आज मजदूर दिवस है. आपने सीखने लायक अनगिनत कहानियां देखी और पढ़ी होंगी. लेकिन झारखंड के गंसू महतो की सफलता की कहानी बिल्कुल चौंकाने वाली है. 50 रुपये के दिहाड़ी मजदूर से लाखों के मालिक बनने की यह कहानी एक अनट्रेंड (अकुशल) मजदूर से एक ऐसी शख्सियत बनने की है जिससे अब दूर-दूर से लोग ट्रेनिंग लेने आते हैं. यह कहानी इसलिए भी सबसे अलग है क्योंकि यह मिट्टी से जुड़ी हुई कहानी है. यह मिट्टी में उपजे कौशल और स्वाभिमान की कहानी है. यह कहानी एक मजदूर से सिर्फ अपने दम पर एक बेहद सफल किसान बनने की है. लेकिन उसने अपने सपनों के पीछे दृढ़ निश्चय और मेहनत के दम पर खुद को एक सफल किसान बनाया और कृषि क्षेत्र में एक नई उचाई छू ली.गंसू महतो की सफलता में निरंतर प्रयास और आत्मविश्वास भी बहुत अहम था. इसलिए यह कहानी हर मजदूर को प्रेरणा देने वाली है.
दरअसल, झारखंड की राजधानी रांची से करीब 30 किलोमीटर दूर प्रकृति की गोद में बसे ओरमांझी प्रखंड के सदमा गांव के निवासी गंसू महतो को कभी 50 रुपये दिहाड़ी मिलती थी. वे 20 किलोमीटर दूर जाकर मजदूरी करने को मजबूर थे. खाने के लाले पड़े थे. एक रोज मजदूरी न करें तो उनके सामने समस्या थी कि क्या खाएं और परिवार को क्या खिलाएं.लेकिन आज वही गंसू महतो 15 एकड़ में खेती कर सोना जैसी उपज लेते है.आज वह बैंगन, टमाटर, शिमला मिर्च, तरबूज, खरबूज और झींगा, नेनुआ, कद्दू, करेला की खेती के दम पर साल भर से लगभग 60 लाख रुपए कमाते हैं.
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गंसू मंहतो में इतना बड़ा बदलाव क्यों और कैसे आया. इस बारे में गंसू महतो ने बताया, 'एक समय में 50 रुपये की मजदूरी के लिए अपने घर से 25 किलोमीटर दूर साइकिल से रांची शहर में जाता था. वहां पूरे दिन ईंट गारा का काम करता था और 50 रुपये मिलते थे. अगर दो मिनट सुस्ताने लगते तो ठेकेदार चिल्लाकर बोलता था. मजबूरी थी इसलिए सुन लेता था.'
गंसू महतो ने बताया कि पिता के पास पुश्तैनी 9 एकड़ ज़मीन थी. पर यह पत्थरों से भरा हुई बंजर जमीन थी. पारंपरिक खेती से बहुत कम उपज थी, इससे परिवार का पेट भरना मुश्किल था.इसलिए गंसू महतो ने इंटर पास करने के बाद पढ़ाई छोड़ दी. उनके पास इतना पैसा नहीं था जिससे वह आगे की पढ़ाई जारी रख सकें. इसलिए 20 साल की उम्र में वे 50 रुपये की दिहाड़ी मजदूरी करने लगे. उनका मन खेती की ओर जोर मार रहा था. इस तरह एक-एक पैसे के लिए मोहताज होकर जीना उन्हें गवारा नहीं था. इसलिए 3 साल मजदूरी करने के बाद मजदूरी छोड़ दी.खेती करने का मन बनाया,
सबसे पहले गंसू ने अपनी बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए दिन-रात एक कर दिया और गोबर की खाद डालकर उसे धीरे-धीरे उपजाऊ बनाया. उन्होंने मीठा धान की खेती की. गंसू की मेहनत रंग ला रही थी, लेकिन अब परिवार बड़ा हो गया था और अकेले पारंपरिक धान की खेती से गुजारा करना मुश्किल था. इसलिए उन्होंने सब्जियों की खेती की ओर रुख किया. साल 1998 में उन्होंने 12 डिसमिल जमीन में शिमला मिर्च की खेती की. पहली बार 1 लाख 20 हजार रुपये की शिमला मिर्च की बिक्री हुई. इस पहली सफलता ने उनके आत्मविश्वास में ताकत भर दी कि उन्होंने अपनी खेती में कई तरह के नए प्रयोग किए.
