
आज 5 दिसंबर, यानी 'विश्व मृदा दिवस' यानी World Soil Day है. यह दिन केवल मिट्टी के महत्व को याद करने का नहीं, बल्कि यह स्वीकार करने का है कि हमारे पैरों के नीचे की जमीन धीरे-धीरे मर रही है. 1960 के दशक में 'शिप-टू-माउथ' यानी आयात पर निर्भर अर्थव्यवस्था से निकलकर भारत आज दुनिया का सबसे बड़ा चावल निर्यातक (2.20 करोड़ टन से अधिक निर्यात) बन गया है. लेकिन इस सुनहरे सफर के पीछे की सच्चाई डरावनी है.
विशेषज्ञों और डेटा के अनुसार, भारत की मिट्टी अब 'थक' चुकी है और उसे आईसीयू की जरूरत है. भारत की सफलता की कहानी के पीछे एक कड़वा सच छुपा है जिसे इसरो (ISRO) का डेटा उजागर करता है. साल 2021 के 'डेजर्टिफिकेशन एंड लैंड डिग्रेडेशन एटलस' की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की कुल भौगोलिक भूमि का लगभग 29.7% हिस्सा करीब 9.6 करोड़ हेक्टेयर बंजर होने की कगार पर है. इसका मतलब है कि देश की एक-तिहाई जमीन अपनी उपजाऊ शक्ति खो रही है.
आजादी के बाद से हमने उत्पादन तो कई गुना बढ़ाया, लेकिन मिट्टी को मशीन समझ लिया. एक ही जमीन पर बार-बार फसल उगाने और उसे कभी 'आराम' न देने के कारण मिट्टी की संरचना टूट रही है. अगर यह रफ्तार जारी रही, तो संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक, अगले 60 वर्षों में दुनिया की ऊपरी उपजाऊ मिट्टी पूरी तरह खत्म हो सकती है, और भारत इससे अछूता नहीं रहेगा.
रिसर्च बताती है कि मिट्टी की बीमारी का सबसे बड़ा कारण रसायनों का असंतुलित उपयोग है. मिट्टी को स्वस्थ रहने के लिए नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश का एक आदर्श अनुपात 4:2:1 चाहिए होता है. लेकिन हकीकत में यह 7.7:3.1:1 के खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है. इसका मतलब है कि हम जरूरत से ज्यादा नाइट्रोजन (यूरिया) डाल रहे हैं. यह असंतुलन मिट्टी को बीमार बना रहा है और उसकी उपजाऊ शक्ति (Fertility) को खत्म कर रहा है.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पंजाब और हरियाणा जैसे प्रमुख कृषि राज्यों में यह अनुपात बिगड़कर 30:8:1 तक पहुंच गया है. सस्ते यूरिया (नाइट्रोजन) की उपलब्धता के कारण किसान इसका बेहिसाब उपयोग कर रहे हैं. भारत सरकार हर साल लगभग 2 लाख करोड़ रुपये से अधिक की उर्वरक सब्सिडी देती है, लेकिन इसका नतीजा यह है कि मिट्टी 'नशेड़ी' हो गई है. वैज्ञानिक डेटा बताता है कि पौधे डाले गए यूरिया का केवल 30-40% ही सोख पाते हैं, बाकी 60% रसायन मिट्टी में जहर घोल रहा है, भूजल को प्रदूषित कर रहा है और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसें बनाकर पर्यावरण को गर्म कर रहा है.
मिट्टी में जान है या नहीं, यह उसमें मौजूद 'ऑर्गेनिक कार्बन की मात्रा से पता चलता है. स्वस्थ मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन कम से कम 0.5% से 1% होना चाहिए. लेकिन कृषि वैज्ञानिकों की रिसर्च बताती है कि भारत की 60% से अधिक खेती योग्य जमीन में ऑर्गेनिक कार्बन 0.5% से भी कम रह गया है.
ऑर्गेनिक कार्बन कम होने का मतलब है कि मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों को पकड़कर रखने की क्षमता खत्म हो गई है. इसी कारण से, भले ही हम खाद डाल रहे हैं, लेकिन मिट्टी उसे फसल तक पहुंचा नहीं पा रही. यह स्थिति मिट्टी को 'रेत' में बदल रही है, जिससे भविष्य में अकाल जैसी स्थिति पैदा हो सकती है.
मिट्टी की सेहत का सीधा संबंध हमारी थाली और हमारे बच्चों के स्वास्थ्य से है. ICAR भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के एक अध्ययन के अनुसार, भारत की 36.5% मिट्टी में जिंक और 12.8% में आयरन की भारी कमी हो चुकी है. जब मिट्टी में ये तत्व नहीं होते, तो अनाज भी 'खोखला' पैदा होता है. इसका असर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य के डेटा में दिखता है, जिसके अनुसार भारत में 5 साल से कम उम्र के 35% से ज्यादा बच्चे 'स्टंटिंग' और 67% बच्चे एनीमिया यानी खून की कमी के शिकार हैं.
विशेषज्ञों ने इस बैठक में साफ कहा कि यह 'छिपी हुई भूख' है. हम पेट तो भर रहे हैं, लेकिन शरीर को पोषण नहीं मिल रहा, जिससे देश की आने वाली पीढ़ी शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर हो रही है.
'विश्व मृदा दिवस' पर यह संकल्प लेना जरूरी है कि हम मिट्टी को केवल 'उत्पादन की फैक्ट्री' न समझें. सॉइल हेल्थ कार्ड योजना के तहत मिट्टी की नियमित जांच करवाना और रसायनों की जगह जैविक खेती और बायो-फर्टिलाइजर्स को अपनाना अब विकल्प नहीं, बल्कि मजबूरी है.
शोध बताते हैं कि अगर हम मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन की मात्रा को केवल 0.4% बढ़ा दें, तो हम वातावरण से भारी मात्रा में कार्बन सोख सकते हैं और अनाज की उपज के साथ-साथ उसकी गुणवत्ता भी बढ़ा सकते हैं. भविष्य अंधकारमय होने से बचाने के लिए, हमें आज ही अपनी मिट्टी के 'इलाज' की शुरुआत करनी होगी, वरना आने वाले समय में पैसा तो होगा, लेकिन खाने लायक शुद्ध भोजन नहीं.