बिहार विधानसभा चुनाव में महिलाओँ की भूमिका अहम हैमॉनसून की विदाई के साथ ही बिहार की फ़िजाओं में हल्की ठंडक घुलने लगी है, और इसी गुनगुनी ठंड के बीच विधानसभा चुनाव के एलान ने गांव-गांव में राजनीतिक हलचलें तेज कर दी हैं. 'किसान तक' की टीम जब पटना जिले के गौरीचक गांव पहुंची, तो शाम के करीब साढ़े सात बज रहे थे. आमतौर पर चहलकदमी से भरी रहने वाली गलियां अब शांत थीं, लेकिन एक गली में अब भी रौनक थी. यहां महिलाओं की एक पंचायत बैठी थी. इस ठंडी शाम में चूल्हे की आंच जैसी गर्मजोशी लिए महिलाएं घर-परिवार, खेती-बाड़ी और सरकार की ओर से रोजगार करने के लिए मिले 10,000 रुपये की चर्चा कर रही थीं. इस रकम के साथ उनके मन में कई तरह के सवालों का उदय भी हो रहा था. उनके इन सवालों को समझने के लिए हम भी उनकी पंचायत में सवालों के साथ पहुंच गए. क्योंकि यह समझना जरूरी है कि यह सिर्फ चुनावी झुनझुना है या वाक़ई बदलाव की शुरुआत?
पटना जिले के गौरीचक गांव की रहने वाली हीरामणि देवी मोबाइल थामे कहती हैं, "अब मोबाइल की वजह से बहुत कुछ आसान हो गया है, इससे जीविका की मीटिंग हो जाती है." वहीं, इसी मोबाइल से वह अपने जीविका से जुड़ी समूह की महिलाओं को बुलावा भी भेज देती हैं. वह कहती हैं कि इसी मोबाइल पर रोजगार करने के लिए सरकार की ओर से भेजी गई ₹10,000 आने की सूचना भी मिली. हालांकि अभी पैसा बैंक में जमा है और इसमें और भी रकम बढ़ाकर गाय खरीदने की योजना है. "बीस-पच्चीस हजार में कामचलाऊ गाय मिल जाएगी." राजनीति पर भी राय देती हैं और कहती हैं कि "सरकार काम तो अच्छा कर रही है, लेकिन बदलाव की जरूरत है." वह पटना की मेट्रो का ज़िक्र करते हुए कहती हैं, "पहले मेट्रो नहीं था, अब मेट्रो चल रहा है. हमारे लिए तो सपना जैसा है.
हालांकि इसी भीड़ में बैठी अनीता देवी की कहानी इससे उलट है. वह जीविका से जुड़ी हैं, लेकिन अब तक ₹10,000 की सहायता राशि नहीं मिली. वह कहती हैं कि "12 साल से जीविका में हूं, लेकिन पैसा नहीं आया. क्यों नहीं आया, ये भी नहीं पता." उनके घर में मिठाई की दुकान है, फिर भी इस योजना से उन्हें कोई लाभ नहीं मिला.
गांव की बहू विक्की कुमारी बताती हैं कि महिलाओं को अब भी असली आज़ादी नहीं मिली है. "शाम 7 से आठ बजे के बाद बाहर निकलने में डर लगता है, न जाने क्या हो जाए. उन्हें भी ₹10,000 मिले, जिससे उन्होंने अपने पति की दुकान में फोटो कॉपी मशीन लगाई है. हालांकि, "मशीन 30,000 की थी, बाक़ी पैसे पति ने दिए." वह कहती हैं, जीविका से जुड़ी हैं लेकिन कोई रोजगार नहीं है, जो है भी वह प्रखंड स्तर पर है. आने वाली सरकार, जिसकी भी हो, वह गांव स्तर पर रोजगार स्थापित करने का कार्य करे. तभी महिलाओं का उत्थान संभव है.
इन तमाम महिलाओं के बीच बबीता देवी की आंखें थोड़ी नम हैं. वह कहती हैं कि सरकार दस हज़ार रुपये न दे तो भी चलेगा, लेकिन सूखा नशा – ड्रग्स, सॉल्यूशन, इंजेक्शन वाला नशा बंद करवा दे. क्योंकि राज्य में कहने को शराब बंद है, लेकिन वह तो चालू ही है. इसके साथ ही सूखे नशे की चपेट में छोटे-छोटे बच्चे आ रहे हैं. वह अपने 18 साल के बेटे की हालत बताती हैं कि उसने सूखा नशा शुरू कर दिया है. इलाज करवा चुकी हूं, नशा मुक्ति केंद्र भेजा. पर कुछ नहीं बदला. "सरकार से मिलने वाली राशि से क्या होगा जब बेटा ही नहीं बचेगा? सरकार दारू बंद करती है, लेकिन गांव में नशा हर कोने में मिल रहा है.
उनका कहना है कि पहले शराब उम्रदराज लोग पीते थे, अब बच्चे भी नशे की गिरफ्त में हैं. "दारू चालू रहता तो ठीक था, अब जो सूखा नशा है, वो बच्चों के दिमाग पर असर डाल रहा है. शराबबंदी के बाद हालात और बिगड़े हैं – "अब छोटे-छोटे बच्चे ड्रग्स ले रहे हैं. सॉल्यूशन, इंजेक्शन, हेरोइन. 10-15 साल के बच्चे खत्म हो रहे हैं!"
रामझरिया देवी जीविका से जुड़ी हैं, लेकिन उनके पास कोई काम नहीं है. वहीं, घर में अनाज की किल्लत न हो, इसके लिए वह 2 बीघा जमीन 24,000 रुपये में लीज पर ली थीं, लेकिन फसल की स्थिति संतोषजनक नहीं है. वह कहती हैं कि अब खेती का भी भरोसा नहीं रहा. वहीं, व्यंग्य में कहती हैं "₹10,000 में कौन सा व्यापार होता है जी?" वह चाहती हैं कि सरकार गांव स्तर पर लघु उद्योग लगाए, जिससे महिलाएं अपने घरों से काम कर सकें.
वह सरकार पर सीधा आरोप लगाती हैं. "शराबबंदी झूठ है, पुलिस ग़रीबों को पकड़ती है, अमीरों को छोड़ देती है. बेटी पढ़ाओ-बचाओ सिर्फ़ नारा है... हक़ीक़त में बेटियां न डर के बिना बाहर जा सकती हैं, न पढ़ाई पूरी कर सकती हैं."
महिलाओं के लिए चुनाव लोकतंत्र का उत्सव नहीं, बल्कि अपने बच्चों के भविष्य की लड़ाई महिला पंचायत की इस चर्चा में बबीता, विक्की देवी, हीरामणि देवी और रामझरिया देवी की बातें एक गहरे सामाजिक संकट की ओर इशारा करती हैं. चुनाव, वादे और घोषणाओं से इतर इन महिलाओं की असली चिंता घरों में बेरोजगारी से जूझ रहे बेटे और नशे की गिरफ्त में फंसती युवा पीढ़ी है.
गांजा, सॉल्यूशन, शराब और इंजेक्शन जैसे नशे अब गांव के किशोरों तक को अपनी चपेट में ले चुके हैं. इन माओं के चेहरे पर चिंता की लकीरें इस बात का सबूत हैं कि उनके लिए वोट का मतलब सिर्फ़ लोकतंत्र का उत्सव नहीं, बल्कि अपने बच्चों के भविष्य की लड़ाई है. इस एक गली की चर्चा दरअसल पूरे समाज की दशा और दिशा को आइना दिखा रही थी . चुनावी वादों से नहीं, ज़मीनी हकीकतों से!
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