
बिहार में गन्ने की खेती और चीनी उत्पादन पिछले एक दशक में लगातार कम हुए हैं. यह गिरावट किसी एक कारण का नतीजा नहीं, बल्कि किसानों, चीनी मिलों और सरकारी नीतियों के बीच बढ़ते अविश्वास और राजनीतिक कारणों की देन है. 'किसान तक' ने किसानों, उद्योग से जुड़े लोगों और विशेषज्ञों के दावों को समझने की कोशिश की कि बिहार में गन्ना क्यों घटा और चीनी मिलें क्यों बंद होने लगीं.
शुगर मिलों से जुड़े लोगों का कहना है कि गन्ने की खेती महंगी होती गई और किसानों को मिलने वाला मूल्य भी बढ़ा. हालांकि, मिल मालिकों का दावा है कि बाजार में चीनी की कीमतें उसी अनुपात में नहीं बढ़ीं. इंडस्ट्री के लोगों का कहना है कि गन्ने की खेती महंगी हुई तो गन्ने का रेट भी बढ़ा. इससे किसानों को फायदा हुआ. लेकिन जिस गति से गन्ने का रेट बढ़ा, उस स्पीड से चीनी का भाव नहीं बढ़ा. लिहाजा, शुगर इंडस्ट्री पर ऑपरेशनल कॉस्ट का दबाव बढ़ता गया. जो मिलें इस दबाव को नहीं झेल सकीं, उसे बंद होना पड़ा. मिलें बंद हुईं तो चीनी उत्पादन भी गिर गया.
एक एक्सपर्ट ने बताया, “अगर चीनी का दाम वही रहे और गन्ने की कीमत लगातार बढ़ती जाए, तो मिलें लंबे समय तक चल ही नहीं सकतीं.” इंडस्ट्री का दावा है कि कई मिलें इसी अंतर को सहन न कर पाने के कारण बंद हो गईं और इसका सीधा असर चीनी उत्पादन पर पड़ा.
दूसरी तरफ किसान एक बिल्कुल अलग कहानी बताते हैं. गन्ना किसान कहते हैं कि उन्होंने पूरी मेहनत से फसल खड़ी की, कटाई कर समय पर मिलों को सप्लाई भी दी, लेकिन भुगतान समय पर नहीं मिला. कई किसानों ने बताया कि उनका बकाया तीन-तीन साल तक फंसा रहा. एक किसान का कहना था, “गन्ना तो बो दिया, पर पैसे कब मिलेंगे-इसका कोई भरोसा नहीं. बच्चे की फीस, घर का खर्च—सब कैसे चले?”
किसानों के अनुसार, वैकल्पिक फसलों से बेहतर तात्कालिक लाभ के कारण उन्हें गन्ने की खेती से मुंह मोड़ना पड़ा. जब गन्ने से फायदा ही नहीं रहा तो उन्होंने धीरे-धीरे गन्ने से दूरी बनानी शुरू कर दी. रकबा घटा और नतीजतन चीनी मिलों की सप्लाई भी कम होती गई.
मोतिहारी के प्रगतिशील किसान और गन्ना विशेषज्ञ विजय कुमार पांडेय इस गिरावट की कई वजहें गिनाते हैं. वे दोनों पक्षों के तर्कों से सहमत होते हुए कहते हैं कि सरकार की लंबे समय तक जारी उदासीनता ने इस समस्या को गहरा किया.
उनके अनुसार, गन्ने की वैरायटी पुरानी रहीं. रिसर्च और नए बीजों पर ध्यान नहीं दिया गया. मिलों की मशीनें पुरानी पड़ी रहीं. किसानों को समय पर भुगतान नहीं मिला. गन्ने की खेती और किसान सरकार की प्राथमिकता में नहीं रहे. वे कहते हैं, “जब रिसर्च बंद हो, तकनीक पुरानी हो और किसान का पैसा अटका रहे—तो खेती कैसे बढ़ेगी?”
हालांकि पांडेय मानते हैं कि पिछले दो-तीन सालों में हालात बदलने शुरू हुए हैं. उन्होंने बताया कि नई हाई-रिकवरी वैरायटी के आने से उत्पादन बढ़ रहा है. कुछ मिलें बगास से बिजली और प्रेस मड से खाद तैयार कर रही हैं. चंपारण में हरिनगर और नरकटियागंज मिलें किसानों को डिलीवरी के दिन या अगले दिन ही भुगतान दे रही हैं.
जरूरत पड़ने पर एडवांस भी उपलब्ध है. यह मॉडल फिलहाल चंपारण तक सीमित है, लेकिन किसानों को उम्मीद है कि अगर इसी तरह की पहल बाकी जिलों में भी फैले तो गन्ना उत्पादन फिर से बढ़ सकता है.
बिहार के अन्य प्रमुख गन्ना क्षेत्रों में चुनौतियां अलग हैं. विशेषज्ञ बताते हैं कि खेती के कई इलाके लो-लैंड हैं, जहां बरसात में पानी भर जाता है. इससे गन्ने की क्वालिटी और रिकवरी रेट दोनों प्रभावित होते हैं. कई जगह मिट्टी का pH स्तर गन्ने के अनुकूल नहीं है. उत्पादन कम होने से मिलों को पर्याप्त सप्लाई नहीं मिलती. इससे धीरे-धीरे मिलें बंद हो गईं और किसान दूसरी फसलों पर चले गए. विशेषज्ञों का कहना है कि इन क्षेत्रों की मिट्टी-सुधार, ड्रेनेज सिस्टम और सही वैरायटी अपनाकर स्थिति बदली जा सकती है.
बिहार में अब कुछ ऐसी गन्ना किस्में उपलब्ध हैं जिनकी रिकवरी रेट 16% तक बताई जा रही है—जो उत्तर भारत के लिए बहुत अच्छा माना जाता है. विशेषज्ञ मानते हैं कि समय पर भुगतान, सही सपोर्ट प्राइस, मिट्टी और जल निकासी में सुधार, मिलों की आधुनिक तकनीक, इन सबके संयोजन से बिहार गन्ने के क्षेत्र में फिर से मजबूत स्थिति हासिल कर सकता है.
एक्सपर्ट कहते हैं कि बिहार में गन्ना और चीनी उत्पादन में गिरावट सिर्फ किसानों या उद्योग की गलती नहीं—यह नीतियों, तकनीक, भुगतान व्यवस्था और जमीन की चुनौतियों का लंबा असर है. जहां एक ओर कुछ इलाके सुधार की दिशा में तेजी से बढ़ रहे हैं, वहीं कई क्षेत्रों में अब भी बुनियादी समस्याएं हैं. आने वाले वर्षों में यह देखने वाली बात होगी कि क्या बिहार की शुगर इंडस्ट्री इन प्रयासों से नई शुरुआत कर पाती है?