फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए उनमें यूरिया जैसी खादों का प्रयोग किया जाता है, लेकिन समय के साथ किसानों ने अच्छी पैदावार के लालच में खादों का हद से ज्यादा प्रयोग किया है. ऐसे में फसल अच्छी होने के बजाय अब खराब होने लगी है. दरअसल बढ़ते पौधों की भी अपनी डिमांड होती है. अगर उसी अनुरूप उनमें खाद-पानी डाला जाए तो अच्छी उपज मिलती है, लेकिन पौधों को कब खादों की कितनी जरूरत है, ये समझना एक साधारण किसान के लिए कठिन गणित की तरह है. खास कर धान, मक्के और गेहूं की फसल में यूरिया की जरूरत ने इस सवाल को और बढ़ा दिया है, लेकिन अब रिसर्च के बाद धान, गेहूं और मक्के की फसलों में खाद के प्रयोग का वैज्ञानिक प्रबंधन सामने आया है. किसान तक की खरीफनामा सीरीज के इस कड़ी में इस पर विस्तृत रिपोर्ट, जिसमें किसान जान सकेंगे कि खेतों को कब और कितनी खाद देनी है.
असल में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान पूसा नई दिल्ली (आईएआरआई) किसानों को सटीक पोषक तत्व प्रबंधन के लिए ऑपरेटरों का उपयोग करने के लिए कह रहा है, जो किसान खादों को उचित मात्रा में, सही समय पर, सही जगह पर करने के लिए गाइड करता है.इस तकनीक के जरिए फसल उत्पादन में वृद्धि, लागत में कमी, किसानों के शुद्ध लाभ में वृद्धि होगी. आइए जानते है वह चार आपरेटर कौन से है.
आईएआरआई पूसा एग्रोनाॅमी डिवीजन के कृषि वैज्ञानिक डॉ प्रवीन कुमार उपाध्याय ने किसान तक से बातचीत बताया की फसलों में सटीक पोषक तत्व प्रबंधन के लिए तीन आपरेटर हैंं,जिन्हें ग्रीन सीकर, क्लोरोफिल मीटर और लीफ कलर चार्ट के नाम से जाना जाता है. इसका मुख्य उद्देश्य है कि किसान जो खाद फसलोंं को दे रहे हैंं. वह मिट्टी में बरबाद होने की जगह पौधों को मिले. खादों का इस्तेमाल तब किया जाए, जब पौधों की जरूरत हो, जिससे कम उर्वरक में फसलों से बेहतर उत्पादन लिया जाए.
किसान तक से बातचीत में डॉ प्रवीन कुमार उपाध्याय का कहना है कि लीफ कलर चार्ट धान, मक्का और गेहूं की बढ़ती पौध के लिए बहुत सहायक है. इनकी हरियाली एक संकेतक के तौर पर इस्तेमाल की जाती है. इनका रंग कितना गहरा या कितना हल्का है, ये तय करता है कि इन्हें यूरिया की उचित मात्रा जमीन से मिल पा रही है या इसमें कमी है. इसका सबसे सस्ता और आसान हल है लीफ कलर चार्ट यानी रंग मापी पट्टी. ये एक प्लास्टिक की शीट होती है, जिसमें हरे रंग के कुछ कालम बने होते हैं. गहरे हरे रंग से लेकर पीले हरे रंग तक के कई खानों में ये बंटा होता है. हर कालम की नंबरिंग होती है और पत्तियों से मिलान के बाद तय नंबरिंग के अनुसार यूरिया का डोज बताया गया है. इस बड़े काम की ऐसी चार्ट बाजारों में आसानी से उपलब्ध हैं, जो मात्र 50-60 रुपए में किसानों को मिल जाती है. चार्ट के अनुसार फसल का रंग जितने गहरे हरे रंग का होगा, उसमें उतनी ज्यादा नाइट्रोजन की मात्रा होगी.
