मेरा नाम बाबू लाल दाहिया है. मैं लगभग 5 दशक से देसी किस्म के पारंपरिक बीजों का संग्रह कर रहा हूं. मेरी कोशिश बघेली लोक साहित्य, स्थानीय लोकोक्ति और मुहावरों का संकलन करने की भी है. देसी धान की लगभग 200 किस्मों और गेहूं की दो दर्जन देसी किस्मों के अलावा सब्जी, कंद और मूल के बीजों का भी मेरे पास बेजोड़ संग्रह है. मेरी इन कोशिशों को भारत सरकार भी पुरस्कृत कर चुकी है. मुझे 2019 में पद्म श्री पुरस्कार भी मिल चुका है. ग्राम संस्कृति से कई ऐसी चीजें जुड़ी हैं जिन्हें संजोकर रखना बहुत जरूरी है. मैंने इसी जरूरत को पूरा करने का प्रयास किया है. इसके लिए संग्रहालय बनाना, मेरा एक छोटा सा प्रयास है. इसके साथ ही हम ग्राम संस्कृति का अहसास कराने वाले शब्दों में पिरोए गए लोकोक्ति, मुहावरे और कहावतों का एक कोष बनाने का उपक्रम भी कर रहे हैं. इनमें से कुछ जरूरी 'औजार एवं शब्दों' को इस लेख में पिरोने की हमने कोशिश की है. इसमें हमने बांस, धातु और मिट्टी आदि से बनने वाली तमाम तरह की वस्तुओं का जिक्र है.
यह समुदाय सदियों से खेती के काम आने वाले बांस के सामान या बर्तन बनाता रहा है. इस हुनर को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने वाले समुदाय को बंसकार कहा गया, जो देसी भाषा में बसोर हो गया. अलग अलग इलाकों में बांस से बनी इन वस्तुओं के नाम और रूप रंग भले ही अलग हों, मगर इनका इस्तेमाल हर जगह एक ही तरह से होता है. इस समुदाय के द्वारा निर्मित सामग्री इस प्रकार है.
चरहा टोपरा : यह बड़े आकार की एक टोकरी होती है. किसान इसका इस्तेमाल अपने गोवंश को चारा भूसा आदि डालकर खिलाने में करते हैं.
ओसमनिहा झउआ : यह भी बांस से बनी कम गहरी सूप नुमा टोकरी होती है. इसमें किसान अपनी कृषि उपज की गहाई या छंटाई के बाद दाने को भूसे से अलग करने के लिए करता है.
गोबरहा झउआ : यह मोटे बांस से बनी गहरी टोकरी होती है. इसमें पशुशाला, जिसे देसी भाषा में बाड़ा, कहते हैं, से गोबर भरकर गौठान तक भेजा जाता है. पशुपालन में छोटे बड़े आकार के गोबरहा झउआ का भरपूर इस्तेमाल होता है.
सूप या सूपा : बांस का बना यह पात्र हथेली की गहराई के बराबर होता है. बहुत ही वैज्ञानिक तकनीक से बना यह पात्र फसल की गहाई के बाद धान या गेहूं में कटाई के मामूली अवशेष के रूप में बचे कचरा को उड़ाकर उपज के दाने को अलग करने के काम आता है.
छन्नी टपरिया : यह डलिया के आकार का बांस का बर्तन होता है, इसमें भर कर अनाज की ढुलाई की जाती है. एक जमाने में इससे उपज की मात्रा का भी आकलन किया जाता था. साथ ही यह उपज के बटवारे एवं आदान प्रदान में भी काम आती है.
ढोलिया : बांस से बनी इस डलिया में बीज भर कर खेत में बुवाई की जाती है.
टुकनी : यह भी बांस से बनी एक निश्चित आकार की डलिया होतहै. इसमें अनाज को भर कर कुठली या डहरी आदि से निकाला जाता है.
ढेरइया : यह बांस से बनी छन्नी से थोड़े छोटे आकार की टोकरी होती है. मिट्टी और गोबर से इसे लीपा जाता है. इसका इस्तेमाल आटा रखने में किया जाता है.
बांसा : खोखले बांस से बना यह एक खास किस्म का कृषि यंत्र होता है. इसे हल में लगाकर बीजों की बुआई की जाती है। हल में इसे पाइप की तरह इस्तेमाल किया जाता है. यह हल को पुराने जमाने का सीडड्रिल बना देता है.
