
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन यानी एफएओ ने बुधवार 7 दिसंबर को इटली की राजधानी रोम में आयोजित एक कार्यक्रम के जरिए 'अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष-2023' (International Year of Millets) की शुरुआत कर दी है. इसमें भेजे गए अपने संदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि "भारत मोटे अनाजों की खेती और सेवन दोनों को बढ़ावा देगा." निश्चित तौर पर अगले साल भर तक मोटे अनाजों को लेकर चलने वाले कार्यक्रमों के जरिए पूरी दुनिया में इसे लेकर धारणा बदलेगी. इसकी खरीद बढ़ेगी जिससे किसानों को फायदा होगा. लेकिन, इस सेलिब्रेशन में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकारों और जनता दोनों ने मोटे अनाजों की बहुत उपेक्षा की है.
मिलेट्स की खेती कम पानी और नाम मात्र की खाद में होती है, इसलिए पर्यावरण के लिए भी इसे बहुत अच्छा माना जाता है. इसके बावजूद तमाम सूबों में सिर्फ धान, गेहूं को बढ़ावा दिया जाता रहा. मोटे अनाजों की एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) तो घोषित हुई लेकिन, उसकी खरीद नहीं हुई. जिससे धीरे-धीरे इन अनाजों और उन्हें उगाने वालों दोनों की हैसियत कम हो गई. कर्नाटक, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की तारीफ करनी होगी, जहां पर हमेशा इन अनाजों की एमएसपी पर खरीद हुई. लेकिन, राजस्थान, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे सूबों की सरकारों ने इसे लेकर कभी कुछ सोचा ही नहीं. उन्होंने किसानों को निराश किया.
हालांकि, अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहल की है. जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिलेट्स की चर्चा हो रही है, तब जाकर इन सूबों की सरकारों की आंख खुली है. उम्मीद कि इन राज्यों के अधिकारी मोटे अनाजों को लेकर रस्म अदायगी से आगे बढ़कर इसकी खेती और खरीद को बढ़ावा देंगे.
जिन फसलों की एमएसपी पर ज्यादा खरीद होती है और मार्केट में डिमांड होती है, किसान उन्हीं की खेती करते हैं. केंद्र सरकार एमएसपी घोषित कर रही थी, लेकिन ज्यादातर राज्य सरकारें इन अनाजों को तवज्जो नहीं देती थीं. जनता ने भी मोटे अनाजों को नजरंदाज किया.
इन दोनों वजहों से किसानों ने मिलेट्स की खेती कम कर दी. हालांकि, कुछ समय से सेहत को लेकर बढ़ती चिंता ने लोगों का ध्यान इस ओर खींचा है. डॉक्टर लोगों को मोटा अनाज खाने की सलाह देने लगे हैं. ऐसे में कुछ लोगों की थाली में मोटे अनाजों से बनी चीजें सजने लगी हैं.
ये अनाज कम पानी और कम उपजाऊ भूमि में भी उग जाते हैं. साथ ही मोटे अनाजों में फाइबर एवं अन्य पोषक तत्वों की मात्रा अधिक होती है. इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार कहा था कि ‘मोटे अनाज की डिमांड पहले ही दुनिया में बहुत अधिक थी, अब कोरोनाके बाद यह इम्यूनिटी बूस्टर के रूप में बहुत प्रसिद्ध हो चुका है.’ मोटे अनाज के तौर पर ज्वार, बाजरा, रागी (मडुआ), जौ, कोदो, सावां, कुटकी आदि शामिल किए जाते हैं. ये सब पौष्टिकता से भरपूर होते हैं. ये सब अत्यधिक पोषक, अम्ल-रहित, ग्लूटेन मुक्त और आहार गुणों से युक्त होते हैं. सरकार को उम्मीद है कि इंटरनेशनल मिलेट ईयर के बहाने जब दुनिया इन गुणों को जानेगी तब भारतीय किसानों को इसका फायदा होगा.
एफएओ में काम कर चुके जानेमाने कृषि वैज्ञानिक प्रो. रामचेत चौधरी कहते हैं “हरित क्रांति के बाद आई खाद्य संपन्नता ने भारतीयों के खानपान से मोटे अनाजों को दूर किया. जनता को गेहूं और चावल में ज्यादा स्वाद मिला. इसकी वजह से सेहत के लिए पौष्टिक मोटे अनाजों लोगों की थाली से दूर होते चले गए. पहले कोदो, ज्वार, बाजरा जैसे मोटे अनाज खूब होते थे और लोग खाते थे. लेकिन, जब गेहूं और चावल अधिक पैदा होने लगा तब इसके खिलाफ एक माइंडसेट पैदा हुआ, जिसने इसे गरीबों का खाद्यान्न कहकर उपेक्षित किया.”
