बीते कुछ दशकों में Chemical Farming का चलन बढ़ने के बाद किसान कुछ ऐसे मिथकों का शिकार हो गए, जिसके चलते वे अपने खेत पर पेड़ लगाने से परहेज करने लगे. रासायनिक खेती से मिट्टी, किसान और आम इंसानों की सेहत पर खतरा गहराने के बाद अब कृषि वानिकी को इस समस्या के समाधान के रूप में पेश किया जा रहा है. इसमें किसानों को जागरूक करने के लिए उन्हें बताया जा रहा है कि जिस किसान ने अपनाया 'खेत पर मेड़ और मेड़ पर पेड़' का फार्मूला, उसे नहीं रहेगा पैसों की कमी का झमेला. बंजर जमीनों की बहुतायत वाले बुंदेलखंड और विदर्भ जैसे इलाकों में इस तरह के जुमले किसानों को पेड़ों से परहेज करने के बजाय पेड़ों की खेती करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं. इतना ही नहीं इसे अपनाने वाले किसानों को अब पीएम नरेंद्र मोदी के वादे के मुताबिक Carbon Credit से भी पैसा मिलने का इंतजार है.
यूपी में झांसी स्थित रानी लक्ष्मीबाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के Agroforestry Department की ओर से बुंदेलखंड के किसानों को पेड़ों की खेती से रूबरू कराने की परियोजना चल रही है. विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. प्रभात तिवारी ने बताया कि जिन इलाकों में Chemical Farming के अत्यधिक इस्तेमाल से Soil Health पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है, उनमें कृषि वानिकी के सफल प्रयोग किए गए हैं. ये प्रयोग बंजर और कम उपजाऊ जमीन पर भी अच्छे परिणाम दे रहे हैं.
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डाॅ. तिवारी ने बताया कि लकड़ी की लगातार हो रही कमी को देखते हुए इमारती लकड़ी के रूप में अब Plywood का ही इस्तेमाल हो रहा है. इसके लिए किसानों को खेत में मालाबार नीम लगाने के लिए प्रेरित किया गया है. अगले दो साल में जब ये पेड़ पूरी तरह से लकड़ी देने के लिए तैयार होंगे, उसके पहले विश्वविद्यालय द्वारा प्लाईवुड कंपनियों से संपर्क किया गया है, जिससे ये पेड़ बेचे जा सके. इतना ही नहीं, जिन किसानों ने सहजन के पेड़ लगाए हैं, उन्हें इसकी पत्ती, फूल और फली की बाजार से उचित कीमत दिलाने के उपाय किए गए हैं.
डॉ. तिवारी ने बताया कि एग्रो फोरेस्ट्री में महज 4 से 5 साल के जीवन काल वाले पेड़ ही खेतों पर लगाए जाते हैं. इससे किसानों को मुनाफे के लिए लंबे समय तक इंतजार नहीं करना पड़ता है. अगर सागौन की ही बात की जाए तो देसी किस्म के सागौन को Full Growth लेने में 15 से 20 साल लगते हैं. इसकी जगह किसान हाइब्रिड सागौन लगा सकते हैं. जो 4 से 5 साल में Full Growth प्राप्त कर लेता है.
इसी तरह मालाबार नीम और सहजन का Growth Period 4 से 5 साल ही है. वहीं, पानी की प्रचुरता वाले पश्चिमी यूपी इलाके में पपलर का पेड़ किसान अपने खेतों की मेड़ पर लगाकर अतिरिक्त आय अर्जित करते हैं. इस पेड़ की लकड़ी का इस्तेमाल माचिस की तीली बनाने में होता है.
डॉ. तिवारी ने बताया कि कृषि वानिकी से अतिरिक्त आय के अलावा मिट्टी की सेहत भी सुधरती है. इन पेड़ों से खेत को पत्ती की खाद मिलने से मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बढ़ती है. साथ ही पेड़ की जड़ें बारिश के पानी का अवशोषण करके जमीन का जलस्तर भी बढ़ाने में मदद करती हैं. इससे पर्यावरण संतुलन की दिशा में अहम मदद मिलती है.
इसके अलावा बंजर खेत में पेड़ लगाने से इन पेड़ों के नीचे छायादार माहौल में पनपने वाली फसल के रूप में हल्दी, अदरक और अरबी जैसे कंद लगाए जा सकते हैं. इससे किसानों को पेड़ के अलावा कंद की उपज से भी आय होती है. शोध में पाया गया है कि कम उपजाऊ या बंजर खेत से गेहूं या धान जैसी पारंपरिक फसलें उपजा कर किसान चार साल में जितना कमा पाते हैं, उससे दो से तीन गुना आय पेड़ और कंद फसलों से हो जाती है.
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डॉ. तिवारी ने बताया कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर Environment Protection के लिए किए जा रहे उपायों का फायदा भारत को मिले, इसके लिए पीएम मोदी ने Carbon Credit Project के प्रति विकसित देशों का रुख बदलने में अहम भूमिका निभाई है. इसके एवज में कार्बन उत्सर्जन में कमी करने के प्रयासों को वित्तीय लाभ देने के लिए कार्बन क्रेडिट की मुहिम दुनिया भर में तेज हुई है.
जल्द ही पेड़ लगाने वालों को कार्बन क्रेडिट के रूप में भी पैसा मिलेगा. इस योजना के तहत Satellite Imaging की मदद से यह पता चल जाएगा कि किस किसान के खेत पर किस प्रजाति के कितने पेड़ लगे हैं. इन पेड़ों से कार्बन उत्सर्जन में जितनी कमी आएगी, उसके एवज में खेत मालिक किसान को एक निश्चित राशि मिलेगी.
उन्होंने बताया कि कार्बन क्रेडिट के लिहाज से एग्रो फॉरेस्ट्री में उन पेड़ों को प्रोत्साहित किया जा रहा है, जो ज्यादा मात्रा में कार्बन उत्सर्जन को कम करते हैं. इस प्रकार जल्द ही कृषि वानिकी को अपनाने वाले किसानों को कार्बन क्रेडिट के रूप में भी आय हाे सकेगी.
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