घोटा : पशुपालकों के लिए खोखले बांस से बना यह खास यंत्र है. पशुओ के बीमार होने पर इसमें दवा भर कर उन्हें पिलाई जाती है.
झांपी : बांस से इस सजावटी टोकरी का इस्तेमाल शादी ब्याह के मौके पर होता है. इसमें विवाह का सामान रख कर बारात में ले जाया जाता है. साथ ही विवाह में कन्या को विदाई के समय दिया जाने वाला सामान भर कर इसी पात्र में दिया जाता है.
झपलइया : पुराने जमाने मे जब छोटे सन्दूक का चलन नही था, तब गांव की महिलाएं इसी में अपनी सौंदर्य सामग्री सहेज कर रखती थीं. आज भी परम्परा के रूप में इसे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों में बेटियों को शादी के समय उपहार स्वरूप दिया जाता है.
दौरी : बांस की छोटी सी यह डलिया चावल धोने के काम आती है.
छिटबा : इससे गाँव के श्रमिक पसही धान या समई घास का दाना निकालते हैं और छिटबा में ही उसे खाते हैं.
बेलहरा : बांस का यह खूबसूरत पात्र, पान रखने के काम आता है.
बिजना : हाथ से चलने वाला पंखा, जो बांस से बना होता है. इसे रंगों से रंगकर सजाते भी हैं. यह आज भी गांव देहात में बिजली गुल होने पर गर्मी से निजात पाने के काम आता है.
कुड़वारा : गांवों में धूमधाम से मनाए जाने वाले पर्व हरछठ के दिन कुड़वारा में ही खाद्य सामग्री रख कर महिलाओं द्वारा पूजा की जाती है.
झलिया : यह सब्जी उगाने वाले किसानों द्वारा सब्जी रखने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली बांस की छोटे बड़े आकार की डलिया होती है.
झाला : यह बांस की बड़े आकर की डलिया होती है. इसका इस्तेमाल शादी सहित अन्य उत्सवों में भोज के लिए बनने वाली पूड़ी रखने के लिए किया जाता है.
छापा : यह बांस से बना एक खास किस्म का औजार है. इसका उपयोग मछली पकड़ने में किया जाता है.
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बांस शिल्पी की ही तरह मिट्टी के शिल्पकार को कुंभकार कहा जाता है. कुंभकार का अपभ्रंश ही कुम्हार है. गांव में कुम्हार के द्वारा तमाम वस्तुए मिट्टी से बनाई जाती हैं, जिनके बिना कृषि आश्रित ग्रामीण जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. मिट्टी शिल्पी कुम्भकार द्वारा बनाई जाने वाली वस्तुओं का विवरण इस प्रकार है.
हंड़िया : मिट्टी का एक ऐसा पात्र जो छोटे घड़े के समान होता है. इसका मुंह घड़े के मुंह से थोडा़ बड़ा हाेता है. इसका उपयोग प्राचीन समय से ही चावल आदि पकाने में होता था. यह अब ग्रामीण जीवन के प्रचलन से बाहर हो गया है.
तेलइया : इसका उपयोग दाल पकाने और छोंका लगाने के लिए होता था, यह भी चलन से बाहर हो गया है.
पइना : मिट्टी के इस पात्र में पानी को उबाल कर रखा जाता है, इसमें बीमार व्यक्ति के इस्तेमाल के लिए पानी को उबालकर रखा जाता था.
मरका : पुराने जमाने में मिट्टी के बड़े आकार के इस घड़े में बारात के लिए पानी रखा जाता था. अब इसे अनाज भर कर रखने के काम में लाया जाता है.
मरकी : इसमें गर्मी में पानी भरा जाता है. बाद में अनाज भरने के भी काम आता है.
डहरी : यह कुठिला का लघु संस्करण है, जिसे आग से पका दिया जाता है. यह भी अनाज रखने के काम आती है.
घड़ा : मिट्टी से बने मध्यम आकार के इस पात्र में 10 लीटर तक पानी समा जाता है. यह कुएं से घर का पानी भरने के काम आता है.
घइला : यह पानी भरने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला छोटे आकार का घड़ा है. यह एक व्यक्ति की एक बार में प्यास बुझाने में सक्षम होता है. इसे मिट्टी के लोटे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.
