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ऊंट की सजावट में एंटीक आइटम का होता है इस्तेमाल, यहां जानें उनके नाम और खासियत

ऊंट की सजावट में एंटीक आइटम का होता है इस्तेमाल, यहां जानें उनके नाम और खासियत

अगर आप राजस्थानी लोकगीतों को सुनना पसंद करते हैं. तो आपने जरूर म्हारो गोरबंद नखराळो... गीत भी सुना होगा. सुनने में काफी मधुर इस गीत में एक शब्द है गोरबंद. जिसका अर्थ होता है गले में पहनने की माला. लेकिन क्या आप जानते हैं कि गोरबंद शब्द कहां से आया है?

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बीकानेर के गांव ग्रांधी में ऊंट पालक गैनाराम अपने टोडरियों के साथ. फोटो- माधव शर्मा बीकानेर के गांव ग्रांधी में ऊंट पालक गैनाराम अपने टोडरियों के साथ. फोटो- माधव शर्मा

अगर आप राजस्थानी लोकगीतों को सुनना पसंद करते हैं. तो आपने जरूर म्हारो गोरबंद नखराळो... गीत भी सुना होगा. सुनने में काफी मधुर इस गीत में एक शब्द है गोरबंद. जिसका अर्थ होता है गले में पहनने की माला, लेकिन क्या आप जानते हैं कि गोरबंद शब्द कहां से आया है? ये गोरबंद किसके गले में बांधा जाता है? अगर नहीं तो किसान तक इन सवालों के जवाब इस खबर में लाया है. दरअसल, गोरबंद ऊंटों को सजाने के लिए इस्तेमाल में लिया जाने वाला सामान है. इसे ऊंटों के गले से लेकर पीठ और पेट तक के हिस्से में बांधा जाता है. इसमें रंगीन रेशों की बुनाई में गोल काटे हुए शीशे और कौड़ियां बुनी जाती हैं. चूंकि ऊंट राजस्थान की संस्कृति में इस तरह रचा-बसा है कि धीरे-धीरे गोरबंद नाम के आभूषण महिलाओं के गले की शोभा भी बढ़ाने लगा. हालांकि इसका स्वरूप समय के साथ-साथ अब काफी बदल गया है.

इस खबर में हम आपको ऊंटों को सजाने के लिए इस्तेमाल में लाये जाने वाले कुछ सजावटी सामानों के नाम बताएंगे. साथ ही यह भी बताएंगे कि ऊंट राजस्थान की संस्कृति में किस तरह घुला-मिला है. 

नकेल की रस्सी में चांदी, बेलचा और मोरी को समझिए

बीकानेर के सरूपदेसर गांव के ऊंट पाल रामस्वरूप सियाग से किसान तक ने बात की. वे बताते हैं, “हम अपने ऊंटों को दुल्हन की तरह सजाते हैं. ऊंट की नाक में जो नकेल वाली रस्सी है, उसमें हमचांदी के गहने डालते हैं. गले में बंधी चीड़ की एक रस्सी को मोरी कहते हैं. ऊन से बने रंग-बिरंगी सजावटी सामान जो गले में पहनाया जाता है उसे बेलचा कहते हैं. ऊंट की काठी पर रखे पलान में चांदी और पीतल की नक्काशी की जाती है. यह काफी महंगी बनती है और अब इसे बनाने वाले कारीगर भी लगातार कम हो रहे हैं.” 

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रामस्वरूप आगे कहते हैं, “ऊंटों को सजाने के लिए हम इनके पांवों में घुंघरू भी बांधते हैं. ऊंट की चाल मतवाली होती है. इससे चलते वक्त सुंदर संगीत निकलता है. पूंछ पर भी चांदी का बंधन बांधते हैं. इसके अलावा सजाने के लिए कौड़ी, छोटे शंख और सजावटी चीजों को इस्तेमाल  में लिया जाता है. ” 

रामस्वरूप का ऊंट बीकानेर के कैमल फेस्टिवल में सजावट, फर कटिंग जैसी प्रतियोगिताओं में 19 बार पहले स्थान पर आया है. इस फेस्टिवल में एक दिन के लिए रामस्वरूप हर बार अपने ऊंट को सजाने के लिए 20-25 हजार रुपये खर्च करते हैं. 

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मोरखा और मुआर... रस्सी एक लेकिन नाम दो

इसके अलावा किसान तक ने जैसलमेर के सांवता गांव के ऊंट पालक सुमेर सिंह से भी बात की. उन्होंने बताया, “ऊंट पर बैठने के लिए जो पलान (क्षेत्रीयता के आधार पर इसका उच्चारण बदल जाता है) होती है, उसे सिर्फ एक जगह से बांधा जाता है. बांधने के लिए काम में ली गई चीज को तंग कहते हैं. इसके अलावा ऊंट पर बैठते वक्त पैर रखने के लिए लोहे या पीतल के बने आइटम को पागड़ा कहा जाता है. वहीं, ऊंट ते मुंह पर बांधने के लिए काम में ली जाने वाली रस्सी को मोरखा और नाम में डाली हुई रस्सी को मुआर कहते हैं. ” 

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“हमारी संस्कृति का हिस्सा है ऊंट”

ऊंट पश्चिमी राजस्थान ही नहीं बल्कि पूरे राजस्थान में संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है. हालांकि बदलते वक्त के साथ जैसे ही ऊंट की उपयोगिता कम हुई, इनकी संख्या भी घटने लगी. सुमेर कहते हैं कि ऊंटों से हमारा जीवन चलता है और हमसे ऊंटों का. राजस्थान की संस्कृति, लोक किस्सों, गीतों और आमजन-जीवन में ऊंट बहुत करीब से जुड़ा हुआ है. यही नहीं ऊंटों और इंसानों की कई आदतें भी एक जैसी हैं. लेकिन राजस्थान सरकार के 2015 में कानून बनाने के बाद इनके लाने-ले जाने पर पाबंदी लग गई तो ऊंट आम लोगों से दूर हो गया. हमें डर है कि धीरे-धीरे ऊंट हमारी संस्कृति,जीवन से ही दूर ना हो जाए. 

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