मोटे अनाज यानी श्री अन्न, भोजन से मिलने वाले पोषक तत्वों का भंडार हैं. इस बात को समझ कर ही हमारे पूर्वज Millets की भरपूर खेती करते थे. कालांतर में महज उत्पादन बढ़ाने वाली खेती के इस दौर में श्री अन्न की खेती नेपथ्य में चली गई. Hybrid Seed से उपजे अन्न में पोषण के अभाव ने एक बार फिर श्री अन्न के महत्व को स्थापित कर दिया है. एमपी के विंध्य क्षेत्र में सतना के रहने वाले 'पद्मश्री' किसान बाबूलाल दाहिया मध्य भारत के किसानों को श्री अन्न के महत्व से अवगत कराते हुए उन्हें अपने पारंपरिक अनाजों की खेती के गुर भी सिखाते हैं. श्री अन्न के बारे में पारंपरिक ज्ञान ही Millets Farming को आगे बढ़ाने का एकमात्र स्रोत है. यही वजह है कि 85 वर्षीय दाहिया भावी पीढ़ी तक इस ज्ञान परंपरा को पहुंचा रहे हैं. सैकड़ों किस्म के अनाजों के Native Seeds का संग्रह कर खेती कर रहे वयोवृद्ध किसान दाहिया इन बीजों का प्रसार भी कर रहे हैं. खरीफ सीजन में उपजाए जाने वाले मोटे अनाज सांवा के महत्व को वह स्थानीय लोकोक्तियों के माध्यम से उजागर करते हैं.
'सावन भादों' की यह बारिश Kharif Season के मोटे अनाजों के लिए प्राणवायु की सौगात बनकर आती है. खेती और धरती की सेहत के लिहाज से सबसे ज्यादा अहमियत वाला श्री अन्न सांवा है. दाहिया बताते हैं कि सावन की बारिश सांवा को पका देती है. इसीलिए किसान कहते हैं कि 'जो सावन में पक जाए, वह सांवा कहलाए.'
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सांवा की खूबियों का जिक्र करते हुए दाहिया कहते हैं कि यूं तो रोटी और भात में प्रयुक्त होने वाले खरीफ फसलों के अनाजों में धान, कोदो, सांवा, कुटकी, काकुन, मक्का, ज्वार, बाजरा आदि अनेक अनाज उगाए जाते हैं. लेकिन, इन सब में सबसे पहले पकने की क्षमता कुदरत ने सांवा को ही दी है. इसलिए जन कवियों ने इसके बारे में सही ही कहा है कि :
सांवा जेठा अन्न कहाए,
सब अनाज से आगे आए.
इसका मतलब है कि सभी प्रकार के अनाजों में सांवा सबसे पहले पक कर तैयार हो जाता है. इसीलिए सांवा को सभी अनाजों का 'दादा भाई' कहा जाता है. इसकी एक और खूबी यह है कि अगर इसे बाेने में देर भी हो जाए, तब भी इसकी उपज पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता है. यह दो चार दिन के अंतर से पछेती बुआई के असर को खत्म कर देता है.
इसके पीछे वयोवृद्ध किसान दाहिया दलील देते हैं कि सांवा उन वनस्पतियों में शुमार है जो सूर्य गणना के अनुसार अपना जीवन चक्र पूरा करती हैं. चूंकि सावन और भाद्रपद माह, चन्द्र गणना वाले महीने होते हैं, इसलिए सांवा रात और दिन का भेद भुलाकर अपना जीवन चक्र सबसे पहले पूरा कर लेता है.
उनका कहना है कि वैसे भी खरीफ सीजन के सभी मोटे अनाज वर्षा ऋतु समाप्त होने से पहले 20 से 30 सितंबर तक पक कर तैयार हाे जाते हैं, लेकिन सांवा इन सभी में अव्वल रहते हुए सावन में ही पक जाता है. शायद इसलिए इसका नाम भी सांवा पड़ गया.
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दाहिया बताते हैं कि सांवा के बीज को मानसून की पहली बारिश होने के तुरन्त बाद ऊंचे खेतों में एक या दो बार की हल्की जुताई करके छिड़क कर बोया जाता है. सांवा, ऐसा अनाज होता है, जिसकी बुआई के बाद किसान खेत में खरपतवार के उपजने की चिंता से मुक्त हो जाते हैं.
वह कहते है कि सांवा बोने के बाद फिर किसी खरपतवार की क्या मजाल कि खेत में उग आए. उनका दावा है कि सांवा, सभी प्रकार की घासों के लिए भी महा घास मानी गई है. इसीलिए सांवा को खरीफ सीजन की फसलों का दादाभाई कहा गया है.
वह सांवा की तीसरी सबसे बड़ी खूबी बताते हैं कि यह सूखा को सहन करने की जबरदस्त क्षमता है. इसमें इतना सूखा सहने की क्षमता होती है कि यह महज दो बार की बारिश में ही पक जाता है.
मोटे अनाजों के फसल चक्र की खूबियों का जिक्र करते हुए दाहिया बताते हैं कि हमारे देश की वर्षा आधारित खेती में सांवा सबसे पहले सावन के महीने में पक जाता है. वहीं, भादों माह में कुटकी, काकुन, मकई पक जाती है.
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इसके बाद क्वांर के महीने में सिकिया, सरैया, श्यामजीर, करधना जैसे स्थानीय किस्म के मोटे अनाज पक कर तैयार हो जाते हैं. फिर आता है कार्तिक महीना, जिसमें धान के अलावा नेवारी, सेकुरसार और झोलार जैसे अन्य अनाज पकते हैं.