फसलों में लीफ कलर चार्ट का उपयोग करने के लिए मक्का, धान, गेहूं सबसे पहले कम से कम 10 ऐसे पौधों का चयन करें, जो रोगों और कीटों से मुक्त हों और जिनकी पत्तियां पूरी तरह से खुली हों. सुबह (8-10 बजे के बीच) लीफ कलर चार्ट का उपयोग करने का प्रयास करें और यह भी सुनिश्चित करें कि देखते समय सीधी धूप पत्तियों पर न पड़े. अन्यथा पत्ती का रंग पत्ती के रंग चार्ट से मेल नहीं खाता. किसी भी प्रकार की त्रुटि को रोकने के लिए कोशिश ये होनी चाहिए कि एक ही व्यक्ति लीफ कलर चार्ट द्वारा पत्तियों के रंग को मिलाए. आइए जानते आने वाली मुख्य खरीफ फसल धान और मक्का में यूरिया प्रति हेक्टयर लीफ कलर चार्ट के अनुसार कितना इस्तेमाल करें.
कृषि विशेषज्ञ का कहना है कि अगर खरीफ धान गैर बासमती है. इसमें 6 पत्तियों की लीफ कलर चार्ट वैल्यू 4 से कम 60 किलोप्रति हेक्टेयर यूरिया का प्रयोग करना चाहिए. धान बासमती है तो 6 और पत्तियों की वैल्यू 3 से कम है तो 50 किलो प्रति हेक्टयर यूरिया का प्रयोग करना चाहिए. अगर धान की सीधी बुवाई और गैर बासमती धान फसल है और 6 पत्तियों की वैल्यू 3 से कम है तो 50 किलो प्रति हेक्टयर यूरिया का प्रयोग करना चाहिए .वहीं बोरो धान गैर बासमती है तो उसकी 6 पत्तियों की वैल्यू 4 से कम 70 किलो प्रति हेक्टयर यूरिया का प्रयोग करना चाहिए.
इसी तरह मक्के की फसल में 21 दिन की फसल से लेकर मक्के में झंडे बनने की अवस्था तक करें. लीफ कलर चार्ट के माध्यम से यूरिया प्रयोग करें. अगर मक्के में 6 पत्तियों की वैल्यू 5 से कम है तो 25 किलो यूरिया प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए. इससे 30 से 40 किग्रा/हेक्टयर यूरिया बचाया जा सकता है.
ग्रीन सीकर को लेकर डॉ प्रवीन कुमार उपाध्याय ने का कहना है कि ग्रीन सीकर फसलों में सामान्यीकृत अंतर वनस्पतिक सूचकांक (जनरलाइज डिसटेंस बाटिनकल) इंडेक्स के आधार पर पौधो में यूरिया की जरूरत को सुनिश्चित करता है. आजकल इसका प्रयोग बहुतायत से हो रहा है. इस उपकरण के इस्तेमाल से पाया गया है कि यह फसलों में यूरिया के उपयोग को काफी कम कर सकता है. इस प्रकार जरूरत से अधिक उर्वरक का इस्तेमाल पर कंट्रोल किया जाता है. इस तरह फसल में उर्वरक पर लगने वाले लागत खर्च को कम किया जाता है. ग्रीन सीकर के इस्तेमाल से खेती में लगभग 20 फीसदी नाइट्रोजन बचाता है.
किसान तक से बातचीत में डॉ प्रवीन ने बताया कि क्लोरोफिल मीटर पौधों में कितना नाइट्रोजन स्तर है, इसका मूल्यांकन करता है. क्लोरोफिल उपकरणों की तुलना में अधिक विश्वसनीय और आसान है. यह पत्तियों के नाइट्रोजन स्तर के आधार पर क्लोरोफिल की मात्रा को दर्शाता है. धान की पत्तियों में जब क्लोरोफिल मीटर का औसत मान 37.5 हो तो प्रति हेक्टयर 65 किग्रा यूरिया का प्रयोग करना चाहिए. गेहूंं के पत्तियों में मान 42 होने पर उसमें 65 किग्रा यूरिया देने की सलाह दी जाती है. क्लोरोफिल मीटर के प्रयोग से हम लगभग 30 किलोग्राम प्रति हेक्टयर तक नाइट्रोजन की बचत कर सकते हैंं. यानी प्रति हेक्टयर लगभग 70 किलो यूरिया की बचत करते हैं.
इस तरह इन उपकरणों का इस्तेमाल से आप धान, मक्के की फसल को बेहिसाब यूरिया देने से बच जाएंगे. इससे यूरिया की बचत होगी यानी आपकी लागत कम होगी. आपके खेतों की उर्वरता बनी रहेगी. ज्यादा यूरिया के बोझ से खराब नहीं होगी. साथ ही भूमिगत जल की क्वालिटी भी खराब होने से बच जाएगी.