हरियाणवी फिल्म ‘लाडो’: पितृसत्ता, खाप और ज़मीन के बीच अपनी पहचान तलाशती ग्रामीण औरत की दास्तां

हरियाणवी फिल्म ‘लाडो’: पितृसत्ता, खाप और ज़मीन के बीच अपनी पहचान तलाशती ग्रामीण औरत की दास्तां

हरियाणा के ग्रामीण इलाकों के बारे में एक कहावत प्रसिद्ध है. यहां के किसान अपनी ज़मीन, औरत और परंपरा को जकड़े बैठे रहते हैं. ‘लाडो’ सूक्ष्म प्रतीकों और घटनाओं के माध्यम से इस बात को चरितार्थ करती है.

हरियाणवी फिल्म ‘लाडो’हरियाणवी फिल्म ‘लाडो’
प्रगत‍ि सक्सेना
  • Noida,
  • Jul 16, 2023,
  • Updated Jul 16, 2023, 12:01 PM IST

हम में से बहुत से लोग इस बात से वाकिफ नहीं होंगे कि हरियाणा में साहित्य, लोक नाटक और सिनेमा की एक मजबूत धारा रही है. यह बात अलग है कि इसे मुख्यधारा में उचित स्थान नहीं मिल पाया. हिन्दी में इस प्रदेश से बहुत सारे योग्य और मशहूर साहित्यकार, अभिनेता और फिल्म निर्देशक हुए हैं, लेकिन खुद हरियाणा में कला और संस्कृति का मंच और संभावनाएं बहुत कम विकसित हुई हैं. शायद यही वजह है कि हरियाणा हरित क्रांति में तो सबसे अग्रणी प्रदेश रहा लेकिन सांस्कृतिक नवजागरण में सबसे पीछे. फिर भी एक प्रबुद्ध वर्ग है, जो लगातार प्रयास करता रहता है कि कला संस्कृति के क्षेत्र में भी यह प्रदेश तरक्की करे.

जहां तक सिनेमा का सवाल है, तो कुछ चुनिन्दा लोग लगभग चार दशकों से यह कोशिश करते रहे हैं कि एक अच्छे और स्तरीय हरियाणवी सिनेमा की परंपरा स्थापित हो, जिसे मुख्य धारा के सिनेमा से भी जोड़ा जा सके.
हरियाणवी की सबसे पहली फिल्म थी 1968 में बनी ‘धरती’. इसके बारे में ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है. ज़ाहिर है, यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कोई खास कमाई नहीं कर पाई होगी. इसके बाद दो-चार फिल्में और बनीं लेकिन वे अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में नाकामयाब रहीं.

1984 में ‘चंद्रावल’ हरियाणवी सिनेमा जगत में मील का पत्थर साबित हुई. कहते हैं कि इस फिल्म ने अपनी लागत सिर्फ एक फिल्म हाल से ही निकाल ली थी और इसने हरियाणा प्रदेश में फिल्म ‘शोले’ से भी अधिक कमाई की. लेकिन उसके बाद फिर एक बार हरियाणवी फिल्मों में मानो अकाल सा छा गया. फिल्में बनीं तो, लेकिन फ्लॉप होती गईं.

वर्ष 2000 में अश्विनी चौधरी नाम के एक युवा निर्देशक ने एक बार फिर कोशिश की गंभीर हरियाणवी फिल्म बनाने की. इस तरह शुरुआत हुई फ़िल्म ‘लाडो’ की. हरियाणा के ग्रामीण इलाकों की तीन खासियत हैं. खाप की मजबूत पकड़, किसानों में विपरीत परिस्थितियों से जूझने की कुव्वत और पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की दयनीय स्थिति. यह अजीब बात है कि हरित क्रांति से आई समृद्धि के बावजूद महिलाओं के जीवन और उनके प्रति समाज के रवैये में कोई खास फर्क नहीं आया है.
अश्विनी ने ऐसा कथानक चुना जिसमें इन सभी बातों के साथ एक और अहम तत्व था.  राजनीति. इन सभी बातों को एक साथ कहानी में पिरोना मुश्किल था, लेकिन अश्विनी ने इस चुनौती को स्वीकार किया. यह बतौर निर्देशक अश्विनी की पहली फिल्म थी, जिसमें उन्होने आशुतोष राणा, राजेंद्र गुप्ता, अरुण बाली और वल्लभ व्यास जैसे वरिष्ठ और रंगमंच के मंझे हुए कलाकारों को कास्ट किया. संगीत दिया हिन्दी के लोकप्रिय संगीतकार ललित सेन ने.

फिल्म की कहानी उर्मि नाम की युवती के इर्द गिर्द घूमती है, जो नई नवेली ब्याह कर अपनी ससुराल आई है. उसका ब्याह इसलिए एक अहम बात है कि वह एक दूसरे खाप से आई है और बारहवीं तक पढ़ी भी है. ससुराल में आते ही उसे घर के काम में झोंक दिया जाता है. उसका पति अरविंद कोलकाता में काम करता है, इसलिए पति से उसकी बहुत बातचीत हो नहीं पाती. अरविंद अपने गांव की ज़मीन बेच कर शहर में बसना चाहता है, जबकि उसका पिता इसके सख्त खिलाफ है. इस तनातनी में उर्मि महज़ एक घर का कामकाज करने वाली मशीन बन जाती है, जिसका अपना कोई अस्तित्व नहीं.

पति की उपेक्षा और ससुराल वालों की लताड़ से त्रस्त उर्मि को प्रेम हो जाता है, अरविंद के ही चचेरे भाई इंदर से. उधर गांव वाले और उर्मि की ससुराल का परिवार आने वाले चुनाव की तैयारी में व्यस्त हो जाते हैं. जब उर्मि गर्भवती हो जाती है, और इंदर की शादी कहीं और तय की जा रही है, तब उर्मि इंदर से कहती है कि वह अपने परिवार के सामने उसे स्वीकारे. इंदर इतना साहस नहीं जुटा पाता. उधर ससुराल में उर्मि को ना सिर्फ कड़वे बोल झेलने पड़ते हैं बल्कि उसे बेरहमी से पीटा भी जाता है.

जब गांव की पंचायत मामले को रफा-दफा नहीं कर पाती तो उर्मि अड़ जाती है कि वह इलाके की तीनों खापों के सामने अपने लिए न्याय की गुहार लगाएगी. चूंकि चुनाव आने वाले हैं इसलिए उर्मि की ससुराल वाले ज़्यादा बवाल नहीं चाहते और खाप बुलाने के लिए राज़ी हो जाते हैं. अंततः इंदर और अरविंद दोनों को अपनी गलती का एहसास होता है और उर्मि अपने पति अरविंद के साथ फिर से एक नई शुरुआत करती है.

उर्मि के जरिए फिल्म न सिर्फ ग्रामीण महिलाओं पर पितृसत्तात्मक समाज के वर्चस्व की बात करती है, बल्कि उन किसान परिवारों की समस्या को भी हाइलाइट करती है जिनके बच्चे पढ़-लिख कर शहर का रुख कर रहे हैं. किसान के लिए उसकी ज़मीन खेती के लिए है लेकिन उसके बेटे के लिए वो एक संपत्ति है जिसे बेच कर वह शहर में एक बेहतर ज़िंदगी तलाश कर सकता है. और इस कश्मकश में फँसती हैं घर-परिवार की औरतें.

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हरियाणा के ग्रामीण इलाकों के बारे में एक कहावत प्रसिद्ध है. यहां के किसान अपनी ज़मीन, औरत और परंपरा को जकड़े बैठे रहते हैं. ‘लाडो’ सूक्ष्म प्रतीकों और घटनाओं के माध्यम से इस बात को चरितार्थ करती है. ज़मीन और औरत से जिस तरह पुरुष बर्ताव करता है, उसमें बहुत समानता है और ये समानता फिल्म में बहुत कुशलतापूर्वक दिखाई गई है. दोनों को पुरुष अपनी संपत्ति मानता है. दोनों का शोषण करता है लेकिन वस्तुतः दोनों की अपनी एक स्वतंत्र अस्मिता है. धरती और स्त्री का विद्रोह रह-रह कर पुरुष को झेलना पड़ता है. लेकिन विडम्बना ये है कि सदियों से चले आ रहे पितृसत्तात्मक संरचनाओं, विचारों और परम्पराओं से बोझिल पुरुष ये समझ नहीं पाते.

शहरों में फिर भी हमारे समाज के मर्द अब इस बात को समझने लगे हैं लेकिन चूंकि हमारे गांव और कृषि समाज परस्पर इतना घनिष्ठता से गुंथा हुआ है कि उसमें किसी भी प्रकार के बदलाव को आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता बल्कि इसका पुरजोर विरोध ही होता है, यहां तक कि इस बदलाव को हिंसक तरीके से दबाने की कोशिश भी होती है.

लेकिन ‘लाडो’ यह भी दर्शाती है कि अगर एक इंसानी तौर पर बात को समझने की कोशिश की जाये, स्त्रियों की समस्याओं पर ध्यान दिया जाये तो ग्रामीण समाज में भी आधुनिक और स्वस्थ बदलाव आ सकते हैं. अरविंद और इंदर दोनों अंत में न सिर्फ अपनी गलती मानते हैं बल्कि ये फैसला उर्मि पर छोडते हैं कि वह उन दोनों में से किसे बेहतर जीवनसाथी समझेगी.
ये तो हुई फिल्म की बात. लेकिन असल में, हरियाणा में या कहीं और भी, ना तो किसान परिवार की औरतों का जीवन सरल है, ना ही वहाँ के पुरुष बदलने को तैयार. अमूमन यथार्थ-सिद्धान्त, आदर्श और कहानी से कहीं ज़्यादा कड़वा होता है. निर्देशक अश्विनी चौधरी ने बहुत मेहनत और लगन से ये फिल्म पूरी की. वर्ष 2000 में इस फिल्म को राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में बहुत सराहा गया और यह पहली हरियाणवी फिल्म थी जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया.

लेकिन ‘लाडो’ को खाप पंचायतों का रोष झेलना पड़ा. चूंकि खाप पंचायतों का वहाँ की राजनीति में काफी प्रभाव है इसलिए राज्य सरकार ने भी इस फिल्म को बहुत प्रोत्साहित नहीं किया. यहाँ तक कि इसे मनोरंजन कर से भी छूट नहीं दी जैसा कि हर राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म को दी जाती है. नतीजा ये हुआ कि फिल्म के रिलीज़ होने में बहुत देर हो गई और एक अच्छी-ख़ासी फिल्म लोकप्रिय संगीत के बावजूद दर्शकों को आकर्षित नहीं कर पायी.

निर्देशक अश्विनी चौधरी को कर्जा चुकाने के लिए अपना फ्लैट और कार बेचनी पड़ी. अब हरियाणा में घर ही नहीं रहा तो अश्विनी ने अपने प्रदेश से आहत होकर बॉम्बे फिल्म इंडस्ट्री की तरफ रुख किया और यहाँ उन्होने ‘धूप’ जैसी यादगार फिल्म बनाई. आज वे एक सफल निर्देशक हैं, लेकिन ये टीस उन्हें आज भी सताती है कि उनकी अपनी भाषा और प्रदेश से उन्हें वो प्रोत्साहन नहीं मिला जिसकी उन्हें आस थी.

मगर फिल्म, साहित्य और कला के साथ एक अच्छी बात ये है कि वे हमारे ज़ेहन में कहीं ना कहीं ठहर जाती हैं. 23 बरस बाद आज हम ‘लाडो’ की बात कर रहे हैं तो उसकी प्रासंगिकता हमें समझ आती है. आज हरियाणा का ग्राम समाज शायद ‘लाडो’ को, उर्मि की वेदना को बेहतर रूप से समझ सकता है. कुछ भी हो, यह फिल्म देश की उन चंद फिल्मों में से एक रहेगी, जिसमें ग्रामीण और किसान समाज की औरतों के मुद्दों पर संवेदनशीलता से बात की गई.

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