जम्मू-कश्मीर में 'दरबार प्रथा' बनी चुनावी मुद्दा, जानें इस 150 साल पुरानी परंपरा के बारे में सबकुछ

जम्मू-कश्मीर में 'दरबार प्रथा' बनी चुनावी मुद्दा, जानें इस 150 साल पुरानी परंपरा के बारे में सबकुछ

'दरबार मूव' की ये प्रथा 1872 में शुरू की गई थी. तब जम्मू-कश्मीर पर डोगरा शासक महाराजा रणबीर सिंह का शासन था. आम मान्यता ये है कि मौसम की वजह से दरबार को जम्मू से श्रीनगर और श्रीनगर से जम्मू ले जाने का फैसला लिया गया था. हालांकि, ऐसा भी माना जाता है कि सिर्फ मौसम ही नहीं, बल्कि इसके पीछे राजनैतिक कारण भी था.

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जम्मू-कश्मीर में 'दरबार प्रथा' बनी चुनावी मुद्दा, जानें इस 150 साल पुरानी परंपरा के बारे में सबकुछ जम्‍मू कश्‍मीर में दरबार प्रथा बनी चुनावी मसला

जम्मू-कश्मीर में 10 साल बाद विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. जम्मू-कश्मीर की 90 विधानसभा सीटों पर तीन चरणों में वोट डाले जाएंगे. इस चुनाव में सभी पार्टियां कई वादे कर रहीं हैं. नेशनल कॉन्फ्रेंस जैसी पार्टियां अनुच्छेद 370 की बहाली का वादा कर रही हैं. इन्हीं एक वादों में से एक 'दरबार मूव' प्रथा की बहाली का भी है. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अपने घोषणापत्र में दरबार मूव को बहाल करने का वादा किया है. वहीं, अल्ताफ बुखारी की अपनी पार्टी के घोषणापत्र में भी इस प्रथा को फिर से शुरू करने का जिक्र किया गया है. जम्मू-कश्मीर में 'दरबार मूव' की प्रथा 150 साल से भी ज्यादा पुरानी है. जुलाई 2021 में इसे खत्म कर दिया गया था. इसी प्रथा के कारण सर्दी और गर्मी में जम्मू-कश्मीर की राजधानी बदल जाती थी.

क्या थी 'दरबार मूव' प्रथा?

जम्मू-कश्मीर में ये सदियों प्रथा थी. इसके तहत, हर छह महीने में जम्मू-कश्मीर की राजधानी बदल जाती थी. सर्दियों में राजधानी जम्मू होती थी, जबकि गर्मियों के मौसम में राजधानी श्रीनगर हुआ करती थी.

राजधानी बदलने पर सभी जरूरी सरकारी दफ्तर और सचिवालय को जम्मू से श्रीनगर और श्रीनगर से जम्मू ले जाया करता था. जब सर्दी आती थी तब अक्टूबर के आखिरी हफ्ते में राजधानी को श्रीनगर से जम्मू शिफ्ट किया जाता था. गर्मी आने पर अप्रैल के आखिरी हफ्ते में राजधानी को जम्मू से श्रीनगर ले जाया जाता था. यानी, मई से अक्टूबर तक श्रीनगर और नवंबर से अप्रैल तक जम्मू राजधानी हुआ करती थी.

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राजधानी बदलने की इसी प्रथा को 'दरबार मूव' कहा जाता था. राजधानी शिफ्ट करने के दौरान ट्रकों में फाइलों और सामानों को भर-भरकर जम्मू से श्रीनगर और श्रीनगर से जम्मू लाया जाता था. इस दौरान 300 किलोमीटर लंबे श्रीनगर-जम्मू हाइवे से सफर तय करना पड़ता था.

कब शुरू हुई थी ये प्रथा?

'दरबार मूव' की ये प्रथा 1872 में शुरू की गई थी. तब जम्मू-कश्मीर पर डोगरा शासक महाराजा रणबीर सिंह का शासन था. आम मान्यता ये है कि मौसम की वजह से दरबार को जम्मू से श्रीनगर और श्रीनगर से जम्मू ले जाने का फैसला लिया गया था.

हालांकि, ऐसा भी माना जाता है कि सिर्फ मौसम ही नहीं, बल्कि इसके पीछे राजनैतिक कारण भी था. असल में 1870 के दशक में रूसी सेना ने मध्य एशिया की तरफ रुख किया. रूस की सेना अफगानिस्तान तक भी पहुंच गई थी. रूसी सेना की नजरें कश्मीर घाटी पर थीं. इसी डर से अंग्रेजों ने दरबार मूव किया. तब से ही ये प्रथा शुरू हो गई. 