तरछी : यह मटकी के आकार की किन्तु मोटे आधार वाला पात्र होता है. इसका इस्तेमाल दही बिलोने के लिए होता है.
डबुला : मिट्टी का बना यह पात्र, गोवंश का दूध दुहने के लिए बनाया जाता था.
दोहनी : यह मठ्ठा रखने और दही जमाने के काम आती है. पहले इसमें दूध भी दुहा जाता था.
मेटिया : यह घी रखने के काम आने वाला मिट्टी का बर्तन होता है.
ताई : इसमें बर्तन धोने के लिए पानी भर कर रखा जाता था.
नाद : चौड़े आकार वाला मट्टी का यह बर्तन आज के समय का टब कहा जा सकता है. इसमें गाय बैलों को पानी पिलाया जाता था.
दपकी : यह खेत, जंगल या पहाड़ जाते समय पानी ले जाने के काम आती थी.
दीया : यह दीपावली के अवसर पर दीप जलाने या भगवान की पूजा करते समय आरती करने के काम आता है.
चुकडी : मिट्टी के इस पात्र मे हरछठ की पूजा सामग्री भरी जाती है.
कलसा : इसे किसान अपने मकान के मुडेर पर शुभ संकेत के रूप में स्थापित करते हैं.
तेलहड़ा : तेल की पेराई करने वाले तेली समाज के लोग मिट्टी के इस पात्र को तेल रखने के काम में इस्तेमाल करते थे.
डबलुइया : यह घर में घी और तेल रखने के काम आने वाला मिट्टी के छोटे लोटा के आकर का हाता है. मट्ठा से निकला मक्खन भी डबलुइया में रखा जाता था.
करबा : यह पूजा के काम आने वाला मिट्टी का पात्र है. इसमें प्रसाद या पुष्प आदि रखते हैं.
नगड़िया की कूड़ : खास तौर से डिजाइन किए मिट्टी के इस पात्र में चमड़ा मढ़ा जाता है.
चिलम : यह तम्बाकू पीने के लिए बनती है. यूपी, एमपी और हरियाणा सहित अन्य राज्यों में चिलम में तंबाकू रखकर हुक्का पीने के लिए इसे इस्तेमाल किया जाता है.
हुक्का : यह भी तम्बाकू पीने के लिए बनता है, लेकिन इसका आकार चिलम से कुछ मोटा होता है. यह मिट्टी के अलावा लकड़ी और पीतल से भी बनता था.
इसके अतिरिक्त गुल्लक और बच्चों के खिलौने आदि भी मिट्टी से कुम्हार ही बनाते थे.
ग्राम संस्कृति में प्रकृति प्रदत्त हर वस्तु का यथासंभव सीमा तक उपयोग करने का मूल मंत्र समाहित है. इसमें पालतू पशुओं के मृत होने पर उनके शरीर से निकले चमड़े का इस्तेमाल पैरों की सुरक्षा करने के लिए जूते चप्पल बनाने से लेकर ठंडे इलाकों में शरीर को गर्म रखने वाले कपड़े बनाने तक में किया जाता है.
चमड़े को आकार देने का हुनर रखने वालाें को चर्मशिल्पी कहा गया. चर्मशिल्पी या चर्मकार, किसानों के मृत पशुओ के चमड़े काे आकार देने योग्य बनाने के लिए पहले उसका फिटकिरी आदि रसायनों से शोधन कर सख्त बनाते थे. इसके बाद उसकी चर्म सामग्री बनाकर किसानों को देते थे. गांवों में अब यह काम पूरी तरह से समाप्त हो गया है. इस कारण से चर्मशिल्पियों को मजदूरी करने के लिए गांव से शहर पालयन करना पड़ा है उनके द्वारा बनाई जाने वाली मुख्य वस्तुएंं इस प्रकार थी.
चमड़े के पट्टे: गाय बैलों के गले और पैरों में बांधने के काम आने वाली घंटी और घुघरू को चमड़े के एक बैल्ट में कसा जाता था. यह पट्टा गोवंश के श्रंगार में भी काम आता था.
जोतावर : हल एवं बैल गाड़ी के जुएं में बैल को जोतने के लिए चमड़े के पट्टे का इस्तेमाल होता था. यह बैल के नथने से गर्दन को जोड़ते हुए जुएं में उसे जोतने के काम आता था. जोतावर के बिना हल या गाड़ी में बैल को जोतने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है.
