
राम काल के पक्षी : बीते दिनों से एक खबर मीडिया में चलने लगी है कि अयोध्या के पास रामकाल के पक्षीराज जटायु के वंशज गिद्द देखे गए हैं. ये खबर कितनी वास्तविक है इस पर भी सवाल उठे हैं. इस घटनाक्रम को लोग राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा से जोड़कर देखने लगे हैं और भगवान राम और जटायु के संबध पर चर्चा होने लगी है. लेकिन, इस बात ने लोगों को सोचने पर मजबूर किया है कि गिद्ध हमसे दूर क्यों हो गए हैं. 90 के दशक से पहले जिनका जन्म हुआ उनको बरगद के वृक्ष और ताड़ के पेड़ों पर गिद्ध बैठे दिख जाते थे. लेकिन, राम काल के पर्यावरण हितैषी जटायु के वंशज के विलुप्त होने का खतरा बढ़ता जा रहा है. पर्यावरण को संतुलन बनाने में अहम रोल निभाने वाले गिद्ध को बचाना जरूरी है और इसके लिए सरकारों के साथ ही आमजन को भी आगे आना होगा.
रामायण के प्रसंग में कहा गया है कि जब माता सीता को हरण करके रावण ले जा रहा था तो रास्ते में जटायु ने अपने चोंच से रावण को चोट पहुंचाई थी. इसके बाद रावण ने तलवार से जटायु को लहूलुहान कर दिया था. जटायु घायल होकर जमीन पर गिर गये, जब सीता को खोजते हुए राम पेड़, पौधे और पक्षियों से पूछते जा रहे थे तो रास्ते में घायल जटायु से मुलाकात होती है. मरणासन्न पड़े जटायु ही राम को बताते हैं कि रावण सीता को हरण करके किस दिशा में गया है. इसके बाद जटायु की मृत्यु हो जाती है. राम जटायु को ऐसे ही नहीं छोड़ते हैं, बल्कि जटायु का अंतिम संस्कार और पिंडदान करते हैं. राम ने भी कर्तव्य निभाया. ये घटना दर्शाती है कि इंसान पशु पक्षी के प्रति काफी ख्याल रखता था. रामायण के एक प्रसंग में जटायु के भाई सम्पाती दूर दृष्टि से समुद्र के इस पार से लंका में देखकर बताते हैं कि सीता जी अशोक वाटिका में हैं और मान्यता है कि जटायु और सम्पाती गिद्ध या गरूण प्रजाति के पक्षी थे. आज के वक्त में गिद्ध या गरूण प्रजाति विलुप्त हो रही है.
विभिन्न समुदायों में गिद्धों का एक अलग सांस्कृतिक-धार्मिक महत्व है. तिब्बत में बौद्ध धर्म के लोगों का अंतिम संस्कार करने का तरीका बेहद अनोखा है. दरअसल, जब भी यहां किसी की मौत होती है तो उसका अंतिम संस्कार आकाश (Sky Burial) में किया जाता है. इसमें मृतक के परिजन या उसकी जान पहचान के लोग शव को लेकर सबसे पहले पहाड़ की एक चोटी पर जाते हैं. उस स्थान पर अंतिम संस्कार के लिए कुछ लामा या बौद्ध भिक्षु मौजूद होते हैं. फिर वहां मौजूद कर्मचारी जिसे रोग्यापस कहते हैं वो शव के छोटे-छोटे टुकड़े करता है और गिद्धों को खिलाते हैं. जिसे खत्म करने के लिए शव के टुकड़ों को खुले आसमान के नीचे छोड़ दिया जाता है. मान्यता है कि दाकिनी यानि गिद्ध फरिश्ते की तरह हैं, जो शरीर से आत्मा को स्वर्ग में लेकर जाते हैं.
पर्यावरण के संतुलन को बनाए रखने के लिए हर जीव की प्रकृति में अहम रोल है. गिद्ध सदियों से प्रकृति के इको-सिस्टम का हिस्सा रहे हैं. असल में ये मरे हुए जानवरों के मांस को खाकर जिंदा रहते थे. इससे पर्यावरण को साफ बनाए रखने में सहायता मिलती है. गिद्धों का समूह एक जानवर के शव को लगभग 40 मिनट में साफ कर सकता है. इस तरह ये अप्रत्यक्ष रूप में मनुष्य की सहायता करते हैं और महामारी का खतरा कम होता है. गिद्ध पक्षी के पंख और आंख सबसे ज्यादा ताकतवर होती हैं. इससे वह उड़ने और अधिक उंचाई से भई जमीन पर काफी छोटी चीजें देख सकता है. विशेषज्ञों के अनुसार गिद्ध 6.5 किलोमीटर की ऊंचाई से भी नीचे साफ-साफ देख सकता है.
