
उत्तर प्रदेश इस साल पराली का हॉटस्पॉट बन गया है. जहां पंजाब और हरियाणा जैसे राज्य जहां इस बार पराली की घटनाओं में पीछे हैं तो वहीं यूपी में हो रहीं पराली की घटनाओं ने राज्य सरकार की चिंताएं बढ़ा दी हैं. राज्य सरकार ने इस समस्या का समाधान निकालने के लिए एक बड़ा ऐलान किया है. सरकार ने इन सर्दियों के मौसम में पराली जलाने की घटनाओं को रोकने में मदद करने वाले उपकरणों की खरीद पर 40 फीसदी से 50 फीसदी तक की छूट देने की योजना शुरू करने का ऐलान किया है.
राज्य सरकार की यह सब्सिडी मुल्चर और श्रेडर जैसे उपकरणों की खरीद पर लागू होगी. इन उपकरणों की मदद से किसान फसल के अवशेषों को काटकर, मिलाकर या मिट्टी में जोत सकते हैं. इससे पराली कचरा बनने के बजाय जैविक खाद में बदल जाती है. अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया ने एग्रीकल्चर डायरेक्टर पंकज त्रिपाठी ने बताया कि किसान इस योजना का लाभ उठाने के लिए विभाग के पोर्टल पर आवेदन कर सकते हैं या नजदीकी कार्यालय से संपर्क कर सकते हैं.
अधिकारियों ने बताया कि इस योजना का मुख्य मकसद पराली जलाने की समस्या को कम करना है. यह समस्या हर साल सर्दियों के मौसम में होने वाली एक बड़ी पर्यावरणीय चुनौती है. साथ ही उत्तर भारत में गंभीर वायु प्रदूषण का कारण बनती है. अधिकारियों के अनुसार अगर योजना को प्रभावी तौर पर लागू किया गया तो यह उत्तर भारत में धूलकण प्रदूषण और स्मॉग की घटनाओं को घटाने में मदद करेगी. साथ ही मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ाएगी क्योंकि मिट्टी में मिलाई गई पराली ऑर्गेनिक कार्बन और पोषक तत्व वापस लौटाती है.
सरकार ने किसानों के लिए पारदर्शी और सुरक्षित आवेदन प्रक्रिया सुनिश्चित करने के उद्देश्य से टोकन पेमेंट सिस्टम भी शुरू किया है. जिन उपकरणों की कीमत 10,000 रुपये तक है, उनके लिए किसी टोकन पेमेंट की जरूरत नहीं होगी. 10,000 से 50,000 रुपये तक की कीमत वाले उपकरणों के लिए किसानों को 2,500 रुपये का टोकन भुगतान करना होगा. वहीं, लाखों रुपये कीमत वाले कृषि उपकरणों के लिए अधिकतम 5,000 रुपये तक का टोकन भुगतान तय किया गया है.
हालांकि, पंजाब और हरियाणा के पिछले अनुभव बताते हैं कि इस तरह की योजनाओं में अक्सर सब्सिडी वितरण में देरी, सीमित जागरूकता और अंतिम स्तर तक सेवा पहुंचने में दिक्कतें देखी गई हैं. सूत्रों के अनुसार, छोटे किसान अक्सर आवेदन प्रक्रिया या फसल अवशेष प्रबंधन उपकरणों के लाभों से अनजान रह जाते हैं. साथ ही, जानकारी का प्रसार ज्यादातर जिला स्तर तक ही सीमित रहता है, जिससे गांव स्तर पर किसानों तक सही जानकारी नहीं पहुंच पाती.
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