ढोलिया पट्टी : यह चमड़े की एक पतली पट्टी होती है. किसान इसका इस्तेमाल बीज बोने वाली ढोलिया को अपने गले में लटकाने के लिए करता था.
खेती से जुड़े लोहार की धौकनी को पकड़ने में भी चमड़े के पट्टे का इस्तेमाल होता था.
धार तेज करने का पट्टा : नाई जब किसानों के बाल काटता था या हजामत करता था, तब वह उस्तरा की धार तेज करने में सख्त चमड़े की एक पट्टिका पर उस्तरा को कई बार घिसता था.
चमड़े से जूता चप्पल बनाने के अलावा चर्मशिल्पी चमड़े की मसक, बैल या घोड़ा हांकने का चाबुक, बछड़ों के गले मे बांधी जाने वाली चमौधी या ताबीज भी बनाते थे.
खेती किसानी में इस्तेमाल होने वाले यंत्रों में लोहे और लकड़ी से बने यंत्र सबसे ज्यादा हैं. लोहे के यंत्र बनाने का काम लौह शिल्पी करते हैं. इन्हें गांव की देसी भाषा में लोहार भी कहा जाता है. लोहे को आकार देने के हुनर से लैस समुदाय को ग्राम संस्कृति में विश्वकर्मा भी कहा गया है. इससे ग्राम व्यवस्था में इनके महत्व को समझा जा सकता है. इनके द्वारा किसानों के लिए बनाए जाने वाले मुख्य यंत्रों में ये सब शुमार हैं.
हँसिया : यह फसल की कटाई के काम आने वाला अर्धचंद्राकार यंत्र है. यह आज भी इस्तेमाल हो रहा धारदार यंत्र है जिसकी मदद से घर में भाजी, तरकारी आदि भी काटी जाती है.
खुरपी : पेड़ पौधों एवं फसलों को खरपतवार से मुक्त करने के लिए इससे निराई की जाती है. इसका बागवानी में ज्यादा इस्तेमाल होता है.
कुदाल : इससे जमीन की खुदाई की जाती है. साथ ही पौधे लगाने के लिए इसकी मदद से नालियां या क्यारियां भी बनाई जाती हैं.
फावड़ा : खुदाई करने का यह भी एक अहम औजार है. इससे खेत की मेंड़ एवं गड्ढे आदि की खुदाई की जाती है. यह सिंचाई के दौरान भी खेत में पानी को दिशा देने के लिए मिट्टी को काटने के काम में आता है.
सबरी : इससे गोल और एक हाथ का गड्ढा खोद कर पेड़ पौधे लगाए जा सकते हैं. साथ ही जानवरो के बांधने के लिए इससे खूटे भी गाड़े जाते हैं.
सब्बल : इससे कुंए के पत्थर को काट कर गहरा किया जाता है. साथ गड्ढा करने में भी यह काम आता है.
कुल्हाड़ी : इससे खेत की झाड़ियां एवं लकड़ी आदि काटी जाती है.
कुल्हाड़ा : यह कुल्हाड़ी से बड़े आकार का यंत्र है. इससे मोटे पेड़ एवं सूखी सख्त लकड़ी काटी जाती है.
सांकल कुंडा : इसे दरवाजे और चौकठ में लगाया जाता है. जिससे दरवाजे को बंद करने एवं ताला लगाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है.
ताला, चाभी : इसे दरवाजा बन्द कर घर की सुरक्षा के लिए लगाया जाता है.
बसूला : यह हल हरिस आदि के मरम्मत के काम मे लाया जाता है. इसे बढ़ई भी इस्तेमाल करते हैं.
रोखना : इसे लकड़ी में छेद करने के लिए रखा जाता है. इसे भी बढ़ई रखते हैं.
डोल : यह पुराने समय में पानी भरने के लिए इस्तेमाल होने वाली लौह की बाल्टी है, जो अब प्रचलन से बाहर हो गई है.
हल की कुसिया : यह एक लौहे की पट्टी है, जो हल के फलक में लगाई जाती है. जिससे खेत की जुताई करते समय सख्त मिट्टी को खोदने में होता है.
कील : लौहे की कील हल में लगने वाली कुसिया में बने छेद सहित लकड़ी के फलक में ठोकी जाती है. छोटे बड़े आकार की लौह कीलें लकड़ी के औजारों को उनका व्यवस्थित आकार देने में काम आती है.