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दस्तावेजों के मुताबिक, 1873 में अंग्रेजों और रूसियों के बीच एक समझौता हुआ था. इसके बाद 1889 में अंग्रेजों ने कश्मीर को सीमावर्ती राज्य बनाया. अगले 35 साल तक जम्मू-कश्मीर के महाराजा प्रताप सिंह सिर्फ नाम के राजा थे. सारे फैसले अंग्रेज ही लेते थे. 1924 में जब अंग्रेजों के मन से रूसियों का डर गया, तब जाकर महाराजा को उनकी ताकत दी गई. हालांकि, अगले ही साल 1925 में महाराजा प्रताप सिंह की मौत हो गई. उनके बाद महाराजा हरि सिंह ने जम्मू-कश्मीर की रियासत संभाली.

आजादी के बाद भी रही जारी 

आजादी के बाद भी ये प्रथा जारी रही. 1957 में बख्शी गुलाम मोहम्मद ने भी श्रीनगर को स्थायी राजधानी बनाने का फैसला लिया, लेकिन इसका पुरजोर विरोध हुआ. फिर, 1987 में जब फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने इस प्रथा को थोड़ा सीमित करने की कोशिश की. उन्होंने फैसला लिया कि कुछ विभाग हमेशा जम्मू में रहेंगे तो कुछ कश्मीर में. हालांकि, इसका काफी विरोध हुआ. इसके विरोध में जम्मू में 45 दिन तक बंद रहा. इसके बाद सरकार को झुकना पड़ा.

क्यों खत्म की गई ये प्रथा?

मई 2020 में जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट ने दरबार प्रथा को समय की बर्बादी बताया था. सरकार को स्थायी समाधान करने को कहा था. जून 2021 में सरकार ने इस प्रथा को पूरी तरह से बंद कर दिया. अब जम्मू-कश्मीर की स्थायी राजधानी श्रीनगर ही बन गई है. सारे सरकारी दफ्तर और सचिवालय श्रीनगर में ही है.

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इसे खत्म करने की एक वजह आर्थिक भी थी. साल में दो बार राजधानी बदलने पर करोड़ों रुपये खर्च होते थे. जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने कहा था कि दरबार प्रथा खत्म होने से हर साल 200 करोड़ रुपये की बचत होगी. एक आरटीआई में सामने आया था कि 2011 से 2020 के बीच राजधानियां बदलने में 15,800 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च हुए थे. हर साल जम्मू-कश्मीर सरकार के 10 हजार से ज्यादा कर्मचारियों को जम्मू और श्रीनगर में शिफ्ट होना पड़ता था.

फिर क्यों बना ये चुनावी मुद्दा?

दरबार प्रथा के समर्थकों का कहना है कि इससे जम्मू और श्रीनगर में जुड़ाव बना रहता था. दोनों ही जगह विकास होता रहता था. पिछले हफ्ते पूर्व सीएम और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने कहा था कि अगर वो सरकार में आते हैं तो दरबार प्रथा को फिर से लागू कर देंगे. पार्टी के घोषणापत्र में भी इसका वादा किया गया है.

उनका कहना था कि दरबार प्रथा को खत्म कर असल में जम्मू की अर्थव्यवस्था को पंगु बना दिया गया है. जम्मू की अर्थव्यवस्था काफी हद तक कश्मीर से आने वाले सरकारी कर्मचारियों पर निर्भर थी. वो यहां आकर किराये पर घर लेते थे. काफी पैसा खर्च करते थे. छह महीने के लिए यहां की अर्थव्यवस्था बूम पर रहती थी.

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उमर अब्दुल्ला ने दावा किया था कि जम्मू में अब पर्यटक भी नहीं आते. उन्होंने कहा था कि पर्यटक एयरपोर्ट पर उतरते हैं. कार से कटरा जाते हैं और वैष्णो देवी के दर्शन कर वापस चले जाते हैं. यही वजह है कि जम्मू में वोट बंटोरने के लिए दरबार प्रथा को फिर से शुरू करने का वादा किया जा रहा है. विपक्षी पार्टियां दावा कर रही हैं कि इस प्रथा के खत्म होने से जम्मू को बड़ा नुकसान हो रहा है. 

जम्मू-कश्मीर की 90 विधानसभा सीटों के लिए तीन चरणों में वोट डाले जाएंगे. पहले चरण में 24 सीटों पर 18 सितंबर, दूसरे चरण में 26 सीटों पर 25 सितंबर और तीसरे चरण में 40 सीटों पर 1 अक्टूबर को वोटिंग होगी. चुनाव के नतीजे 8 अक्टूबर को घोषित किए जाएंगे. 

 

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