जलवायु परिवर्तन की वजह से मार्च में पड़ी गर्मी का असर देश में अभी देखने को मिल रहा है. पिछले साल मार्च में चली लू के चलते गेहूं का उत्पादन गिर गया था. वहीं जलवायु परिवर्तन की इन चुनौतियों को देखते हुए मौसम विभाग ने बदलते मौसम के आंकड़ों के हवाले से भारत में तापमान वृद्धि होने के लिए आगाह किया है. इससे मौसम चक्र और फिर फसल चक्र में बदलाव आना तय है. कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि जो किसान इस बदलाव को जितने जल्दी स्वीकार कर लेंगे, वे उतनी ही सहजता से 'जलवायु परिवर्तन' की इस चुनौती से निपटने में सक्षम हो जाएंगे. कुल मिलाकर अब 'स्मार्ट फार्मिंग' को ही समाधान मना जा रहा है. आइए समझते हैं जलवायु परिवर्तन की चुनौती क्या है. साथ ही स्मार्ट फार्मिंग क्या है और कैसे इसके माध्यम से जलवायु परिवर्तन के गंभीर संकट को कम किया जा सकता है.
मौसम विभाग के ताजा आंकड़ों के मुताबिक देश के तमाम इलाकों में मार्च के दूसरे और तीसरे सप्ताह में जो तापमान होना चाहिए, वह इन दिनों फरवरी में ही हो गया है. तकरीबन 5 सालों से यह महसूस किया जा रहा है कि बसंत ऋतु में ही गर्मी शुरू होकर दशहरा और दीवाली तक अपना असर दिखाती रहती है. इसी तरह खेती के लिए लाभप्रद मानी गई अधिक समय तक होने वाली हल्की बारिश के बजाए अब मूसलाधार बारिश होने लगी है. इससे बारिश में मिलने वाले पानी की मात्रा तो ज्यादा होती है, लेकिन तेज बारिश का पानी जमीन में बैठने के बजाय अपने साथ उपजाऊ मिट्टी को भी बहा कर ले जाता है.
खेती को नुकसान पहुंचा रही यह बारिश, वर्षा ऋतु को सीमित समय में समेट रही है. इसका सीधा असर सर्दी के मौसम पर भी पड़ रहा है. इससे अचानक कुछ दिनों के लिए तापमान में तेजी से गिरावट आने के कारण रबी की फसलों के लिए जरूरी मानी गयी शीत लहर भी सिकुड़ रही है.
मौसम विभाग के तापमान संबंधी मासिक आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि मार्च में जो अधिकतम तापमान होता है, वह 17 राज्यों में इस साल 18 फरवरी तक देखने को मिल गया. यूपी की ही अगर बात की जाए तो इन दिनों प्रयागराज, लखनऊ, मुरादाबाद, आगरा, झांसी और मेरठ मंडलों में दिन का तापमान सामान्य से 3 से 5 डिग्री से. अधिक दर्ज किया जा रहा है.
कुछ इसी तरह का हाल दिल्ली, राजस्थान, उड़ीसा और मध्य प्रदेश का भी है. इन इलाकों में पिछले कुछ सालाें से फरवरी में ही दिन में तपिश बढ़ने के कारण बसंंत ऋतु नदारद सी हो गई है. मौसम विशेषज्ञों के मुताबिक बसंत ऋतु की बयार बहने से पहले ही गर्मी का अहसास होना, 'जलवायु परिवर्तन' का ठोस प्रमाण है.
मौसम विभाग (आईएमडी) के महानिदेशक डॉ. मृत्युंजय महापात्रा ने 'किसान तक' को बताया कि भारत में जलवायु परिवर्तन को लेकर बीते 100 साल के तापमान संबंधी आंकड़ों का अध्ययन किया गया है. इसमें पता चला है कि भारत में साल भर के अधिकतम तापमान में औसतन 1 डिग्री से. का और न्यूनतम तापमान में 0.26 डिग्री से. का इजाफा हुआ है.
न्यूनतम और अधिकतम, दोनों को मिलाकर अगर देखा जाए ताे भारत में 100 साल के दौरान औसतन 0.63 डिग्री से. तापमान बढ़ा है. उन्होंने कहा कि पिछले दो दशक के दौरान ताप वृद्धि में तेजी दर्ज की गई है, इसलिए जलवायु परिवर्तन को आसानी से महसूस किया जाने लगा है.
