देश में लोकसभा चुनाव जारी हैं और उत्तर प्रदेश की 80 सीटों पर क्या गणित होगा, हर तरफ इसकी चर्चाएं हैं. अमेठी और रायबरेली की तरह इस बार सबकी नजरें समाजवादी पार्टी (सपा) का गढ़ रही, कन्नौज सीट पर टिकी हैं. यह वह सीट है जिस पर सन् 1998 से सपा जीत रही थी लेकिन साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने उसके विजयी रथ को रोक दिया था. इस बार यहां से सपा के मुखिया अखिलेश यादव खुद मैदान में हैं. उनका मकसद पार्टी के खोए हुए गढ़ को फिर से हासिल करना होगा.
कन्नौज लोकसभा सीट सन् 1967 से अस्तित्व में आई थी. उस समय राम मनोहर लोहिया ने चुनाव जीता. लोहिया संयुक्त समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े थे. इसके बाद 1971 में कांग्रेस के सत्य नारायण मिश्रा, 1977 में जनता पार्टी के राम प्रकाश त्रिपाठी, 1980 में जनता पार्टी के छोटे सिंह यादव, 1984 में कांग्रेस की शीला दीक्षित, 1989 और 1991 में छोटे सिंह यादव ने चुनाव जीता था. 1989 में छोटे सिंह यादव जनता दल से चुनाव लड़े थे. 1991 में उन्होंने एक बार फिर जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा था. सन् 1996 में इस सीट पर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के चंद्र भूषण सिंह विजयी रहे.
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फिर सन् 1998 से यह सीट सपा के खाते में रही. उस समय पार्टी ने प्रदीप यादव को इस सीट से उम्मीदवार बनाया था. इसके बाद 1999 और 2000 में मुलायम सिंह यादव ने यह सीट जीती. साल 2004 में अखिलेश ने इस सीट पर जीत हासिल की और देश की राजनीति में डेब्यू किया. साल 2012 और फिर 2014 में उनकी पत्नी डिंपल यादव को जीत मिली. साल 2019 में सपा का यह किला उसके हाथ से निकल गया. उन चुनावों में बीजेपी के सुब्रत पाठक विजयी हुए और सीट बीजेपी के खाते में आ गई. पाठक को कुल 563,087 वोट मिले थे. जबकि डिंपल को 5,50,734 वोट हासिल हुए. कन्नौज में मुस्लिम, दलित और यादवों का वर्चस्व है. यहां पर मुसलमानों की आबादी करीब तीन लाख है जबकि दलित और यादव आबादी कुल जनसंख्या का क्रमश: 2.8 और 2.5 फीसदी है.
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इस लोकसभा सीट के तहत कन्नौज, छिबरामऊ, तिरवा, बिधूना और रसूलाबाद आते हैं. साल 2009 में नए परसीमन के तहत कानपुर देहात में आने वाला रसूलाबाद कन्नौज में जुड़ गया. इसके कन्नौज से जुड़ने से यहां के समीकरण भी बदल गए. साल 2019 में डिंपल की हार का अंतर सिर्फ 13 हजार वोटों का ही रहा था. फिर भी इस सीट की हार सपा के लिए बड़ा झटका थी. रसूलाबाद वह क्षेत्र है जहां पर दलित वोटर्स ज्यादा हैं. इस क्षेत्र की वजह से डिंपल को पिछले लोकसभा चुनावों में हार का मुंह देखना पड़ा था. फिलहाल इस बार जीत किसकी होगी यह तो चार जून को ही पता लगेगा लेकिन अखिलेश अपने खोऐ हुए किले को फिर से हासिल करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं.