
बिहार में इस समय चुनाव में बेरोजगारी और पलायन बड़े मुद्दे हैं, लेकिन इस कृषि प्रधान राज्य में इन दोनों समस्याओं का समाधान खुद कृषि में ही छिपा है. बिहार की असली ताकत यहां की खेती है, जिसमें पलायन रोकने और बड़े पैमाने पर रोजगार देने की अपार क्षमता है. क्योंकि बिहार, जिसकी आत्मा आज भी गांवों में बसती है और जिसकी 80 प्रतिशत से अधिक आबादी अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है, बिहार ने पिछले दो दशकों में एक मूक क्रांति देखी है. यह क्रांति किसानों के टूटे हुए आत्मविश्वास को फिर से जोड़ने की एक राजनीतिक यात्रा भी है. एक समय था, जब बिहार की खेती को "बिगड़ी हुई व्यवस्था" और "खराब हालात" का पर्याय माना जाता था. किसान हताश थे, कई दशको से बिगड़ी व्यवस्था से पलायन एक स्थायी नियति बनी हुई है. लेकिन, 2008 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में 'कृषि रोड मैप' की शुरुआत ने इस तस्वीर को बदलना शुरू किया. यह केवल एक सरकारी योजना नहीं थी, बल्कि यह कृषि के प्रति लोगों का विश्वास वापस लाने का एक राजनीतिक संकल्प थी.आज 20 साल बाद, यह विश्लेषण करना लाजिमी है कि यह यात्रा कितनी सफल रही और कितनी 'अधूरी' है.
बिहार के पहले और दूसरे कृषि रोड मैप साल 2008-2012 और 2012-2017 का लक्ष्य बिल्कुल स्पष्ट था. उस वक्त की सबसे बड़ी चुनौती उत्पादन और उत्पादकता को बढ़ाना थी. लक्ष्य था कि पहले बिहार का पेट भरे और किसान को यह यकीन दिलाया जाए कि वह अपने खेत से सोना उगा सकता है और परिणाम चौंकाने वाले थे. राज्य में धान, गेहूं और मक्का की उत्पादकता लगभग दोगुनी हो गई. आंकड़े इस बदलाव की गवाही देते हैं, जहां कृषि रोड मैप से पहले (2003-08) गेहूं की औसत उत्पादकता मात्र 18.29 क्विंटल प्रति हेक्टेयर थी, वहीं तीसरे रोड मैप के अंतिम पांच वर्षों (साल 2017-22) में यह बढ़कर 28.89 क्विंटल हो गई. मक्का के मामले में यह छलांग अभूतपूर्व थी. उत्पादकता 25.04 क्विंटल प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 50.26 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो गई. यह लगभग दोगुनी वृद्धि थी, जिसने बिहार को देश के प्रमुख मक्का उत्पादक राज्यों में खड़ा कर दिया. यह बदलाव सिर्फ कागजों पर नहीं था. केंद्र सरकार से मिले 5 कृषि कर्मण पुरस्कार इस बात का सबूत थे कि बिहार सही दिशा में आगे बढ़ रहा है. इस दौर की राजनीतिक स्पष्टता यह थी कि किसानों की आय बढ़ाने से पहले, उनकी उपज बढ़ाना ज़रूरी है. जब खेत में पैदावार दिखने लगी, तो किसानों का व्यवस्था पर विश्वास बढ़ा.
केवल अनाज उत्पादन ही नहीं, कृषि से जुड़े व्यवसायों ने साबित किया कि बिहार की क्षमता सिर्फ खेतों तक सीमित नहीं है. पिछले 20 सालों में मछली उत्पादन 2.88 लाख मीट्रिक टन से बढ़कर 7.62 लाख मीट्रिक टन हो गया. यह ढाई गुना से अधिक की वृद्धि है. इसका परिणाम यह हुआ कि जो बिहार पहले दूसरे राज्यों से मछली मंगाता था, वह आज मछली उत्पादन में लगभग आत्मनिर्भर हो गया है. वहीं दूध उत्पादन 57.7 लाख मीट्रिक टन से बढ़कर 115 लाख मीट्रिक टन (2020-21) हो गया. वही अंडा उत्पादन 10667 लाख से बढ़कर 30132 लाख अंडा (साल 2020-21) तक हो गया. इसके साथ-साथ बिजली, ग्रामीण सड़कों और सिंचाई पर हुए काम ने इस विकास को गति दी. 20 सालों की इस यात्रा ने बिहार की खेती को 'हताशा' के दौर से निकालकर 'विश्वास' के दौर में पहुंचा दिया है.
इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद, बिहार की कृषि लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है. मूल सवाल यह है कि जब उत्पादन दोगुना हो गया, मछली-दूध-अंडे का उत्पादन आसमान छू रहा है, तो भी किसान की आय उस अनुपात में क्यों नहीं बढ़ी? उत्पादन बढ़ने के बावजूद किसान की जेब में उतना पैसा नहीं आ रहा, जितना आना चाहिए. जिसके कारण किसान के बेटे पलायन कर रहे हैं. किसान आज भी अपनी उपज को औने-पौने दाम पर बिचौलियों को बेचने के लिए मजबूर है. यह एक गंभीर राजनीतिक और नीतिगत चुनौती है. इस कृषि प्रधान राज्य में इन दोनों समस्याओं का समाधान खुद कृषि में ही छिपा है. बिहार की असली ताकत यहां की खेती है, जिसमें पलायन रोकने और बड़े पैमाने पर रोजगार देने की अपार क्षमता ऱखता है.
इस पर अब काम होना बाकी है. जहां अनाज में क्रांति हुई, वहीं दालों और तेल वाली फसलों का उत्पादन लगभग स्थिर रहा. बाढ़ और सुखाड़ का खतरा हर साल किसानों की मेहनत पर पानी फेर देता है. इसके लिए एक स्थायी समाधान पर काम होना अभी बाकी है. सबसे बड़ी चुनौती यही है. अब "प्रोसेसिंग से किसानों की इनकम और रोजगार" पर काम करना बाकी है. इसके लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है, वह अभी भी सीमित दिखती है. बिहार की कृषि पर राजनीतिक चर्चा अक्सर लीची और मखाना तक ही सीमित हो जाती है. लेकिन बिहार की असली ताकत दलहन, मक्का, केला, आलू, शहद, मशरूम और दूध जैसे अनगिनत उत्पादों में है, जिन पर गंभीर राजनीतिक और नीतिगत चर्चा होना बाकी है. बिहार में मक्का, आलू, मखाना, लीची और केला में विकास की अपार संभावनाएं हैं, जिन्हें कृषि-प्रसंस्करण (Agro-Processing) से हकीकत में बदला जा सकता है. यह रास्ता सीधे तौर पर किसानों की आय बढ़ाएगा.
नीतीश कुमार ने 20 सालों में बिहार की खेती को 'बिगड़ी व्यवस्था' से निकालकर किसानों का 'विश्वास' जरूर जगाया है. बढ़े हुए उत्पादन के आंकड़े यह सफलता दिखाते भी हैं. लेकिन, यह मिशन अभी 'अधूरा' है. उत्पादन की लड़ाई जीतने के बाद, अब असली लड़ाई किसान की 'आमदनी' की है. किसानों के इस 'विश्वास' को 'समृद्धि' में बदलना होगा, ताकि किसान के बेटों को 'पलायन' न करना पड़े और उन्हें घर पर ही रोजी रोजगार मिल सके. यह तभी संभव है जब सरकार मजबूत 'राजनीतिक इच्छाशक्ति' के साथ काम करे. इसके लिए सिर्फ 'लीची-मखाना' से आगे बढ़कर 'मक्का, आलू, केला और दूध' जैसे उत्पादों की प्रोसेसिंग पर जोर देना होगा. 20 साल में विश्वास जगाना बड़ी उपलब्धि थी, लेकिन अब किसानों की जेब भरना और पलायन रोकना, यही सबसे अहम और 'अधूरा' काम है.
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