कांटा : यह लोहे के टेढ़े अंकुशों का गुच्छा होता है, जो कुए में गिरी बाल्टी और डोल आदि निकालने के काम आता है.
करछुली : रसोई में भोजन पकाने के काम में इस्तेमाल होने वाले औजारों को भी लोहार ही बनाते हैं. इनमें करछुली सब्जी पकाने में सहायक होती है.
चिमटा : यह चूल्हे पर रोटी पकाने के काम आता है. चूल्हे की जगह रसोई गैस ने भले ही ले ली हो, लेकिन रोटी पकाने में चिमटे की जगह कोई अन्य औजार नहीं ले सका है.
कड़ाही : यह दाल, सब्जी और कढ़ी आदि बनाने के लिए इस्तेमाल होती है. इसका उपयोग गांव और शहर की रसोई में आज भी होता है.
झरिया : कड़ाही में तेल से पूड़ी दि तलने के लिए झरिया का इस्तेमाल होता है.
छन्ना : यह झरिया से बड़े आकार का होता है. इससे महुआ एवं आटे से बनने वाले पकवान फरा को बनाया जाता है.
तबा : यह चूल्हे पर रोटी पकाने के काम आता है.
पासुल : यह सब्जी काटने के काम आती है.
अमचीरा : यह बड़े सरौते के आकार का औजार होता है, जिसमे नीचे लकड़ी लगी रहती है. यह अचार बनाने के लिए कच्चे आम काटने के काम आता है.
सरौता : यह सुपाड़ी काटने के काम आता है.
बड़ा सरौता : यह बारात आदि उत्सवों के दौरान अधिक मात्रा में सुपाड़ी काटने के काम आता है.
गड़ास : इससे जानवरों के खाने के लिए ज्वार की करबी या बरसीम आदि हरी घास की कुट्टी काटी जाती है.
गड़ासा : गड़ास की तरह ही बनाकर यह लाठी में गड़ा दिया जाता है. इसका इस्तेमाल सुरक्षा उपकरण के रूप में किया जाता है.
बरछी, भाला : यह भी आत्मरक्षा के काम में आने वाले शस्त्र है. इन्हें गांव के लोग अक्सर जंगली जानवरों से रक्षा करने या शिकार करने में प्रयोग करते हैं.
तलवार : यह भी सुरक्षा की दृष्टि से घर मे रखी जाती थी. आदि काल से युद्ध में भी सेना द्वारा इसका इस्तेमाल होता रहा है.
खुरपा : यह खुरपी से चौड़े आकार का होता है, जिससे जमीन को छोल कर खलिहान बनाया जाता है.
बल्लम : यह लम्बे लौह की सरिया से बनती है जो आत्म रक्षा के काम आती थी. यह सांप आदि जहरीले जीवों के शरीर को छेद कर मारने के काम आती थी.
पलउहा हँसिया : यह कटीली झाड़ियां काटने के काम आता है.
आरी : यह लकड़ी चीरने के काम आती है.
आरा : इसे बढ़ई मोटी लकड़ी चीरने के काम में लाते हैं.
कजरउटा : यह पतले लोहे की छोटी सी डिब्बी होती है. इसमें बच्चों की आखों को साफ रखने के लिए घरों में बनाया जाने वाला काजल रखा जाता है.
रांपी : इसे चर्म शिल्पी चमड़ा काटने के काम मे लाते हैं.
फरहा : इसमें चर्मकार मवेशियों का चमड़ा निकालते थे.
कैंची : इंसानों और भेड़ों के बाल काटने के काम आने वाली छोटे बड़े आकार की कैची को बेहद हुनरमंद लोहार ही बना पाते थे.
इसके अतिरिक्त भी लौह शिल्पी अपने उपयोग के लिए छेनी, हथौड़ा ,संसी, घन ,रेती आदि बनाते थे. वहीं, बढ़ई के औजारों में रोखना ,बसूला, रमदा ,गिरमिट ,कुल्हाड़ा, आरा, आरी आदि उपकरण,चर्म शिल्पी के लिए रांपी, फरहा एवं तेली के लिए परी आदि उपकरण भी लुहार ही बनाते थे. इनमें से तमाम औजार अब प्रचलन से बाहर हो गए हैं.
