हम हैं राजस्थान के आदिवासी बहुल जिले सिरोही में. तहसील है रेवदर और गांव का नाम है पीथापुरा. गांव के मुहाने पर पहुंचने पर सड़क हमारा साथ छोड़ देती है और शुरू होता है रेत से भरे रास्ते का सफर. अधिकतर हाइवे पर ही गाड़ी चलाने वाले मेरे ड्राइवर भौम सिंह इस रेत पर जैसे-तैसे गाड़ी चला पा रहे हैं. करीब दो किलोमीटर चलने के बाद हमें दाईं ओर एक मिनी जंगल दिखाई देता है. उतरकर अंदर पहुंचे तो पता चला ये जंगल नहीं बल्कि एक बगीचा है. आमों का बगीचा. सिर्फ केसर आमों का बगीचा. करीब 500 मीटर चलने के बाद इंसानों की हलचल सुनाई दी. एक आम के पेड़ के नीचे खाट पर एक व्यक्ति सो रहे हैं. सो रहे व्यक्ति इस बगीचे के मालिक हैं और नाम है बाबूलाल विश्नोई. सिरोही में मेरे मित्र बृजमोहन जी ने इनका नाम मुझे सुझाया था. वजह थी कि इनके बगीचे का पूरी तरह ऑर्गेनिक होना.
इसीलिए गांव का नाम लेकर ढूंढ़ता हुआ इनके पास पहुंच गया. विश्नोई ने 13 सालों की मेहनत से 2500 केसर आम के पेड़ों का यह बगीचा तैयार किया है. इस मेहनत का फल उन्हें अब लाखों रुपये सालाना आमदनी के रूप में मिल रहा है.
बातचीत शुरू होती है. बाबूलाल अपनी कहानी शुरू करते हैं. कहते हैं, “साल 2010 से पहले मैं भी गेहूं, सरसों, मूंगफली जैसी फसलें लेता था. लेकिन उसमें सिर्फ गुजारा हो रहा था. मुझे यह जानकारी थी कि हमारे क्षेत्र की मिट्टी और जलवायु आम के लिए मुफीद है. इसीलिए 2010 में मैंने अपनी पूरी 75 बीघा जमीन पर 3500 आम के पेड़ लगा दिए. आमों की किस्म थी ‘केसर’. जिन्हें मैं गुजरात के जूनागढ़ से लेकर आया था. अगले दो-तीन साल में 2500 पेड़ जिंदा रहे. अच्छी देखभाल के कारण पौधे तीन साल के होते-होते फल भी देने लगे.”
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बाबूलाल हमें बताते हैं कि उनका बगीचा पूरी तरह ऑर्गेनिक है. आम के पेड़ों की देखभाल से लेकर फलों को पकाने तक में यह किसी भी तरह की दवाई का इस्तेमाल नहीं करते हैं. पेड़ों पर ही फल पकते हैं. अगर कहीं दूर से ऑर्डर आता है तो कच्चा आम भेजते हैं. दो-चार दिन में वहां पहुंचते-पहुंचते आम अपने आप पक जाता है.
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मेरे यह पूछने पर कि ऑर्गेनिक का आइडिया कैसे आया? बाबूलाल जवाब देते हैं, “दवाई से पकाए गए आमों की सेल्फ लाइफ ज्यादा नहीं होती. मेरे बगीचे से टूटे हुए आम 15 दिन तक भी खराब नहीं होते. इसीलिए गुजरात से लेकर दक्षिण भारत के कई शहरों में मेरे बगीचे का आम जाता है. आम तौर पर गुजरात के अहमदाबाद, जूनागढ़, पालनपुर और राजस्थान में सिरोही, रेवदर, जयपुर में सप्लाई होती है. ऑर्गनिक होने के कारण आम का स्वाद भी अच्छा होता है.”
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ऑर्गेनिक आम उगाने का ही फल है कि बाबूलाल एक सीजन में 40 लाख रुपये से ज्यादा की कमाई करते हैं. शुरूआत में आम का बगीचा और उसका बाजार बाबूलाल खुद ही करते थे, लेकिन अब तीन-चार साल से वे इसे ठेके पर देते हैं.
एक सीजन का ठेका 40 लाख रुपये का उठता है. ठेके पर लेने का बाबूलाल का फायदा यह है कि अगर फसल में किसी तरह का नुकसान होगा तो उसका घाटा इन्हें नहीं होगा. इसीलिए विश्नोई इसे अपने लिए फायदे का सौदा मानते हैं.