केंद्र सरकार ने एमएस स्वामीनाथन को भारत रत्न देने का ऐलान किया है. इसके साथ ही एमएस स्वामीनाथन चर्चा में आ गए हैं. लोग इनके बारे में गूगल पर सर्च कर रहे हैं. दरअसल, एमएस स्वामीनाथन को हरित क्रांति का जनक कहा जाता है. इनकी वजह से भारत अनाज उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बन पाया है. इनका जन्म 7 अगस्त, 1925 को तमिलनाडु के तंजावुर जिले में हुआ था. उन्होंने 28 सितंबर 2023 को अंतिम सांस ली. वह एक कृषि वैज्ञानिक और प्रशासक थे. उन्होंने धान की उच्च उपज देने वाली कई किस्मों को विकसित की, जिससे देश में हरिक क्रांति आ गई. आज हम टाइमलाइन के जरिए समझेंगे कि आखिर भारत में हरित क्रांति की शुरुआत कब और कैसे हुई.
भारत में हरित क्रांति की शुरुआत 1968 में हुई थी. इसका मुख्य उदेश्य देश को अनाज उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बनाना था. साथ ही खेती को आधुनिक और तकनीकी आधारित बनाना था. इसके लिए धान, गेहूं सहित कई फसलों की उन्नत बीज विकसित किए गए. पहले साल 24 लाख हेक्टेयर में आधुनिक विधि से ज्यादा उपज देने वाले बीजों की बुवाई की गई, जिससे उत्पादन बढ़ गया. इसके बाद साल 1971 आते- आते उन्नत बीजों का रकबा बढ़ कर 1.5 करोड़ हेक्टेयर हो गया. इससे देश में हरि क्रांति की लहर आ गई. इसका असर सबसे पहले पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश की खेतों में देखे को मिला. हरित क्रांति की वजह से देश में अनाज का प्रोडक्शन बढ़ गया. साल 1971 में अनाज की कुल पैदावार 10.4 करोड़ टन तक पहुंच गई, जोकि 1965-1966 की तुलना में 40 प्रतिशत अधिक पैदावार थी.
कहा जाता है कि एमएस स्वामीनाथन 1943 के बंगाल के अकाल को देखकर बहुत परेशान हुए थे. तभी उन्होंने जंतु विज्ञान की पढ़ाई छोड़कर कृषि विज्ञान को चुना, ताकि देश में अनाज की उपज बढ़ाई जा सके. वे पढ़ने में काफी मेधावी थे. स्वामीनाथन ने ही नॉर्मन बोरलॉग के प्रयोग को भारत में आगे बढ़ाने का काम किया. उन्होंने गेहूं की ज्यादा उपज वाली किस्म को अपनाने के लिए लोगों को जागरूक किया. वे 1972 से लेकर 1979 तक इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के अध्यक्ष भी रहे. उन्हें कृषि सेक्टर में विशेष योगदान के लिए पद्म भूषण से भी नवाजा गया है.
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स्वामीनाथन ने देश से भूखमरी मिटाने का काम किया है. उनके बदौलत देश में अनाज का उत्पादन बढ़ा और सभी को भरपेट भोजना मिलने लगा. उन्होंने भारत में गेहूं और चावल की पैदावार बढ़ाने के लिए कई उन्नत किस्मों को बढ़ावा दिया. स्वामीनाथन ने साइटोजेनेटिक्स, आयनीकरण विकिरण और रेडियो संवेदनशीलता जैसे क्षेत्रों पर भी अपना ध्यान फोकस किया. उन्होंने आलू, गेहूं और चावल पर मौलिक अनुसंधान में महत्वपूर्ण रोल अदा किया.
1964 से पहले भारत में मौजूद अपनी गेहूं की किस्मों में पैदावार काफी कम थी. साल 1950 में प्रति हेक्टेयर सिर्फ 663 किलो गेहूं पैदा होता था. हमारी अपनी किस्मों के गेहूं के तने 115 से 130 सेंटीमीटर तक लंबे हुआ करते थे. जिसकी वजह से वो गिर जाते थे. उन दिनों सिंथेटिक फर्टिलाइजर यूरिया भी आ गया था. ऐसे में हमें गेहूं का उत्पादन बढ़ाने के लिए गेहूं की बौनी वैराइटी की जरूरत थी, जो सिंचाई और यूरिया को सह सके, गिरे नहीं.
तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने किसी बौनी किस्म के बीज मंगाने की कोशिश की. बौनी किस्म का यह सीड मैक्सिको के इंटरनेशनल मेज एंड वीट इंप्रूवमेंट सेंटर यानी सिमिट से भारत लाया गया. उन दिनों डॉ. नॉर्मन बोरलॉग सिमिट में एग्रीकल्चर रिसर्चर थे. वहां वो मैक्सिकन ड्वार्फ (अर्ध-बौनी), उच्च उपज और रोग प्रतिरोधी गेहूं की किस्में विकसित करने में जुटे हुए थे. बौनी किस्मों के गेहूं का बीज भारत के खेतों तक पहुंचाने के काम को मैक्सिको से डॉ. बोरलॉग और भारत से डॉ. एमएस स्वामीनाथन देख रहे थे.
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खास बात यह है कि भारत ने गेहूं की पैदावार बढ़ाने के लिए मैक्सिको के सिमिट से लर्मा रोहो, सोनारा-64, सोनारा-64-A और कुछ अन्य किस्मों 18,000 टन बीज का इंपोर्ट किया था. यह काम स्वामीनाथन के कारण ही संभव हो पाया. उन्हीं की लीडरशिप में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान दिल्ली, पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी लुधियाना और पंत नगर एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी ने दिल्ली, हरियाणा और पंजाब के कई स्थानों पर मैक्सिको से आए इन बौने गेहूं की किस्मों का ट्रॉयल किया. ट्रायल दिल्ली के जौंती गांव में भी हुआ था. टेस्ट में ये बौनी निकलीं और प्रोडक्टिविटी भारतीय किस्मों से कहीं अच्छी थी.
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