
पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले का सिकंदरपुर ब्लॉक अपनी उपजाऊ भूमि के लिए जाना जाता है, लेकिन यहां के मनियर गांव के 50 वर्षीय किसान हरेराम चौरसिया ने यह साबित कर दिया है कि खेती में केवल मेहनत ही नहीं, बल्कि सही तकनीक भी जरूरी है. कई सालों तक पारंपरिक तरीके से सब्जी की खेती करने वाले हरेराम अक्सर इस बात से परेशान रहते थे कि जमीन पर फैलने वाली लताओं के कारण उनकी फसल का एक बड़ा हिस्सा खराब हो जाता था. इसके लिए खेती में एक नया प्रयोग करने की ठानी. उन्होंने लौकी की खेती में 'मचान विधि' और 'प्लास्टिक मल्चिंग' का अनूठा संगम किया. आज उनकी यह पहल न केवल उनकी अपनी तकदीर बदल रही है, बल्कि आसपास के किसानों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बन गई है.
हरेराम चौरसिया ने महसूस किया कि जब लौकी की बेलें जमीन पर फैलती हैं, तो फल मिट्टी के संपर्क में आकर सड़ने लगते हैं और उनका आकार भी बिगड़ जाता है. इस समस्या के समाधान के लिए उन्होंने बांस और तार की मदद से एक मजबूत 'मचान' तैयार किया, जिस पर लौकी की बेलों को चढ़ाया गया. इसके साथ ही, उन्होंने पौधों की जड़ों के पास नमी बनाए रखने और खरपतवार को रोकने के लिए 'प्लास्टिक मल्चिंग' का इस्तेमाल किया. यह तकनीक बहुत ही कम लागत वाली और प्रभावी है. मचान पर लटकने के कारण लौकी के फलों को हवा और धूप भरपूर मात्रा में मिलती है. प्लास्टिक मल्चिंग से बार-बार सिंचाई करने की जरूरत नहीं पड़ती और खाद का भी पूरा उपयोग पौधे ही करते हैं.
इस नई तकनीक का असर फसल की गुणवत्ता पर साफ दिखाई दिया. मचान विधि के कारण लौकी के फल अब सीधे मिट्टी के संपर्क में नहीं आते, जिससे उनके सड़ने या गलने की समस्या लगभग खत्म हो गई है. फलों का आकार लंबा, सुडौल और चमकदार होता है, जिससे बाजार में उनका भाव अच्छा मिलता है. हरेराम चौरसिया के अनुसार, इस विधि से पौधों में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया बेहतर हुई है, जिससे पौधे स्वस्थ रहते हैं. आंकड़ों की बात करें तो, पारंपरिक खेती की तुलना में इस विधि से पैदावार में लगभग 33% की वृद्धि देखी गई है. जहां पहले फल टेढ़े-मेढ़े और दागदार होते थे, अब वे एक समान आकार के और उच्च गुणवत्ता वाले हैं.
खेती में मुनाफा तभी होता है जब लागत कम हो और उत्पादन ज्यादा. हरेराम जी का यह मॉडल आर्थिक रूप से बहुत फायदेमंद साबित हुआ है. प्लास्टिक मल्चिंग के उपयोग से पानी की खपत में 15% तक की कमी आई है. इसके अलावा, खरपतवार निकालने के लिए लगने वाली मजदूरों की लागत भी काफी कम हो गई है. बेहतर गुणवत्ता और ज्यादा उत्पादन के चलते उनकी कुल आमदनी में 20 से 25 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. यह विधि लिए एक वरदान की तरह है, क्योंकि इसमें बहुत महंगे उपकरणों की जरूरत नहीं होती, लेकिन मुनाफा बड़े पैमाने पर होता है.
हरेराम चौरसिया की सफलता अब केवल उनके खेत तक सीमित नहीं है. उनके इस सफल प्रयोग को देखकर मनियर और आसपास के गांवों के अन्य किसानों ने भी इस तकनीक को अपना लिया है विशेष रूप से छोटे जोत वाले किसानों के लिए, जिनके पास जमीन कम है, यह मचान विधि कम जगह में अधिक उत्पादन का सबसे अच्छा तरीका है. हरेराम चौरसिया आज एक सफल किसान के रूप में यह संदेश दे रहे हैं कि थोड़ी सी समझदारी और सही तकनीक से खेती को एक मुनाफेदार व्यवसाय बनाया जा सकता है.