ज्वार, बाजरा, मक्का और रागी...जिन्हें मोटे तौर पर मोटा अनाज माना जाता है, उसे एमएसपी पर खरीदने वाली सूची में बिहार कहीं नहीं दिखता. जबकि, यहां देश का करीब 9 फीसदी मक्का पैदा होता है. बिहार किसान मंच के अध्यक्ष धीरेंद्र सिंह टुडू कहते हैं कि बिहार प्रमुख मक्का उत्पादक राज्यों में शामिल है, फिर भी यहां के मक्का उत्पादक किसानों को उचित दाम नहीं मिलता. क्योंकि, सरकार इसे एमएसपी पर नहीं खरीदती. किसानों को व्यापारियों के भरोसे छोड़ दिया जाता है. इसलिए किसान अक्सर तय न्यूनतम समर्थन मूल्य से 500-800 रुपये प्रति क्विंटल तक कम दाम पर अपनी फसल बेचने को मजबूर होते हैं. केंद्र सरकार बस यह कह देती है कि राज्य सरकार ने इसके लिए कोई प्रस्ताव ही नहीं दिया.
प्रमुख बाजरा उत्पादक सूबों में हरियाणा का भी नाम आता है. लेकिन, यहां भी किसान एमएसपी से कम दाम पर ही इसे बेचने को मजबूर होते हैं. इसे एक उदाहरण से समझते हैं. साल 2021-22 के लिए बाजरा का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2250 रुपये प्रति क्विंटल घोषित किया गया था. लेकिन किसानों को 1100 से 1300 के बीच में ही रेट मिल रहा था. राज्य सरकार ने कहा कि भावांतर भरपाई योजना के जरिए बाजरे के औसत बाजार भाव और एमएसपी के अंतर को पाटा जाएगा. मेरी फसल मेरा ब्यौरा पोर्टल पर रजिस्टर्ड किसानों को 600 रुपये प्रति क्विंटल की दर से सरकार पैसा देगी. अब सोचिए, अगर किसी किसान ने 1200 रुपये के रेट पर मक्का बेचा है और आप उसे 600 और भी देते हैं तो भी उसे एमएसपी जितना पैसा नहीं मिल पाएगा.
राजस्थान में देश का करीब 44 परसेंट बाजरा पैदा होता है. लेकिन, यहां भी किसानों को उचित दाम नहीं मिलता. किसान महापंचायत के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामपाल जाट का कहना है कि राजस्थान के किसानों को पिछले दो दशक से बाजरे की एमएसपी नहीं मिली है. इसलिए किसान ओपन मार्केट में एमएसपी के मुकाबले प्रति क्विंटल 200 से 900 रुपये कम दाम पर बाजरा बेचने के लिए मजबूर हैं.
जाट कहते हैं कि इस फसल को राजस्थान के किसान छोड़ भी नहीं सकते. क्योंकि यहां जमीन और जलवायु बाजरा के अनुकूल है. जो बाजारा पैदा होता है वो समुद्र में तो फेंका जाता नहीं. व्यापारियों के जरिए उसे खरीदकर उसका कहीं न कहीं इस्तेमाल किया जाता है. इसलिए केंद्र और राज्य सरकार आपस में उलझने वाली नीतियों को बंद करके इसकी खरीद करें. ताकि किसानों को अच्छा दाम मिले. किसानों को मोटे अनाजों का दाम नहीं मिलेगा तो इंटरनेशनल मिलेट ईयर की क्या सार्थकता रह जाएगी?
जाट कहते हैं कि 1967 के बाद से ही केंद्र सरकार की नीति गेहूं और धान को बढ़ावा देने वाली रही है. इसलिए मोटे अनाज और उनके उत्पादक किसान दोनों बहुत पीछे चले गए थे. अब भारत की पहल पर पूरी दुनिया में मोटे अनाजों की पौष्टिकता को लेकर चर्चा हो रही है. ऐसे में सरकारों को मिलकर ऐसी नीति बनानी चाहिए ताकि एमएसपी पर उसकी खरीद हो. उसकी एमएसपी की घोषणा सिर्फ कागजी न रह जाए.
हालांकि, केंद्र सरकार ने ठीक एक साल पहले 09 दिसंबर 2021 को मोटे अनाजों की खरीद,आवंटन, वितरण और बिक्री के लिए अपने 2014 के दिशा-निर्देशों में संशोधन किया था. जिसके तहत ज्वार और रागी की वितरण अवधि पहले की 3 महीने की से बढ़ाकर 6 और 7 महीने कर दी गई थी. इससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से मोटे अनाजों की खरीद और खपत में पहले के मुकाबले कुछ इजाफा हुआ है. हालांकि, सेहत को अच्छा रखने वाले इन मोटे अनाजों को अभी और लंबा सफर तय करना है. इसे हर थाली तक पहुंचाना है.
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