यूपी और हरियाणा के बाईपास, हाइवे और गांवों की सड़कों पर एक बार फिर लाल पगड़ी बांधे चरवाहे नजर आने लगे हैं. साथ में हजारों की संख्या में भेड़-बकरी और गायों के झुंड भी हैं. पशुओं के ऐसे झुंड को रेवड़ कहा जाता है. इन्हें दूध की चलती-फिरती डेयरी भी कहा जाता है. चरवाहे चारे-पानी की कमी के चलते अपने पशुओं को लेकर छह से आठ महीने के लिए दूसरे राज्यों और शहरों में निकल जाते हैं. इस दौरान सड़क और खेत ही इनका ठिकाना होता है और यही से पशुओं का कारोबार चलता है.
समाज में कोई शादी-ब्याह होने या फिर और किसी काम के चलते बीच-बीच में घर का चक्कर लग जाए तो अलग बात है. ये चरवाहे देवासी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. चरवाहों का ये समुदाय कोई दो-चार हजार लोगों का नहीं, लाखों की संख्या वाला है. इनका अपना एक पूरा देवासी समाज है. इनका कारोबार पशुपालन है. ये समुदाय मुख्य तौर पर राजस्थान में मिलता है.
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पाली, राजस्थान के रहने वाले चरवाहे बाघाराम ने किसान तक से बातचीत में बताया कि मार्च में हम अपने घर से निकल आते हैं. क्योंकि मार्च से हमारे गांवों में हरे चारे और पानी की कमी होना शुरू हो जाती है. भेड़-बकरी और गायों को चारा और पानी लगातार मिलते रहे इसलिए हरियाणा, यूपी के शहरों में दाखिल हो जाते हैं. क्योंकि इन्हीं पशुओं से हमारा भी पेट भरता है तो इसलिए हमे अपने घर और गांवों को छोड़ना पड़ता है.
महेन्द्रगढ़ बार्डर के रास्ते हरियाणा में दाखिल हो जाते हैं. फिर रेवाड़ी और मानेसर, गुड़गांव, होते हुए करनाल की तरफ निकल जाते हैं. वहीं धौलपुर और भरतपुर से होते हुए आगरा-मथुरा के रास्ते यूपी में आ जाते हैं. इस तरह घूमते-फिरते सितम्बर-अक्टूबर आ जाता है. इस दौरान हम वापस अपने घरों की ओर निकल जाते हैं.
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150 से 200 गाय और भेड़-बकरी के एक झुंड को रेवड़ कहा जाता है. चरवाहे हरीश ने बताया कि दो लोग मिलकर एक रेवड़ को संभालते हैं. किसी भी एक शहर में 10 से 12 रेवड़ होते हैं. हर एक शहर में ऐसे ही रहते हैं. सभी एक जगह जमा नहीं होते हैं. वर्ना तो पशुओं को चारे की कमी हो जाएगी. सड़क पर चलते वक्त गायों को सभालना मुश्किल काम होता है. क्योंकि सड़क पर चलने वाले वाहनों को कोई परेशानी न हो इसका ख्याल रखना पड़ता है. एक गांव में हम दो से तीन दिन तक रुकते हैं. हालांकि ये इस बात पर भी निर्भर करता है कि वहां हरा चारा कितना है. इसी हिसाब से हम धीरे-धीरे आगे की ओर बढ़ते रहते हैं.
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