इसके बाद गंसू महतो ने साल 2015 में छत्तीसगढ़ भम्रण के दौरान किसानों से कुछ खेती के बारे में नई तकनीक बारे में सीखी. और इस भम्रण और ट्रेनिग के बाद उन्होंने अपनी खेती का नक्शा बदल दिया. इसके बाद उन्होंने सब्जियों और फूलों की खेती में राज्य सरकार की मदद का फायदा उठाकर मल्चिंग और ड्रिप सिंचाई इस्तेमाल करना शुरू किया. गंसू ने 2017 में पॉलीहाउस से जरबेरा की खेती से 35 लाख और सब्जियों की खेती से 15 लाख का उत्पादन किया. इसमें उत्पादन खर्च काटकर लगभग 30 लाख की बचत की. गंसू महतो की खेती रिकॉर्ड बना रही थी, लेकिन ये बदलाव सिर्फ पैसे कमाने के मकसद से ही नहीं था.
उनके अंदर किसान और खेती के वर्तमान स्वरूप को लेकर एक छटपटाहट थी. खेत और किसानों की तरक्की के लिए इस छटपटाहट का परिणाम था कि जब अपने प्रयोग में वे सफल हुए तो दूसरे भाई बंधुओं की खेती और उनके जीवन स्तर को सुधारने की जिम्मेदारी निभाने में कोई कमी नहीं की. आज वह अपना कुछ वक्त दूसरे किसानों को ट्रेनिंग देने में बिताते हैं. झारखंड में आज उनकी खेती की चर्चा कुछ ऐसी है कि लोग दूर-दूर से उनसे ट्रेनिंग लेने आते हैं.
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अब तक गंसू से 35,000 किसानों ने ट्रेनिंग ली है. इसमें भारतीय आर्मी, साइन नाथ यूनिवर्सिटी, राय यूनिवर्सिटी, रामकृष्ण मिशन, बीएससी एग्रीकल्चर के छात्र-छात्राएं भी शामिल हैं. वाट्सअप और फेसबुक के माध्यम से देश के जो भी किसान ट्रेनिंग लेने की इच्छुक होते हैं, उन्हें प्रशिक्षण दिया जाता है. गंसू बताते हैं कि उनसे प्रशिक्षण प्राप्त करके किसान 50 से 100 एकड़ जमीन पर खेती कर रहे हैं.
झारखंड राज्य में पानी की कमी होने की वजह से यहां के किसान ज्यादातर बरसात के पानी पर ही खेती के लिए निर्भर थे. लेकिन बारिश के पानी से धान की उपज खाने भर के लिए होती थी. इससे रोजमर्रा के खर्चों के लिए उन्हें दिहाड़ी मजदूरी करनी पड़ती थी. धीरे-धीरे सरकार की तमाम योजनाएं किसानों तक पहुंचीं जिससे किसानों ने सब्सिडी पर ड्रिप इरीगेशन, मल्चिंग और पॉलीहाउस लगाना शुरू किया और आधुनिक तरीके से खेती शुरू की.
उन्होंने ऑर्गेनिक खेती करना शुरू किया और इसमें किसी भी तरह के कीटनाशक और केमिकल खाद का इस्तेमाल नहीं किया. इस तरह खुद से बनाई गई जैविक खाद और उसका इस्तेमाल फसलों में किया गया. बाजार से कोई भी खाद या कीटनाशक लाने की जरूरत नहीं पड़ी. वे सभी खाद और दवाइयां अपने घर पर ही बनाते हैं. ज्यादा मजदूर की जरूरत भी नहीं पड़ती क्योंकि अपने और भाइयों के परिवार के सभी लोग उनकी स्थिति में उनके साथ देते हैं.