल प्रति एकड़ तक लिया है. इस किस्म को 2021 में व्यावसायिक खेती के लिए जारी किया गया था.
पूसा बासमती 1885 किस्म जो लोकप्रिय बासमती किस्म पूसा बासमती 1121 में सुधार कर बनाई गई है. इस किस्म में भी ब्रीडीग के माध्यम से बैक्टीरियल ब्लाइट और ब्लास्ट रोग से लड़ने की क्षमता विकसित की गई है. इन रोगों से लड़ने के लिए पूसा बासमती 1887 की तरह जीन का प्रत्यारोपण किया गया है. इसमें पूसा बासमती 1121 के समान लंबे पतले और स्वादिष्ट गुणवत्ता वाला चावल है. यह मध्यम अवधि की बासमती चावल 135 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इसकी उपज क्षमता प्रति एकड़ 18.72 क्विंटल है. लेकिन पंजाब के किसानों ने 22 क्विंटल प्रति एकड़ तक पैदावार लिया है.
पूसा बासमती 1886 लोकप्रिय बासमती चावल की किस्म है, पूसा बासमती 6 को सुधार कर बनाया गया है. इसमें बैक्टीरियल ब्लाइट प्रतिरोध के लिए दो जीन हैं और झोका यानि ब्लास्ट रोग के लिए दो जीन, ब्रीडिंग के माध्यम से विकसित किए गए हैं. यह किस्म 145 दिनों में तैयार हो जाती है और औसत उपज 18 क्विंटल प्रति एकड़ है. इसमें अन्य दो की तुलना में अधिक समय 155 दिन लगता है, लेकिन चावल की अच्छी गुणवत्ता की वजह से इसकी भरपाई हो जाती है.
बासमती के इन किस्मों के बीज के लिए किसान बासमती निर्यात विकास फाउंडेशन (BEDF) मेरठ और भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान IARI दिल्ली के बीज केन्द्र से संपर्क कर सकते हैं.
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