Cotton Farming: कपास भारत की एक महत्वपूर्ण नकदी फसल है, जिसे व्यापार जगत में 'सफेद सोना' के नाम से भी जाना जाता है. यह कपड़ा कंपनीयों की रीढ़ है और लाखों किसानों की आय का मुख्य स्रोत है. लेकिन कपास की खेती कर रहे किसानों को कई बातों का खास ध्यान रखना होता है. कपास की खेती के लिए जलवायु से लेकर मिट्टी,पानी,खाद आदि का ध्यान रखना होता है तब जाकर किसानों को फसल से अच्छी उपज मिलती है. ऐसे में अगर आप भी कपास की खेती करना चाहते हैं तो ये खबर आपके लिए है.
कपास के अंकुरण के समय तापमान कम से कम 16 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए. ऐसा करने से फसल की पैदावार बढ़ती है. फसल के उगने के दौरान तापमान 21 से 27 डिग्री सेल्सियस के बीच होना चाहिए. फल लगने के समय तापमान अलग होता है. इस समय दिन में तापमान 27 से 32 डिग्री सेल्सियस और रात में ठंडा होना चाहिए, तभी उत्पादन अच्छा होगा. बीज के फूटने के लिए तेज धूप और शुष्क मौसम जरूरी है. बारिश कम से कम 50 सेमी वर्षा आवश्यक है.
कपास की खेती के लिए ऐसी मिट्टी चाहिए जिसमें पानी को रोकने और बाहर निकालने दोनों की अच्छी क्षमता हो. सिंचाई वाले क्षेत्र के लिए बलुई या बलुई-दोमट मिट्टी सही मानी जाती है. साथ ही मिट्टी का पीएच मान 5.5 से 6.0, लेकिन 8.5 तक की मिट्टी में भी किसान कपास की खेती कर सकते है.
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फसल चक्र अपनाने से मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है और कीट-रोग नियंत्रण में भी मदद मिलती है.
गेहूं की फसल के लिए कपास की जल्दी पकने वाली किस्म और गेहूं की देर से बोने वाली किस्म का चयन करना चाहिए. ताकि किसान दोनों ही फसल से अच्छी आमदनी कमा सकें.
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स्वस्थ फसल के लिए बीज का उपचार बेहद जरूरी है. फसलों की बुवाई से पहले बीज उपचार करने की सलाह दी जाती है. ताकि बीजों में लगे बीमारी का इलाज पहले ही किया जा सके. इससे ना सिर्फ फसलों की उपज बढ़ती है बल्कि मिट्टी की उर्वरक क्षमता भी बनी रहे.
फसलों को कीटों से बचाने के लिए इमिडाक्लोरोप्रिड 7.0 ग्राम या कार्बोसल्फॉन 20 ग्राम प्रति किलो बीज में मिलाकर इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है.
फसलों में दीमक की समस्या बहुत आम है. यह फसलों में लगकर फसल को पूरी तरह से नष्ट कर देता है. फसलों को इससे बचाने के लिए 10 मिली क्लोरोपाईरीफॉस को 10 मिली पानी में मिलाकर बीज पर छिड़कें. फिर बीज को 30-40 मिनट छाया में सुखाकर बोएं.
खरपतवार फसल की उपज कम कर सकते हैं, इसलिए इनका समय पर नियंत्रण जरूरी है. इसके लिए 3-4 बार गुड़ाई करें. पहली गुड़ाई सूखी अवस्था में, बुआई के 30-35 दिन बाद करें. गूलर और फूल बनने पर कल्टीवेटर का प्रयोग न करें. ऐसे स्थिति में हाथ से निराई करने की सलाह दी जाती है.