जापान एशिया का ऐसा देश है जिसका गौरवशाली इतिहास है, तो विकसित और समृद्ध वर्तमान भी. हालांकि यह देश भौगोलिक कारणों से बहुत संवेदनशील और असुरक्षित है, लेकिन इसने अपने भूगोल के अनुसार ही विज्ञान का इस्तेमाल करके समृद्धि के नए आयाम हासिल किए हैं. कृषि की बात करें तो जापान में खेती लायक ज़मीन बहुत कम है, केवल 20 फीसदी ज़मीन पर ही खेती की जा सकती है. हमारे देश की तरह ही वहां खेती को ‘पारिवारिक काम’ माना जाता है. विषम परिस्थितियों और अत्यधिक श्रम के कारण बहुत से लोग यहां कृषि को छोड़ रहे हैं या कृषि के साथ-साथ कोई और काम भी कर रहे हैं. 2019 में जापान की सरकार एक नयी नीति लाई जिसके तहत किसानों के लिए हालात सुधारने की कोशिश की गई, लेकिन यह नीति भी पूरी तरह से लागू नहीं हो पाई है.
फिर भी, यह कहा जा सकता है कि जापान में किसानों की हालत भारत की बनिस्पत कहीं बेहतर और व्यवस्थित है. लेकिन इतिहास में कई ऐसे मौके आए जब जापान में भी किसानों को अपने हक ही नहीं बल्कि अपने अस्तित्व के लिए भी संघर्ष करना पड़ा. ऐसे ही एक समय की बात करती है, दुनिया की सबसे अच्छी फिल्मों में से एक- सेवन सामुराई.
सौ साल से भी पुरानी जापान की फिल्म इंडस्ट्री दुनिया की चौथी सबसे बड़ी इंडस्ट्री है. यह दुनिया भर में अपनी जिडाएगेकी (इतिहास पर आधारित) और साइन्स फ़िकशन फिल्म्स के लिए जाना जाता है. 1950 का दशक जापानी फिल्मों के इतिहास में स्वर्णिम युग माना जाता है, जब सिनेमा के युगपुरुष कहे जाने वाले अकीरा कुरोसावा और ईशिरो होंडा जैसे निर्देशक दुनिया के सिनेजगत में अपनी धाक जमा रहे थे.
यही वक्त था जब निर्देशक अकीरा कुरोसावा ने सामुराई पर फिल्म बनाने के बारे में सोचा. जापान के सामुराई यानी रोनिन ऐसे परंपरागत योद्धा थे, जो युद्ध कला में माहिर माने जाते थे, और उनके कुछ निश्चित मूल्य और आदर्श थे जिनका वे कठोरता से पालन करते थे. रोनिन और सामुराई में इतना ही फर्क था कि सामुराई एक निश्चित राजा या जमींदार के लिए काम करते थे, जबकि रोनिन के कोई निश्चित मालिक नहीं होते थे.
समुराई के बारे में शोध करते हुए अकीरा कुरोसावा और प्रोड्यूसर सोजिरो मोतोकी को यह कहानी सूझी. सिर्फ लड़ाकुओं के बारे में फिल्म बनाना कोई चुनौतीपूर्ण काम नहीं था. इसलिए कुरोसावा ने ‘सेवन सामुराई’ की पृष्ठभूमि में रखा 16वीं सदी का जापान, जब इस देश में अव्यवस्था और अराजकता का माहौल था और कोई ऐसा कुशल राजा या शासक नहीं था जो पूरे देश को एक डोर में बांध सके.
कहानी है एक गांव की, जहां के किसान इस बात से परेशान और चिंतित हैं कि अपने परिवारों, स्त्रियों और धान की फसलों को हिंसक लुटेरों के हमले से कैसे बचाएं. गांव के बुजुर्ग सलाह देते हैं कि लोगों को अपनी सुरक्षा के लिए कुछ लड़ाकुओं को किराए पर ले लेना चाहिए. इसलिए गांव के पंच सात ऐसे योद्धाओं को चुनते हैं, जिनका कोई परिवार-मालिक नहीं, लेकिन वे ज़बरदस्त लड़ाकू हैं. इन सातों की अपनी-अपनी खासियत है. पहले तो गांव वाले डरते हैं क्योंकि इन लड़ाकुओं के बारे में भी लोगों की अच्छी राय नहीं. लेकिन धीरे-धीरे वे इनसे दोस्ती कर लेते हैं. इन सातों योद्धाओं के बीच भी नोकझोंक होती है, लेकिन बाद में ये सब अच्छे दोस्त बन जाते हैं.
इनकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि ये परंपरागत हथियारों से लड़ते हैं जबकि डाकू बंदूकों से लैस हैं. गांव वालों को इन डाकुओं का सामना करने के लिए तैयार करना भी एक चुनौती है. बहरहाल, ये लड़ाकू गांव वालों को लड़ना सिखाते हैं, लड़ने से ज़्यादा वे गांव को बचाने की रणनीति के लिए किसानों को तैयार करते हैं. और जब लुटेरे धावा बोलते हैं तो इन सात सामुराई के साथ किसान बहादुरी से उनका सामना करते हैं और लुटेरों को हराने में कामयाब हो जाते हैं.
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ये सरल सी कहानी विविध स्तरों पर बहुत कुछ कहती है. निर्देशक कुरोसावा, अमेरिकी निर्देशक जॉन फोर्ड की वेस्टर्न फिल्मों से प्रभावित थे, जिसका असर इस फिल्म पर भी दिखता है. लेकिन दिलचस्प बात ये है कि ‘सेवन सामुराई’ के बाद आने वाली लगभग सभी वेस्टर्न फिल्में इसी फिल्म से प्रभावित दिखती हैं. दुनिया भर की भाषाओं में बनी फिल्मों ने ‘सेवन सामुराई’ से प्रेरणा ली है. हिन्दी फिल्म ‘शोले’ भी इस फिल्म के आइडिया से प्रभावित थी.
यह कहानी सिर्फ किसानों के संघर्षशील जज़्बे को जगाने की ही कहानी नहीं है, बल्कि जो योद्धा हैं, उनमें नैतिकता, मनुष्यता और सहानुभूति की अलख जगाने की भी बात करती है. क्योंकि बगैर किसी इंसानी उद्देश्य के हिंसा का आश्रय लेना बेज़रूरी है. किसानों के भय को मिटाने के लिए एक सामुराई उन्हे समझाता है – “लड़ाई के दौरान प्रतिद्वंद्वी से डरो मत, क्योंकि याद रखो, वह भी तुमसे डरता है!”
इसी तरह, बहादुरी या हिंसा का प्रयोग भी तभी नैतिक है और मनुष्यता के लिए ज़रूरी है, जब वह एक समूह को बचाने के लिए हो – “दूसरों की हिफाज़त करके ही तुम खुद को बचा सकते हो! अगर तुम सिर्फ खुद को बचाने के लिए लड़ोगे, तो तुम खुद को नष्ट कर दोगे!”
इस अर्थ में, यह फिल्म एक वृहत्तर कल्याण और शांति के लिए व्यक्तिगत बलिदान के शाश्वत संदेश को भी इंगित करती है, हालांकि कुछ फिल्म आलोचकों ने इसे वामपंथी विचारधारा से भी जोड़ा. फिल्म के अंत में ऐसा लगता है मानो प्रकृति भी किसानों के पक्ष में आ खड़ी हुई हो. बारिश, और कीचड़ में लुटेरों से जूझते किसान मानो खुद ज़मीन का ही हिस्सा लगते हैं.
यह फिल्म जापान के इतिहास के एक निश्चित दौर का सटीक चित्रण करने के लिए भी जानी जाती है. भाषा, परिधान, लोकेशन वगैरह की सत्यता को लेकर कुरोसावा बहुत सूक्ष्म शोध करते थे.
पूरी फिल्म को टोक्यो के पास सेटागाया नाम की छोटी सी जगह पर शूट किया गया था. कुरोसावा एक बहुत ही सख्त किस्म के निर्देशक थे. एक साल तक वे फिल्म को शूट करते रहे. बजट बढ़ा, अभिनेताओं, क्रू के सदस्यों से झड़पें हुईं, लेकिन कुरोसावा शूट करते रहे. फिल्म का बजट था पाँच लाख डॉलर्ज़. यह उस वक्त की सबसे महंगी जापानी फिल्म थी. यही नहीं- फिल्म की अवधि थी- साढ़े तीन घंटे! यह दुनिया की अब तक की सबसे लंबी फीचर फिल्म है.
फिल्म के प्रोड्यूसर को डर था यह फिल्म डूब जाएगी. लेकिन अप्रैल, 1954 में रिलीज़ हुई यह फिल्म ज़बरदस्त हिट साबित हुई. जापान में तो इसे सराहा ही गया, अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में ‘सेवन सामुराई’ ने धूम मचा दी.किसानों और योद्धाओं के एकजुट होकर शोषक लुटेरों से संघर्ष की ये दास्तां आज सिनेमा के छात्रों और फिल्मी दुनिया में काम करने वाले लोगों के लिए एक ज़रूरी टेक्स्टबुक की तरह है, और किसी भी संघर्षरत समुदाय या व्यक्ति के लिए एक खूबसूरत प्रेरणास्रोत भी.