लकड़ी के उपकरण बनाने का हुनर रखने वाले काष्ठ शिल्पी या बढ़ई कहलाते हैं. बढ़ई अपने लौह उपकरणों से किसानों के लिए बहुत सारी चीजें बनाते हैं. जिनमे कुछ तो अभी भी उपयोगी हैं, लेकिन अब कुछ चलन से बाहर भी हो गए हैं.
इनमें हल, जुआ, बैलगाड़ी, नाडी,
खेती और ग्रामीण जीवन में काम आने वाले औजार बनाने से जुड़े समुदायों के अलावा, ग्राम संस्कृति में कुछ समुदाय ऐसे भी हैं, जो कृषि उपजों का प्रसंस्करण कर जरूरी उपभोक्ता वस्तुएं बनाते थे. इन समुदायों को भी उनके काम के आधार पर खास पहचान दी गई. इनमें मुख्य समुदाय इस प्रकार हैं.
तिलहनी फसलों से विभिन्न प्रकार के तेल निकाले का काम तेइली समुदाय के लोग करते थे. यह समुदाय कई प्रकार के तेल कोल्हू से निकाल कर इसकी आपूर्ति करता था. सरसों, तिल, मूंगफली आदि के तेल का प्रयोग शरीर में लगाने से लेकर भोजन बनाने एवं औषधीय इस्तेमाल में होता था. विद्युत ऊर्जा का इस्तेमाल शुरू होने से पहले तक रात के समय तेल से घर का अंधियारा भी मिटाया जाता था. हमारे किसानों द्वारा उपजाई गई तिलहनी फसलों में राई एवं सरसों केेअलावा, तिल, अलसी, महुए की गुली, नीम, अम्बारी और अरण्डी का तेल निकालने का काम तेइली समुदाय ही करता था.
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इसके अलावा पशुपालन करने से लेकर कताई, बुनाई करने जैसे तमाम तरह के ऐसे काम करने वाले समुदाय भी हमारे विमर्श के केंद्र में हैं. ये समुदाय ग्राम व्यवस्था में जीने वालों की जीवन शैली को पूर्ण बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं.
पशुपालन करने वाले समुदायों की अगर बात की जाए तो गोवंश का पालन कर समाज को दूध की पूर्ति करने वाले ग्वाल समुदाय की संख्या सर्वाधिक है. देश के सभी इलाकों में ग्रामीण जीवन शैली के लिए ग्वाल समुदाय सर्वत्र व्याप्त है. इस समुदाय का महाभारत कालीन ग्रंथों में भी जिक्र है.
गड़रिया
इसके बाद भेड़ बकरी काे पालने वाले समुदाय गड़रिया कहलाता है. यह समुदाय अनाज के बदले में किसानों को भेड़ बकरी का दूध और भेड़ के ऊन से बने गर्म कपड़े एवं कम्बल भी बनाकर देता है.
बारी समुदाय
इस समुदाय के लोग कमल और पलाश आदि के पत्तों से दोना पत्तल बनाने का काम करते हैं. गांव में किसानों को विवाह या यज्ञ भंडारे आदि आयोजनों में सामूहिक भोज के लिए बारी समुदाय के लोग ही दोना पत्तन की आपूर्ति करता था.
बुनकर समुदाय
यह समुदाय किसानों के खेतों में उगाए गए कपास से सूत निकालता है. फिर उसे करघे में बुनकर दरी, कथरी जैसे ओढ़ने बिछाने के कपड़ों की आपूर्ति करता. बुनकर समाज का सबसेसबसे ज्यादा नुकसान ब्रिटिश राज में हुआ, जब कपड़ों की मिलें लगाई गई तब इस समुदाय का धंधा छिन गया था. हालांकि आजादी के बाद की सरकारों ने हथकरघा क्षेत्र को कुटीर उद्योग की श्रेणी में रखकर विकसित करने के लिए बुनकर समाज को काफी सपोर्ट किया.
कछवाहा समुदाय
इस समुदाय की पहचान कुशवाहा के तौर पर भी है. इस समुदाय के लोग अपने छोटे से बाड़े में कई तरह की सब्जियां उगाते है. गांव में सब्जी की आपूर्ति करने के बदले किसान इन्हें अनाज देते थे. आज भी यह समुदाय गांवों में किसानों को ताजी सब्जी देने का काम करता है.
