पहाड़ी राज्यों में अमूमन अरहर की खेती नहीं होती. होती भी है तो बहुत कम मात्रा में. वह भी खेतों की मेड़ या छोटी जगहों पर. लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों के किसान अरहर की खेती करें तो उन्हें कई लाभ हो सकते हैं. उत्पादन और कमाई के अलावा भी कई तरह के लाभ मिल सकते हैं. पहाड़ी क्षेत्रों में अपेक्षाकृत पानी की कमी होती है. इस लिहाज से अरहर की खेती फायदेमंद रहेगी क्योंकि इसे सूखे में भी उगाया जा सकता है और अच्छी पैदावार लिया जा सकता है.
इसके अलावा, अरहर की पत्तियां चारे के रूप में भी पशुओं के भोजन के लिए बहुत उपयोगी हैं. सस्ते में इसका इस्तेमाल पशुओं का पेट भरने के लिए किया जा सकता है. यह घरेलू ईंधन का भी एक महत्वपूर्ण स्रोत है. साथ ही इसके तने की लकड़ी छप्पर और अस्थाई बाड़ बनाने के काम आती है. इसकी शाखाओं का टोकरी बनाने और फलों, सब्जियों की पैकिंग मैटेरियल के रूप में उपयोग किया जा सकता है. ये सभी बातें ऐसी हैं जो पहाड़ी राज्यों के लिए अरहर को फायदेमंद फसल बनाती हैं.
जब इतने फायदे हैं तो पहाड़ों में अरहर की खेती क्यों नहीं होती? इसका जवाब है कि पहाड़ी राज्यों के लिए कम अवधि वाली अरहर की किस्मों की कमी है. यही वजह है कि किसान इसकी खेती करने से बचते हैं. कम अवधि वाली किस्म कम उपज भी देती है जिसके कारण किसान इसकी खेती नहीं करना चाहते. इस वजह से पहाड़ी राज्यों में अरहर की सप्लाई भी कम है. यहां तक कि दूसरे राज्यों से अरहर मंगाया जाता है तब जाकर लोग इसकी दाल बनाते हैं. आप इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि उत्तराखंड में 3-4 हेक्टेयर में ही अरहर की खेती होती है.
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इस सभी समस्याओं को देखते हुए वैज्ञानिकों ने पहाड़ी राज्यों के लिए कम अवधि में पकने वाली अरहर की किस्में तैयार की हैं. ये किस्में कम उपजाऊ, कंकरीली और पथरीली जमीन में उग सकती हैं अच्छी पैदावार दे सकती हैं. पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में अरहर के क्षेत्रफल और उत्पादन बढ़ाने की दिशा में बीते वर्षों में काफी प्रयास किए गए. इसके लिए अरहर की ऐसी उन्नत प्रजातियों के विकास पर जोर दिया गया, जो उच्च उत्पादन क्षमता के साथ-साथ कम अवधि वाली हों साथ ही रोग और कीट रोधी भी हों.
ICAR की एक रिपोर्ट के मुताबिक, विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा की ओर से साल 2007 में अरहर की कम अवधि (130-135 दिनों) की प्रजाति वी.एल. अरहर 1 का विकास किया गया. यह अनियमित बढ़वार वाली, लंबी (1.5-2.0 मीटर) ऊंचाई वाली प्रजाति है. इसकी उच्च उपजशीलता (18-20 क्विंटल/हैक्टर), म्लानि प्रतिरोधिता के साथ-साथ वर्षाश्रित और जैविक अवस्थाओं के प्रति अनुकूलता ने मध्यम ऊंचाई वाले पर्वतीय क्षेत्रों में अरहर उत्पादन को बढ़ावा दिया है. इसकी खेती मई अंत में जून के पहले पखवाड़े में करें तो अच्छी उपज मिलेगी.
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