आजादी के 75 साल बाद भी हम उर्वरकों के उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर नहीं हो सके हैं. जबकि भारत एक कृषि प्रधान देश है. हमारे देश की निजी और सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियों द्वारा जितनी खाद का प्रोडक्शन किया जा रहा है वो देश में कृषि कार्यकलापों को पूरा करने के लिए अपर्याप्त है. ऐसे में सरकार कृषि क्षेत्र की इस मांग को पूरा करने के लिए साल दर साल मजबूरी में खाद का आयात कर रही है. हम जैविक और प्राकृतिक खेती को बढ़ाने की कोशिश में जुटे हुए हैं, फिर भी रासायनिक खाद का आयात कम होने का नाम नहीं ले रहा. यूरिया का आयात 100 लाख मीट्रिक टन पहुंचने वाला है और डीएपी का 50 लाख मीट्रिक टन के पार पहुंच चुका है. एमओपी (म्यूरेट ऑफ पोटाश) के मामले में तो पूरी तरह से हम दूसरे देशों पर ही निर्भर हैं.
दरअसल, सरकार एक तरफ उत्पादन बढ़ाने की कोशिश में जुटी हुई है तो दूसरी ओर मांग बढ़ जाती है. सिर्फ पिछले चार साल की ही बात करें तो रासायनिक उर्वरकों की डिमांड लगभग 73 लाख मीट्रिक टन बढ़ गई है. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2004-05 के दौरान देश में उर्वरकों (NPK-नाइट्रोजन-N, फास्फोरस-P, पोटेशियम-K) की खपत प्रति हेक्टेयर 94.5 किलो थी, जो 2018-19 में बढ़कर 133 किलोग्राम तक पहुंच गई है. ऐसे में समझ सकते हैं कि सरकार क्या करे. वो अगर इंपोर्ट न करे तो देश में खाद के लिए हाहाकार मच जाएगा.
रसायन और उर्वरक मंत्री मनसुख मांडविया का कहना है कि मुख्य उर्वरकों में आवश्यकता की तुलना में यूरिया का लगभग 75 फीसदी, डीएपी का 40 और एनपीकेएस का 85 प्रतिशत सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों तथा निजी कंपनियों द्वारा देश में ही उत्पादन किया जा रहा है. उर्वरकों की मांग और उत्पादन के बीच के अंतर को पाटने के लिए शेष का आयात यूरिया के मामले में भारत सरकार के खाते से और पीएंडके (डीएपी सहित फॉस्फेटिक और पोटाश) के मामले में कंपनियों द्वारा मुक्त सामान्य लाइसेंसों के तहत किया जा रहा है.
भारतीय जनता पार्टी सांसद सुमेधानंद सरस्वती और विनोद लखमशी चावड़ा ने केंद्र सरकार से शुक्रवार को लोकसभा में पूछा कि उर्वरक आयात पर निर्भरता कम करने के लिए क्या प्रयास किए गए हैं. यह भी पूछा कि सरकार द्वारा सामान्य यूरिया के स्थान पर किसानों द्वारा नैनो लिक्विड यूरिया का उपयोग किए जाने को बढ़ावा देने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं? जवाब में रसायन और उर्वरक मंत्री मनसुख मांडविया ने विस्तार से जवाब दिया. उन्होंने कहा कि कंपनियों से किसानों को परंपरागत यूरिया के साथ-साथ नैनो यूरिया खरीदने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध किया गया है.
मांडविया ने कहा कि भारत सरकार ने यूरिया की स्वदेशी उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के लिए 63.5 लाख मीट्रिक टन क्षमता की यूनिटों को फिर चालू करने का काम शुरू किया है. इनमें फर्टिलाइजर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया की रामागुंडम (तेलंगाना), गोरखपुर (उत्तर प्रदेश), सिंदरी (झारखंड) और तलचर (ओडिशा) इकाई और हिंदुस्तान फर्टिलाइजर कॉरपोरेशन लिमिटेड की बरौनी (बिहार) इकाई शामिल है. इन सभी यूनिटों की सालाना उत्पादन क्षमता 12.7-12.7 लाख मीट्रिक टन है. रामागुंडम, गोरखपुर, सिंदरी और बरौनी की बंद पड़ी यूनिटें फिर से शुरू हो चुकी हैं.
रासायनिक खाद को लेकर विदेशी निर्भरता कम करने की और भी कोशिश जारी है. उर्वरक विभाग ने फॉस्फेट युक्त उर्वरकों की मांग को पूरा करने के लिए मध्य भारत एग्रो प्रॉडक्ट लिमिटेड यूनिट- II, आरसीएफ-थल, एफएसीटी-कोच्चि और पारादीप फॉस्फेट्स लिमिटेड द्वारा डीएपी-एनपीके प्लांटों को लगाए जाने की अनुमति दी है. खान मंत्रालय की सलाह से डीएपी और अन्य उर्वरकों के कच्चे माल के लिए अपने देश में ही खनिजों की तलाश करने के काम को प्राथमिकता दी गई है.
केंद्र सरकार द्वारा बनाई गई एमएसपी कमेटी के सदस्य बिनोद आनंद का कहना है कि उर्वरकों को लेकर सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि किसानों की भूमिका उससे भी बड़ी है. खेत का रकबा वही है फिर भी खाद का इस्तेमाल बढ़ रहा है. इसका मतलब है कि हम उर्वरकों का संतुलित इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं. सॉयल हेल्थ कार्ड बन रहे हैं, उसके हिसाब से खाद का इस्तेमाल करें. सही क्रॉप पैटर्न बने तो खाद का इस्तेमाल कम हो जाएगा. उन फसलों पर जोर देने की जरूरत है जो लैंड में नाइट्रोजन फिक्स करती हैं. संतुलित इस्तेमाल होगा तो खेती की लागत भी कम होगी.