Explainer: रोता किसान, मुस्कुराते आंकड़े, 'खेती में कुछ नहीं रखा', एक आधा सच या पूरी हकीकत?

Explainer: रोता किसान, मुस्कुराते आंकड़े, 'खेती में कुछ नहीं रखा', एक आधा सच या पूरी हकीकत?

भारतीय कृषि में एक गहरा विरोधाभास दिखता है. एक तरफ किसान परेशान है, तो दूसरी तरफ कृषि उत्पादन के आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं. "खेती में कुछ नहीं रखा" वाली बात एक आधा सच है. पूरी हकीकत यह है कि तमाम आर्थिक मुश्किलों और व्यवस्था से नाराज़गी के बावजूद किसान ने हार नहीं मानी है. इसका सबसे बड़ा कारण सिर्फ पैसा नहीं, बल्कि किसान का अपनी मिट्टी से गहरा भावनात्मक जुड़ाव और उसका कभी न टूटने वाला हौसला है. किसान भले ही हताश और परेशान हो, लेकिन इसी जज़्बे के दम पर वह हर चुनौती का सामना करता है और देश के लिए अनाज उगाता रहता है. यही भारतीय कृषि की असली ताकत है.

farmer problemfarmer problem
जेपी स‍िंह
  • नई दिल्ली,
  • Oct 12, 2025,
  • Updated Oct 12, 2025, 1:29 PM IST

अक्सर एक बात गूंजती है - "खेती-बाड़ी में अब कुछ नहीं रखा, इससे अच्छा तो पान की दुकान खोल लो." यह लाइन जितनी सुनने में सरल लगती है, उतनी ही गहरी हमारी कृषि व्यवस्था की जटिल सच्चाई को बयां करती है. जो लोग यह कहते हैं, उनकी दलीलें भी खोखली नहीं हैं. वे खेतों में मज़दूरों की कमी, बीज-खाद, डीज़ल जैसे कृषि आदानों की आसमान छूती कीमतों, उपज का सही दाम न मिलने और हर साल बढ़ती मौसम की मार का रोना रोते हैं. ये सारी बातें अपनी जगह पर सोलह आने सच हैं. लेकिन इस निराशाजनक तस्वीर के बीच एक सवाल खड़ा होता है. अगर खेती सचमुच इतने घाटे का सौदा है, तो फिर हमारा देश हर साल अनाज, फल, सब्ज़ियों और दूध उत्पादन के नए रिकॉर्ड कैसे बना रहा है? पिछले एक दशक के आंकड़े बताते हैं कि भारत के कृषि उत्पादन में 40 फीसदी से अधिक की शानदार वृद्धि हुई है.

जहां 2013-14 में कुल खाद्यान्न उत्पादन लगभग 265 मिलियन टन था, वहीं 2024-25 में यह बढ़कर 347.4 मिलियन टन तक पहुंचने का अनुमान है. इसी तरह, बागवानी उत्पादन भी 2013-14 के 280.70 मिलियन टन से बढ़कर 2024-25 में 367.72 मिलियन टन हो गया है. साल 2014-15 में भारत का कृषि निर्यात 38.71 बिलियन अमेरिकी डॉलर था. ताजा आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2024-25 तक भारत का कृषि निर्यात बढ़कर 51.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया. यह भी साबित करता है कि कृषि क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती देने में एक अहम भूमिका निभा रहा है. आखिर ये कौन लोग हैं, जो तमाम मुश्किलों के बावजूद इस विकास के पहिये को लगातार घुमा रहे हैं?

किसान परेशान, तो खेत क्यों हैं लहलहाते?

खेती को लेकर विशेषज्ञों की राय अलग-अलग है. लेकिन सभी एक आधुनिक दृष्टिकोण पर सहमत दिखते हैं. डॉ एचएस सिंह प्रधान, कृषि वैज्ञानिक सीआईएसएच - लखनऊ, का कहना है कि जब हम गांवों की ओर रुख करते हैं, तो एक अलग ही नजारा देखने को मिलता है. शायद ही कोई खेत किसी भी मौसम में खाली पड़ा हो. रबी, खरीफ और ज़ायद, तीनों ही सीजन में धरती किसी न किसी फसल की हरी चादर ओढ़े रहती है. न तो खेत वीरान हैं और न ही किसान अपनी जमीनें बेचकर भाग रहे हैं. इसके विपरीत, अगर कहीं ज़मीन का कोई टुकड़ा बिकने के लिए उपलब्ध हो, तो खरीदारों की लंबी कतार लग जाती है. जमीन की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं. यह स्थिति बताती है कि भले ही खेती की राह कांटों भरी हो गई है, लेकिन ज़मीन का आकर्षण और उसकी उपयोगिता आज भी बरकरार है. कृषि विशेषज्ञ हरि हर राम मानते हैं कि खेती कई लोगों के लिए एक मजबूरी का काम है. जो लोग इसमें हैं, वे नुकसान से बचने के लिए इसे ठीक से करते हैं. मशीनीकरण ने खेती को आसान बनाया है और ज़मीन की बढ़ती कीमतें इसे एक सुरक्षित निवेश बनाती हैं. 

