चिलचिलाती धूप और लू की वजह से सिर्फ इंसान ही नहीं, बल्कि मवेशी भी परेशान हो गए हैं. तमिलनाडु के कई जिलों में भीषण गर्मी की वजह से दुधारू मवेशी तनाव में आ गए हैं. इससे भैंस और क्रॉस-ब्रीड दुधारू गायों के दूध उत्पादन पर असर पड़ा है. कहा जा रहा है कि पिछले 10 दिनों में तमिलनाडु में एविन द्वारा प्रतिदिन खरीदे जाने वाले दूध की मात्रा में पांच लाख लीटर की गिरावट आई है. औसत खरीद, जो मार्च में प्रति दिन 30 लाख से 31 लाख लीटर के बीच थी, 1 अप्रैल से गिरकर 25 लाख लीटर हो गई है.
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, एविन का कहना है कि दूध की खरीद में गिरावट पिछले साल की समान अवधि की तुलना में केवल एक लाख लीटर ज्यादा है. पिछले साल अप्रैल महीने में दूध उत्पादन गिरकर लगभग 26 लाख लीटर प्रति दिन पर पहुंच गया था. वहीं, एविन का कहना है कि आने वाले दिनों में स्थिति और खराब हो सकती है. ऐसे में उद्योग सूत्रों का कहना है कि क्रीम और दूध की मिठाइयों के बिजनेस पर भी असर पड़ेगा.
एविन के प्रबंध निदेशक एस विनीत ने टीएनआईई को बताया कि गर्मी की लहर के कारण मवेशियों की दूध देने की क्षमता कम हो गई है. धर्मपुरी और तिरुचि जिले में तापमान 2 से 3 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया, जिसके परिणामस्वरूप दूध की खरीद में मामूली गिरावट आई. उन्होंने कहा कि लेकिन हमारे कार्ड धारकों और खुदरा उपभोक्ताओं को दूध की आपूर्ति प्रभावित नहीं हुई है. विनीत ने आगे कहा कि हमने गिरावट की भरपाई के लिए पहले ही तैयारी कर ली है. हमारे पास दूध पाउडर का पर्याप्त भंडार है. आविन दूध में वसा की मात्रा बढ़ाने के लिए घी भी खरीदेगा.
एविन और निजी डेयरियों सहित उद्योग के खिलाड़ी, दूध उत्पादन के लिए जर्सी और होल्स्टीन फ़्रीज़ियन गायों के साथ-साथ भैंसों जैसी विदेशी नस्लों पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं. इसके अलावा, दूध जर्सी और एचएफ प्रकार की संकर नस्लों से प्राप्त किया जाता है. देशी नस्लों द्वारा उत्पादित दूध का ज्यादातर उपभोग पशुपालक करते हैं और इसकी कम वसा सामग्री के कारण इसे व्यावसायिक आपूर्ति के लिए उपयोग नहीं किया जाता है.
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तमिलनाडु मिल्क प्रोड्यूसर्स वेलफेयर एसोसिएशन के एम जी राजेंद्रन ने कहा कि राज्य भर में निजी डेयरियों से दूध उत्पादन में भी मामूली गिरावट आई है. तीन दशक पहले, डेयरी किसानों को आविन और पशुपालन विभाग दोनों से पूरे साल पशु चिकित्सा सहायता मिलती थी, लेकिन अब इन पदों (पशुचिकित्सकों) को आउटसोर्स कर दिया गया है. पशुपालन क्लीनिकों में पर्याप्त संख्या में पशुचिकित्सक नहीं हैं, जिससे किसानों को पशुओं के इलाज के लिए अतिरिक्त खर्च करना पड़ता है.
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