डॉ. महापात्रा ने कहा कि इलाके के हिसाब से देखें तो गंगा के मैदानी इलाकों में 100 साल के दौरान तापमान लगभग स्थिर रहा. गुजरात और यूपी के मैदानी इलाकों में इस दौरान तापमान बहुत मामूली रूप से कम हुआ. देश के बाकी इलाकों में तापमान बढ़ा है.
उन्होंने कहा कि इस अवधि में मूसलधार बारिश की प्रवृत्ति मध्य भारत में ज्यादा देखी गई, जबकि धीमी बारिश होने की दर कम हुई है. मानसून से पहले, जनवरी से मार्च के बीच और अक्टूबर से दिसंबर के दौरान ताप वृद्धि ज्यादा हुई है. मौसम आधारित कृषि विज्ञान की भाषा में इस स्थिति को ही 'जलवायु परिवर्तन' कहा जा सकता है.
फसल चक्र के शोध से जुड़ी हैदराबाद स्थित अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘‘इक्रीसेट’’ के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. रमेश कुमार की अगुवाई में पिछले कुछ सालों से बुंदेलखंड में जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर कृषि पद्धति में बदलाव पर अध्ययन किया जा रहा है. डॉ. कुमार ने 'किसान तक' को बताया कि मौसम के मिजाज में बदलाव का सीधा असर कृषि पर दो तरीके से पड़ता है. पहला कीट का प्रकोप बढ़ना और दूसरा मौसम के अनुरूप फसलों को स्वीकार करना.
डॉ. कुमार ने कहा कि किसानों को मौसम चक्र में बदलाव की आहट को तत्काल पहचानना जरूरी है. इस आहट को महसूस कर कीट प्रबंधन और फसल प्रबंधन के उपाय लागू करना ही इस चुनौती से निपटने का एकमात्र उपाय है.
डॉ. कुमार ने बताया कि मौसम चक्र के मुताबिक फसल चक्र में बदलाव की इस आहट को महसूस कर केंद्र सरकार ने क्षेत्र विशेष के मौसम के अनुकूल फसलों में बदलाव करने की परियोजना शुरू कर दी है. इसे 'मौसम आधारित खेती' या 'स्मार्ट फार्मिंग' जैसे नाम दिए गए हैं. उन्होंने बताया कि कृषि मंत्रालय ने फसल चक्र में बदलाव की परियोजना के परिणामस्वरूप ही अब जाकर यूपी, महाराष्ट्र्र और कर्नाटक जैसे राज्यों में बागवानी फसलों एवं मिलेट्स को बढ़ावा देने की मुहिम तेज कर दी है.
यह इसी योजना का हिस्सा है कि किसान जल्द से जल्द जलवायु के अनुकूल मानी गई मिलेट्स की खेती को पुन: अपना लें. उन्होंने बताया कि किसानों को स्मार्ट फार्मिंग के गुर सिखाने के प्रयोग यूपी के बुंदेलखंड में चल रहे हैं. कम पानी की उपलब्धता वाला बुंदेलखंड इलाका मिलेट्स और नीबू, संतरा एवं अनार जैसे खट़टे फलों की खेती के लिए मुफीद है. इस परियोजना का ही नतीजा है कि इस इलाके के किसानों का रुझान बागवानी फसलों की ओर तेजी से बढ़ रहा है. इसी प्रकार गुजरात में उपजाए जा रहे खजूर और राजस्थान में हो रहे एप्पल बेर को भी बुंदेलखंड शिफ्ट किया जा रहा है.
डॉ. कुमार ने बताया कि फसल चक्र में बदलाव की परियोजना के तहत पूरे देश में मौसम के मिजाज में आ रहे बदलाव के आधार पर खेती के पैटर्न में बदलाव का अध्ययन किया जा रहा है. यह लंबे समय तक चलने वाली परियोजना है. इसमें दक्षिण भारत और राजस्थान के वे इलाके, जहां तेज बारिश की घटनाएं ज्यादा देखी जा रही हैं, वहां मटर, गेहूं और धान जैसी फसलों को शिफ्ट किया जा रहा है.