पत्थर शिल्पी
इस समुदाय के लोग किसानों के लिए पत्थर के बर्तन, आटा पीसने की चकिया, नमक मसाले पीसने के लिए सिलबट्टा, लुढि़या और भवन निर्माण में पत्थर से बने आधार स्तंभों को बनाते थे. इसके अलावा इस समुदाय के लोग हर 6 माह में पिसाई के काम आने वाले चकिया, सिलबट्टा और लुढि़या की टंकाई का काम भी करते थे.
राजस्थान के अलावा यूपी एपी के बुंदेलखंड इलाके और अन्य पहाड़ी क्षेत्रों में इस समुदाय के लाेग बहुतायत में मिलते थे. ये घुमंतू समाज था, इसलिए मैंदानी इलाकों में जाकर पत्थर के औजार बनाने और टंकाई का काम भी करते थे. इनके द्वारा बनाई जाने वाली पत्थर की जरूरी वस्तुओं में चकिया, लुढ़िया, सिलबट्टा के अलावा कांडी, जेतबा, कूंडा, कुड़िया, पथरी, लोढ़बा, खनल, होड़सा और घिनोची शामिल थी. चकिया, खल और सिलबट्टा को छोड़कर अन्य वस्तुएं अब विलुप्त हो चुकी हैं.
इसके अलावा गांव के कास्तकार किसान खाली समय में खुद भी बहुत सी वस्तुएं बनाते थे. इनमें सन अम्बारी से मुस्का, गोफना, खरिया, रस्सी, गेरमा, तरसा का मोटा रस्सा आदि गर्मी के मौसम में उस समय बनाया जाता था जब रबी की फसलें कट जाती थी और खरीफ सीजन का इंतजार रहता था. सभी किसान अपने बैलों के पूछ के बालों को काट कर उनकी कताई करके गोवंश की गर्दन में पहनाई जाने वाली पतली रस्सी बनाते थे. वे गायों के लिए गड़ाइन एवं बैलों के गले व मुंह मे बांधने के लिए सींगोंटी भी बनाते थे.
नाई
ग्राम संस्कृति के श्रम जीवी समुदायों में नाई प्रमुख था. यह अनाज की एक निर्धारित मात्रा लेकर साल भर किसानों की हजामत कर उनके बाल काटता था. इसके अलावा शादी ब्याह तय कराने, शादी, जन्मोत्सव और मृत्यु तक की तमाम रस्में पूरी कराने में नाई समुदाय की अपरिहार्य भूमिका तय थी. परंपराओं के रूप में यह काम आज भी नाई समुदाय ही करता है.
धोबी
यह समुदाय के लोग अनाज के बदले दीपावली, होली एवं सोबर सूतक में किसानों के पूरे परिवार के ओढ़ने बिछाने तक के पूरे कपड़े धोते थे.
कहार
इस समुदाय के लोग यज्ञ एवं विवाह आदि आयोजनों के समय सभी गांव वालों के यहां पानी की आपूर्ति करते थे.
इनके अतिरिक्त हलवाहे (बड़े किसानों के हल चलाने वाले) और चरवाहे (पशु चराने वाले) सहित कुछ कृषि श्रमजीवी समाज भी गांव व्यवस्था के हिस्सा थे. इन्हें कास्तकारों से निर्धारित मात्रा में अनाज मिलता था. इतना ही गांव में धार्मिक अनुष्ठठान करने के लिए कुल पुरोहित के अलावा मनोरंजन करने वाले भुयार, भाट, नट, जोगी और मंगन आदि घुमंतू समुदायों का भी खेती में अंश माना जाता था. इन्हें दान के रूप में अनाज दिया जाता था.
आखिर में गांव के चौकीदार जिक्र किए बिना गांव का समाज विन्यास अधूरा ही रहेगा. चौकीदारी नाम का यह व्यक्ति राजा तक और अब आज के दौर की सरकारों तक गांव की गुप्त सूचनाएं पहुंचाता रहा है. ऐसा माना जाता है कि ग्राम संस्कृति में चौकीदार का काेई स्थान नहीं था. ग्राम समाज के साथ राजा और प्रजा की व्यवस्था मजबूत होने पर राजाओं ने अपने क्षेत्राधिकार वाले गांवों में चौकीदार तैनात करने की परिपाटी शुरु की. यह आज भी जारी है. हर गांव में एक चौकीदार होता है. वह अपने गांव के थाने की पुलिस को सभी सूचनाएं पहुंचाता है.