OMG! गुजरात के इस गांव में रहते हैं 500 लोग, फिर भी घरों में नहीं जलता चूल्हा, आखिर क्‍यों

OMG! गुजरात के इस गांव में रहते हैं 500 लोग, फिर भी घरों में नहीं जलता चूल्हा, आखिर क्‍यों

गुजरात के मेहसाणा में आने वाले चंदानकी गांव में कोई भी घर पर खाना नहीं बनाता. यह परंपरा बुजुर्गों में अकेलेपन की बढ़ती समस्या के समाधान के तौर पर शुरू हुई थी. कई युवाओं के शहरों या विदेश जाने के कारण, यह गांव, जहां कभी 1,100 लोग रहते थे, अब वहां करीब 500 लोग हैं, जिनमें ज्‍यादातर बुजुर्ग हैं. चंदानकी के कम्‍युनिटी किचन में सभी खाना बनता है, गांव की एक खास जगह है और यहीं सारा जादू होता है.

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क‍िसान तक
  • New Delhi ,
  • Dec 11, 2025,
  • Updated Dec 11, 2025, 3:28 PM IST

बुढ़ापा एक ऐसा समय है जब कम्युनिटी सबसे ज्‍यादा जरूरी होती है. हालांकि आज की तेज रफ्तार जिंदगी में जहां न्यूक्लियर फैमिली और बड़े शहरों में अकेले रहना आम बात है, भारत के एक अनोखे गांव ने आदर्श कम्युनिटी की मिसाल पेश की है. जहां एक तरफ लोग न्‍यूक्लियर फैमिली में रह रहे हैं और बेहतर मौकों और जिंदगी की तलाश में शहरों की तरफ जा रहे हैं, इस गांव में लोग अनोखी मिसाल पेश कर रहे हैं. हम बात कर रहे हैं गुजरात के चंदानकी गांव की जहां पर आज भी कोई अपने घर में खाना नहीं बनाता है. जानें आखिर क्‍यों इस गांव में यह परंपरा शुरू हुई और कैसे लोग इसे फॉलो करते हैं. 

गांव में रहते हैं 500 लोग 

गुजरात के मेहसाणा में आने वाले चंदानकी गांव में कोई भी घर पर खाना नहीं बनाता. यह परंपरा बुजुर्गों में अकेलेपन की बढ़ती समस्या के समाधान के तौर पर शुरू हुई थी. कई युवाओं के शहरों या विदेश जाने के कारण, यह गांव, जहां कभी 1,100 लोग रहते थे, अब वहां करीब 500 लोग हैं, जिनमें ज्‍यादातर बुजुर्ग हैं. चंदानकी के कम्‍युनिटी किचन में सभी खाना बनता है, गांव की एक खास जगह है और यहीं सारा जादू होता है. खाना बनाने की एक कॉमन जगह होने की वजह से यह किचन पूरे समुदाय में एकता और सपोर्ट की भावना का लेकर आता है. गांव के लोग पर पर्सन हर महीने का 2,000 रुपये देते हैं और आज के समय में यह शायद एक भरपेट खाने के लिए एक मामूली रकम है. ये खाना किराए पर रखे गए कुक बनाते हैं, जिन्हें हर महीने 11,000 रुपये बतौर सैलरी मिलती है. 

सरपंच की खास पहल 

किचन में कई तरह के पारंपरिक गुजराती पकवान मिलते हैं, जिससे पोषण का संतुलन और वैरायटी दोनों बनी रहती है. गांव के सरपंच पूनमभाई पटेल ने इस पहल में अहम भूमिका निभाई. न्यूयॉर्क में 20 साल बिताने के बाद, वह अहमदाबाद में अपना घर छोड़कर चंदानकी लौट आए. उनके प्रयासों से कम्युनिटी की भावना बनाए रखने में काफी मदद मिली है. उन्‍होंने बताया, 'हमारा चंदानकी एक ऐसा गांव है जो एक-दूसरे के लिए जीता है.' खाना सोलर पावर वाले एयर-कंडीशंड हॉल में परोसा जाता है, जो गांव वालों के लिए मिलने-जुलने की जगह बन गया है. यह हॉल सिर्फ खाने की जगह नहीं है बल्कि एक ऐसी जगह भी है जहां लोग अपनी खुशियां और दुख बांटते हैं. इसने गांव वालों के बीच एक मजबूत रिश्ता बनाने में मदद की है, जिससे वे कम अकेलापन महसूस करते हैं.'

शुरु में अजीब लगा था ख्‍याल 

उन्‍होंने बताया कि कम्युनिटी किचन का ख्‍याल शुरू में लोगों को अजीब लगा था. लेकिन, जैसे-जैसे इसके फायदे सामने आए, ज्‍यादा से ज्‍यादा गांव वालों ने इसे अपनाया. इस किचन ने न सिर्फ अकेलेपन का समाधान किया है, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया है कि बुजुर्गों को अपने खाने के बारे में चिंता न करनी पड़े. इससे उन्हें आराम करने और दूसरी एक्टिविटीज में शामिल होने के लिए ज्‍यादा समय मिला है. कम्युनिटी किचन ने न सिर्फ गुजरात बल्कि गांव के बाहर भी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा है. 

आस-पास के इलाकों से लोग इस अनोखे सेटअप को देखने के लिए चंदानकी आते हैं. यह उन दूसरे गांवों के लिए एक मॉडल बन गया है जो इसी तरह की समस्याओं का सामना कर रहे हैं. चंदानकी के कम्युनिटी किचन की सफलता इसकी सादगी और इससे पैदा होने वाली मजबूत सामुदायिक भावना में है. गांव में रहने वालों की सेहत पर भी इसका अच्छा असर पड़ा है. रेगुलर, पौष्टिक खाना मिलने से गांव वालों की सेहत में सुधार हुआ है. साथ में खाना खाने से सोशल मेलजोल भी बढ़ा है, जिससे बुजुर्गों में अकेलेपन की भावना कम हुई है. 

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