इसी तरह हिमाचल प्रदेश में अधिक बर्फबारी वाले इलाकों में सेब की खेती को शिफ्ट किया जा रहा है. वहीं, भूजल स्तर में भारी गिरावट वाले हरियाणा एवं पश्चिमी उप्र में कम पानी वाली फसलों को प्रोत्साहित किया जा रहा है. उन्होंने कहा कि पश्चिमी यूपी में गेहूं और धान जैसी नगदी फसलों से किसानों का मोहभंग कराना मुश्किल साबित हो रहा है. हालांकि इस मामले में उन्होंने स्वीकार किया कि बुंदेलखंड के किसानों को बदलाव के लिए आसानी से तैयार किया जा सका है.
बांदा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. दिनेश शाह ने 'किसान तक' को बताया कि भारत के अधिकांश इलाकों में जलवायु परिवर्तन का असर साफ तौर पर दिखने लगा है. मौसम चक्र का बदलाव फसल चक्र में फेरबदल का मूल आधार है. इसलिए किसानों को चाहिए कि वे बदलाव के लिए खुद को जितने जल्दी तैयार कर लेंगे उतने ही जल्दी वे 'स्मार्ट फार्मर' बन पाएंगे.
डॉ. शाह ने कहा कि जलवायु परिवर्तन को देखते हुए स्मार्ट फार्मिंग का पहला सूत्र यही है कि अव्वल तो मौसम के मुताबिक फसल बदल ली जाए. जहां फसल नहीं बदल सकते हैं, वहां खेती की पद्धति बदल दी जाए.
डॉ. शाह ने कहा कि बड़े किसान, संसाधनों की प्रचुरता के कारण फसल या खेती की पद्धति के बदलाव को असानी ने स्वीकार कर लेते हैं. संकट उन छोटे किसानों का है जो सरसों, गेहूं और धान जैसी नगदी फसलों से ही गुजर बसर कर रहे हैं. उनके लिए सरकार 'जीरो टिलेज' पद्धति से खेती को बढ़ावा दे रही है.
उन्होंने कहा कि इसमें खेत की जुताई किए बिना 'जीरो टिलर' मशीन से बुवाई की जाती है. इसमें किसान को बुवाई से पहले खेत में सिंचाई करके जुताई करने का खर्च बच जाता है. साथ ही खेत में पिछली फसल का अवशेष एवं मिट्टी में नमी बरकरार रहने से जीरो टिलेज से बोई गई फसल कम पानी से कम समय में तैयार हो जाती है. उन्होंने दावा किया कि इस पद्धति में उपज पर भी कोई असर नहीं पड़ता है.
डॉ. शाह ने कहा कि स्मार्ट फार्मिंग में किसानों को तापमान वृद्धि के संकट से बचने का भी समाधान बताया जाता है. उन्होंने बताया कि फरवरी में ही मार्च का तापमान होने के कारण सरसों और गेहूं सहित रबी की फसलों का दाना ठीक से पक नहीं पता है. इससे फसल काे भारी नुकसान होता है.
इसके समाधान के तौर पर डॉ. शाह ने बताया कि किसानाें को रबी की फसलों में 120 दिन के बजाय 90 दिन में पकने वाली किस्मों की जीरो टिलेज पद्धति से बुवाई करने को प्रोत्साहित किया जा रहा है. उन्होंने कहा कि किसान अक्सर बारिश के इंतजार में देर से बुवाई शुरू करते हैं. इससे 120 दिन में पकने वाली फसलों की देर से बुवाई होने के कारण कटाई भी देर से होती है.
इस गलत तरीके को छोड़ कर किसानों को अक्टूबर के अंत तक धान की कटाई के तुरंत बाद जीरो टिलेज पद्धति से रबी की 90 दिन वाली फसलों की बुवाई कर देना चाहिए. इससे जनवरी के अंत तक फसल को पर्याप्त सर्दी में पकने का मौका मिल जाता है और समय से कटाई भी हो जाती है. डॉ. शाह ने कहा कि जलवायु परिवर्तन से डरने के बजाय किसानों को स्मार्ट फार्मिंग के गुर अपना कर ही आपदा में अवसर तलाशना चाहिए. यही समय की मांग है और एकमात्र विकल्प है.
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