उन्होंने बताया कि इस समय तक किसानों को सर्दी के मौसम में खाए जाने वाले अनाजों के पकने का इंतजार रहता है. किसानों का यह इंतजार कार्तिक के बाद अगहन महीने में ज्वार बाजरा और कोदो पक कर पूरा कर देते हैं. बकौल दाहिया, किसानों का अटल विश्वास है कि सर्दी के इन अनाजों काे खाकर कड़ाके की सर्दी में जुकाम तक नहीं हो पाता है. यानी ये मोटे अनाज ही ठंड में शरीर के सुरक्षा कवच बन जाते हैं. हर महीने पकने वाले अनाजों के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए दाहिया बताते हैं कि अगहन के बाद माघ में मसूर तथा फाल्गुन के खत्म होने से पहले जौ और चना पक जाते हैं.
दाहिया बताते हैं कि गांव की खाद्य परंपरा में भोजन पूर्ण तभी माना जाता है, जब थाली में पोषण की पूर्ति हो जाए. इसके लिए थाली का अनिवार्य अंग माने गए मोटे अनाजों का स्वाद, इनके साथ दाल भाजी की मौजूदगी को अनिवार्य बना देता है. वह भी दो गुनी मात्रा में दाल सब्जी लिए बिना मोटे अनाजों का सेवन किया ही नहीं जा सकता है.
यही वजह है कि Protein, Vitamins, Minerals और Fiber सहित अन्य पोषक तत्वों की पूर्ति करने के लिए थाली में मोटे अनाजों के साथ दोगुनी मात्रा में दाल और सब्जी का होना अनिवार्य है. उनका कहना है कि वैसे भी मोटे अनाजों का स्वाद कुछ ऐसा होता है कि कोई चाहकर भी दाल सब्जी के बिना इन्हें खा ही नहीं सकता है.
उनकी दलील है कि इस प्रकार दाल भाजी के कारण खाना लजीज होने की जीभ की लालसा पूरी करते हुए शरीर के पोषण की जरूरत पूरी हाे जाती है. वह कहते है कि इसी वजह से भारतीय भोजन की पारंपरिक थाली काे संतुलित आहार से युक्त होने का दर्जा मिला है.
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दाहिया कहते हैं कि औषधीय गुणों से युक्त मोटे अनाज शरीर को स्वाभाविक रूप से भरपूर पोषक तत्व देते हैं. इतना ही नहीं ये अकाल या दुर्भिक्ष के सच्चे साथी भी हैं. क्योंकि इनकी 150 से 200 ग्राम से ज्यादा मात्रा का कोई सेवन ही नहीं कर सकता है. साथ ही मोटे अनाज आहिस्ता आहिस्त हजम होते हैं, इसलिए ये किसानों की दिन भर काम करने की क्षमता को भी कायम रखते हैं. यही वजह है कि अकाल के समय भी इन्हें थोड़ा सा खाकर काम चलाया जा सकता है.
उनका कहना है कि भारत की वर्षा आधारित खेती का यही फसल चक्र इसे पूर्णता की ओर ले जाता है. हर महीने के मौसम के लिहाज से शरीर की जरूरत को पूरा करने के लिए एक के बाद दूसरा अनाज खेत में पकता जाता है और हमारे भोजन में शामिल होता जाता है.
श्री अन्न के फसल चक्र के आधार पर दाहिया का दावा है कि एक किसान अपने एक ही खेत में 8 से 10 प्रकार के अनाज उगा कर स्वस्थ और संतोषप्रद जीवन यापन कर सकता है. यही वजह है कि तथाकथित हरित क्रांति से पहले की खेती, बाजार यानी सेठ के लिए नहीं, बल्कि सेहत यानी पेट के लिए होती थी. जो किसान को किसी भी प्रकार से घाटा होने की आशंका से मुक्त रखती थी.
उनका कहना है कि इस खेती से मिलने वाले अन्न की वजह से ही Blood Pressure, Diabetes और कैंसर जैसी बीमारियों का वजूद ही नहीं था. इतना ही नहीं यह अनाज इंसान के पेट की ही नहीं, बल्कि पशुधन और खेत की जरूरत को भी पूरा करते थे. मतलब साफ है कि किसान पहले वही अनाज बोता था, जो उसका खेत मांगता था. इसीलिए दर्जन भर किस्म के अनाज उपजाने वाली खेती में Crop Diversification के कारण मिट्टी की सेहत (Soil Health) भी बरकरार रहती थी. सही मायने में यही मुनाफे की खेती थी जो संतुलित और सतत खेती (Sustainable Farming) भी कहलाती थी.
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दाहिया ने खेती से जुड़े अपने लंबे अनुभव का हवाला देते हुए कहा कि Green Revolution के नाम पर शुरू हुई तथाकथित आधुनिक खेती, इंसान से लेकर खेत तक, सभी की जरूरतों को नजरंदाज कर रही है. उन्होंने दावा किया कि इस खेती के शुरू होने के 6 दशक बाद आज से हो रहा विनाश, खेती की वैज्ञानिक परंपरा वाले देश भारत के लिए, घोर त्रासदी है.
उन्होंने कहा कि अब किसान पेट के लिए नहीं, बल्कि सेठ के लिए खेती कर रहा है. इसीलिए इस दौर की खेती से सिर्फ सेठ यानी बाजार को ही फायदा हो रहा है. किसान अब वही अनाज उगाता है, जिसे बाजार मांगता है, और बाजार की मांग वाले अनाज का बीज भी किसान को बाजार से ही मिलता है. कुल मिलाकर आज का किसान बाजार पर ही निर्भर हो गया है, इसलिए अब किसान विपन्न है, खेती से जुड़े कारोबारी संपन्न हैं और किसान की उपज को भोजन के रूप में खाने वाले रोगग्रस्त हैं.
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