भारतीय गिद्धों की संख्या 1990 के दशक से कम होने लगी, क्योंकि उनके आहार में मरे हुए जानवर पशु शामिल होते थे. लोग अपने पशुओं को बीमारियों से बचाव के लिए डाइक्लोफेनाक नामक दवा देने लगे. इस दवा से इंसान और पशुओं के लिए कोई खतरा नहीं था, मगर डाइक्लोफेनाक दवा से उपचारित मरे पशुओं को जब गिद्ध खाता था तो उनके गुर्दे खराब होने लगे. इसकी वजह से गिद्ध मरने लगे. पशु-पक्षी विशेषज्ञों के मुताबिक इन दवा से उपचारित मृत जानवरों को खाने से गिद्ध के शरीर में यूरिक एसिड बनता है, जो उनकी मौत का कारण बन गया. दूसरी तरफ गांव के पास पुराने बरगद और घने पेड़ों की कमी होने लगी, जिस पर ये अपना आवास के लिए घोसले बनाते थे.
आाज भारत में गिद्धों की आबादी पर विलुप्त होने के खतरा है. 1980 के दशक के दौरान भारत में लगभग 4 करोड़ गिद्ध थे. बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) के सर्वे के अनुसार 1990 के दशक के सफाई कर्मी रूप में काम करने वाले गिद्धों की संख्या में चिंताजनक गिरावट दर्ज की गई थी. भारत, नेपाल और पाकिस्तान में पशुओं में डाइक्लोफेनाक के उपयोग के कारण गिद्धों की 95 फीसदी आबादी ही घट चुकी है. सर्वे के अनुसार अब केवल 60,000 गिद्ध ही बचे हैं.
गिद्धों को बचाने के लिए 2006 में भारत सरकार ने पशु चिकित्सा में उपयोग होने वाली दवा डाइक्लोफेनाक के बिक्री और उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था. इसके बाद केटोप्रोफेन और एसिक्लोफेनाक दोनों नॉन स्टेरायडल एंटी इंफ्लेमेटरी दवाओं (एनएसएआईडी) का उपयोग पशुओं के इलाज में किया जाने लगा. यह दवाएं भी गिद्ध पक्षियों के लिए हानिकारक हैं. केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 31 जुलाई 2023 से जानवरों के उपयोग पर इन दोनों दवाओं के फॉर्मूलेशन पर निर्माण, बिक्री और वितरण पर प्रतिबंध लगा दिया है.
गिद्धों के संरक्षण के लिए हरियाणा के पिंजौर में जटायु संरक्षण और प्रजनन केंद्र साल 2001 में स्थापित किया गया था, जो एशिया का पहला ऐसा केंद्र है. इसके बाद उत्तर प्रदेश के महराजगंज में योगी सरकार ने गिद्ध संरक्षण के लिए एक और 'जटायु संरक्षण और प्रजनन केंद्र (JCBC)' 2020 में स्थापित किया. गिद्ध को बचाने के लिए सितम्बर माह से पहले शनिवार को अन्तराष्ट्रीय गिद्ध जागरूकता दिवस भी मनाया जाता है. देश में अलग-अलग राज्यों में 7 गिद्ध के प्रजनन और संरक्षण केेन्द्र खोले गये हैं.
ये भी पढ़ें - Ram Kaal Plants: राम काल में शबरी के बेर के अलावा, जानिए कौन-कौन से उपयोगी पेड़-पौधे थे मौजूद
रामकाल से ही लोगों को पशु पक्षियों से प्रेम था. भारतीय संस्कृति में हरे-भरे पेड़, पवित्र नदियां, पहाड़, झरने पशु-पक्षियों की रक्षा करने का संदेश हमें विरासत में मिला और श्रीराम को चौदह वर्ष के वनवास से हमें पर्यावरण संरक्षण की प्रेरणा मिलती है. लेकिन, इंसान के अपने विकास की अंधी दौड़ के कारण जैव विविधता में तेजी से गिरावट आई है. इसके चलते 4 से 5 दशकों में पक्षियों की संख्या घटकर एक तिहाई रह गई है. इसके बावजूद हम अपनी जीवन-शैली में बदलाव के लिए तैयार नहीं हैं. इस खतरे को रोकने के लिए अभी भी सुव्यवस्थित तरीके से उचित संरक्षण प्रयासों की जरूरत है. इसलिए गिद्ध के लिए प्राकृतिक संरक्षण की दिशा में जागरूकता जरूरी है और इसके लिए सबको आगे आना होगा.
Copyright©2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today