स्ट्रॉबेरी की खेती (Strawberry farming) तभी मुनाफा देगी जब स्ट्रॉबेरी के फल को सर्दी और पाले से बचा लिया जाए. अगर फल को इन दोनों खतरों से बचा लें तो मुनाफा लागत से दोगुना अधिक हो सकता है. इसलिए किसान जब भी स्ट्रॉबेरी की खेती करें, इन दो मौसमी मार का जरूर ध्यान रखें. यह भी ध्यान रखें कि इसकी खेती कब करनी है. स्ट्रॉबेरी की खेती उसके रनर या स्टोलन से की जाती है जिसमें इसकी तना की रोपाई होती है. इसकी खेती क्षेत्र के जलवायु के मुताबिक होती है और सामान्य तौर पर सितंबर-अक्टूबर के बीच रोपाई हो जाती है. लेकिन तापमान अधिक हो, तो इसकी रोपाई देर से भी कर सकते हैं. रोपाई दिन में करें जब मौसम ठंडा हो, वर्ना फसल खराब होने का डर रहेगा.
अब आइए जानें कि इसके पौधे को कैसे बचाना है ताकि फल अच्छे आएं और मुनाफा जबर्दस्त हो. दिसंबर से जनवरी में तापमान में अधिक गिरावट आती है. ऐसे मौसम में स्ट्रॉबेरी के पौधे को पाले और सर्दियों से बचाना जरूरी होता है. विशेषज्ञ बताते हैं कि स्ट्रॉबेरी को पाले और सर्दियों से बचाने के लिए लो टनल तकनीक (Low tunnel farming) का इस्तेमाल किया जाना फायदेमंद होता है. टनल या सुरंग का निर्माण खुले खेत में उगाई जाने वाली फसल को सर्दी या पाले के नुकसान से बचाने के लिए किया जाता है.
दरअसल, लो टनल (Low tunnel farming) तकनीक वैसी ही होती है जैसी ग्रीन हाउस टेक्नोलॉजी होती है. ग्रीन हाउस टेक्नोलॉजी के जरिये किसान पौधों के मुताबिक तापमान मेंटेन करते हैं. ठीक उसी तरह लो टनल बनाकर खेत में तापमान को मेंटेन किया जाता है. इस तकनीक के जरिये पौधे के ऊपर 2-3 महीने के लिए अस्थाई प्लास्टिक की चादरें लगाई जाती हैं. बाद में जब सर्दी और पाले का खतरा खत्म हो जाए तो उसे हटा देते हैं. फरवरी के दूसरे या तीसरे हफ्ते में तापमान सही हो जाने पर चादरें हटा लेते हैं. लो टनल का फायदा ये होता है कि स्ट्रॉबेरी (Strawberry farming) के पौधों में जल्द फूल आ जाते हैं और अच्छी फसल मिल जाती है.
स्ट्रॉबेरी के पौधों को कई तरह के कीट नुकसान पहुंचा सकते हैं. इन कीटों में तेला, माइट, कटवर्म और टेपवर्म शामिल हैं. पौधों को इनसे बचाने के लिए डाइमथोएट, डिमैटोन, फॉरेट का प्रयोग किया जाना चाहिए. 1.5 ग्राम प्रति लीटर की दर से वेटेबल सल्फर का छिड़काव करें तो माइट को दूर किया जा सकता है. 5 परसेंट क्लोरैडेन या हेप्टाक्लोर की 50 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से स्ट्रॉबेरी की रोपाई से पहले 2 मिली प्रति लीटर पानी के साथ मिट्टी में डालें तो कटवर्म को नियंत्रित किया जा सकता है.
इसी तरह स्ट्रॉबेरी के फलों पर भूरा फफूंद रोग और पत्तों पर धब्बों वाले रोग और काला जड़ सड़न रोग लगते हैं. भूरे फफूंद रोग को डायाथायोकॉर्बेट पर आधारित फफूंदनाशक रसायन जैसे डाइथेन एम-45 का स्प्रे करके नियंत्रित किया जा सकता है. ध्यान रखें कि स्ट्रॉबेरी का फल लग जाने के बाद किसी भी फफूंद और कीटनाशक केमिकल का प्रयोग नहीं करना चाहिए. इससे फलों के विषाक्त होने या खराब होने का डर होता है.
अब आइए जानते हैं कि इस तरीके से स्ट्रॉबेरी की खेती (Strawberry farming) करें तो किसान को कितना मुनाफा हो सकता है. उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में वैज्ञानिक तकनीक और अच्छा फसल प्रबंधन करने से स्ट्रॉबेरी के एक पौधे से 500 से 700 ग्राम तक फल प्राप्त किया जा सकता है. एक हेक्टेयर खेत में आराम से 20 से 25 टन स्ट्रॉबेरी फलों का उत्पादन लिया जा सकता है. दिल्ली, मुंबई जैसे मेट्रो शहरों में प्रति किलो स्ट्रॉबेरी की कीमत 100 रुपये से 300 रुपये किलो तक होती है. चूंकि उत्तर भारत में जितनी इसकी मांग होती है, उतनी उपलब्धता नहीं होती, इसलिए स्ट्रॉबेरी के दाम हमेशा बढ़े ही रहते हैं. उत्तर भारत में हमेशा स्ट्रॉबेरी के महंगे दाम पर बिकने की संभावना होती है. अगर देखा जाए तो किसानों को लागत से दोगुना से भी अधिक मुनाफा स्ट्रॉबेरी की खेती में होती है.
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