जहां एक फसल की कमाई दूसरी में लग जाती है. वहीं, इंद्र भूषण मौर्य और बैजनाथ सिंह जैसे विशेषज्ञ इस बात को सिरे से खारिज करते हैं कि खेती फायदेमंद नहीं है. मौर्य कहते हैं कि समस्या यह है कि जिनके पास ज़मीन है, वे पुरानी तकनीक से चिपके हुए हैं, मौर्य कहते हैं कि आधुनिक तकनीक से एक किसान सालाना 90 लाख तक कमा रहा है. बैजनाथ सिंह, जो पहले वैज्ञानिक थे और अब किसान हैं, खेती को सबसे फायदेमंद व्यवसाय और सबसे अच्छी 'एफडी' मानते हैं. उनका अनुभव है कि आधुनिक तरीकों से खेती करने में जो आत्मसंतुष्टि और समाज सेवा का भाव है, वह कहीं और नहीं मिल सकता. तो फिर सच्चाई क्या है? क्या "खेती में कुछ नहीं है" कहना सिर्फ कुछ निराश लोगों की सोच है, या यह उस आर्थिक असमानता की आवाज़ है, जिसमें मेहनतकश किसान अपनी मेहनत का सही मूल्य पाने के लिए संघर्ष कर रहा है?

खेती क्यों और किसके लिए जारी है?

इस पहेली को समझने के लिए हमें थोड़ा गहराई में उतरना होगा. आज खेती कई अलग-अलग वजहों से चल रही है: एक बड़ी सच्चाई यह है कि ग्रामीण भारत में बेरोज़गारी बहुत ज़्यादा है. करोड़ों लोगों के पास खेती के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. भले ही खेती से बहुत ज़्यादा मुनाफा न हो, लेकिन यह परिवार को साल भर का अनाज और सिर छिपाने के लिए छत दे देती है. यह एक मजबूरी का पेशा बन गया है, जो लोगों को भूखे मरने से बचाता है. खेती करने वालों का स्वरूप भी बदल रहा है. आज बहुत से ऐसे लोग खेती कर रहे हैं, जिनके पास पहले ज़मीन नहीं थी या बहुत कम थी. ये छोटे किसान या पूर्व भूमिहीन मज़दूर, जो पहले दूसरों के खेतों में काम करते थे, अब ठेके या बटाई पर ज़मीन लेकर खेती कर रहे हैं. वे बाहरी मज़दूरों पर निर्भर रहने के बजाय अपने परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर काम करते हैं, जिससे उनकी लागत कम हो जाती है और वे किसी तरह अपना गुज़ारा कर पाते हैं.

एक और बड़ा बदलाव आया है "मिश्रित आय मॉडल" का. आज कई किसान परिवारों में यह व्यवस्था आम है. परिवार के एक या दो सदस्य शहर जाकर नौकरी या मजदूरी करते हैं और वहां से पैसा घर भेजते हैं. इस पैसे से खेती की लागत निकलती है और घर का खर्च चलता है. गांव में बचे हुए सदस्य अक्सर महिलाएं और बुजुर्ग खेत संभालते हैं. इस तरह, न तो खेती छूटती है और न ही परिवार की गाड़ी रुकती है. शहर की कमाई खेती के घाटे को सहारा देती है.

किसान हारा नहीं, उसका जज़्बा ज़िंदा है

इन सभी तर्कों से ऊपर एक और सच्चाई है - किसान का अपनी मिट्टी से जुड़ाव और उसका कभी न टूटने वाला हौसला. किसान परेशान है, हताश है, व्यवस्था से नाराज़ भी है, पर उसने हार नहीं मानी है. उसके लिए ज़मीन सिर्फ आय का स्रोत नहीं, बल्कि उसकी पहचान और विरासत है. यह वही जज़्बा है जो उसे हर सुबह उठाता है और खेत में काम करने की ताकत देता है. तमाम मुश्किलों और घाटों के बावजूद, अगर आज हमारे खेत हरे-भरे हैं, तो इसका श्रेय किसान के इसी जज़्बे को जाता है. यही वो ताकत है जो हर साल उत्पादन के नए कीर्तिमान स्थापित करती है और 140 करोड़ देशवासियों की थाली को भरती है. इसलिए "खेती में कुछ नहीं रखा" एक अधूरा सच है. यह किसान के दर्द, उसकी पीड़ा और मुनाफे के लिए उसके संघर्ष को दर्शाता है. लेकिन यह पूरी तस्वीर नहीं है. पूरी तस्वीर यह है कि खेती मजबूरी, पारिवारिक श्रम, मिली-जुली आय और किसान के अटूट हौसले के दम पर चल रही है. खेत इसलिए हरे हैं क्योंकि किसान का जज़्बा आज भी ज़िंदा है.

ये भी पढ़ें-

MORE NEWS

Read more!