भूसे और पराली से मशरूम की खेती ने बदली तस्वीर, लाखों की कमाई का बना जरिया

भूसे और पराली से मशरूम की खेती ने बदली तस्वीर, लाखों की कमाई का बना जरिया

धान के भूसे और पराली से मशरूम की खेती ने ओडिशा के गांवों की तस्वीर बदल दी है. कम लागत, ज्यादा मुनाफा और पर्यावरण सुरक्षा का बना अनोखा मॉडल.

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भूसे और पराली से मशरूम की खेती ने बदली तस्वीर, लाखों की कमाई का बना जरियामशरूम ने बदल दी महिलाओं की किस्मत

ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले के फुलधुडी गांव में मशरूम की खेती ने ग्रामीणों की जिंदगी बदल दी है. लंबे समय तक बंजर पड़ी जमीन अब लाखों की कमाई का जरिया बन गई है. यहां के किसान धान के भूसे और पराली का इस्तेमाल कर मशरूम उगाते हैं और बचा हुआ कचरा वर्मीकम्पोस्ट बनाने में लगाते हैं. इससे उनकी आय बढ़ी है और पर्यावरण को भी फायदा हुआ है.

मशरूम की खेती बनी नई उम्मीद

फुलधुडी गांव में खेती पूरी तरह बारिश पर निर्भर थी, जिससे किसानों की आमदनी कम थी और पलायन आम बात थी. पूर्व वन अधिकारी अरुण मिश्रा ने स्थानीय लोगों को मशरूम की खेती के लिए प्रेरित किया. उन्होंने गैर-लाभकारी संगठन ‘सेवक’ के साथ मिलकर किसानों को प्रशिक्षण दिया और धान के भूसे को कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल करने के लिए जागरूक किया.

पराली और भूसे का सदुपयोग

धान कटने के बाद बची पराली को अक्सर जलाया जाता था, जिससे प्रदूषण फैलता था. पराली जलाने से न केवल वायु प्रदूषण होता है, बल्कि यह मिट्टी की उर्वरता को भी नुकसान पहुंचाता है. सुंदरगढ़ के किसानों ने अब इस परंपरा को छोड़कर पराली को मशरूम की खेती और वर्मीकम्पोस्ट के लिए इस्तेमाल करना शुरू किया है. इससे पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक लाभ भी मिल रहा है.

कम लागत में अधिक आय

मशरूम उगाने के लिए ज्यादा पैसे खर्च नहीं करने पड़ते. धान के भूसे पर 25 दिनों में मशरूम तैयार हो जाते हैं, जो बाजार में 400 रुपये प्रति किलोग्राम बिकते हैं. फुलधुडी गांव में 18 मशरूम खेती यूनिट्स हैं, जहां से किसानों की सालाना आय में भारी इजाफा हुआ है. मशरूम की खेती से किसान सालभर काम करते हैं और नियमित आमदनी होती है.

बचे हुए कचरे से बनाया वर्मीकम्पोस्ट

मशरूम की खेती के बाद बचा भूसा किसान वर्मीकम्पोस्ट बनाने में लगाते हैं. वर्मीकम्पोस्ट मिट्टी की उर्वरता बढ़ाता है और रासायनिक खादों की जरूरत कम करता है. इससे किसानों को खेतों की पैदावार बढ़ाने और अतिरिक्त आय का मौका मिलता है. 15 गांवों में हजारों परिवारों ने इस तकनीक को अपनाकर पर्यावरण की रक्षा और आय के नए स्रोत खोले हैं.

पलायन में कमी और जीवनस्तर में सुधार

पहले किसानों को सिंचाई की कमी और मौसम पर निर्भरता के कारण काम नहीं मिलता था, जिससे पलायन होना आम था. अब मशरूम खेती और वर्मीकम्पोस्टिंग से ग्रामीणों को घर बैठे रोजगार मिल रहा है. इससे परिवार साथ रहते हैं और आर्थिक स्थिति मजबूत होती है. कई परिवार अब गांव छोड़कर शहर नहीं जाते.

पर्यावरण संरक्षण और जंगल की सुरक्षा

पराली जलाने से जंगलों में आग लगने की घटनाएं भी बढ़ जाती थीं. अब कृषि अवशेषों का सही उपयोग होने से जंगलों की आग की घटनाएं कम हो रही हैं. हवा की गुणवत्ता में सुधार और मिट्टी की सेहत बनी रहती है. वन विभाग और ग्रामीण मिलकर खेती और पर्यावरण दोनों को सुरक्षित बना रहे हैं.

ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले में धान के भूसे और पराली का सही इस्तेमाल कर मशरूम की खेती ने ग्रामीणों की जिंदगी बदल दी है. यह खेती पर्यावरण के लिए भी फायदेमंद है और किसानों की आमदनी के नए रास्ते खोल रही है. कम लागत में ज्यादा आय, पर्यावरण संरक्षण, और पलायन में कमी जैसी कई समस्याओं का यह समाधान एक प्रेरणा बन चुका है. ऐसे मॉडल से पूरे देश के ग्रामीण इलाकों को फायदा हो सकता है.

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