देश में अगर रत्तीहभर हींग की भी जरूरत होती है तो वो हमें ईरान, अफगानिस्ताएन, कजाकिस्तान और उज्बेकिस्तान से आयात करनी पड़ती है. मौजूदा आंकड़ों की मानें तो हर साल हम करीब एक हजार करोड़ रुपये का हींग बनाने वाला रॉ मेटेरियल आयात करते हैं. लेकिन अच्छी बात यह है कि आने वाले दो से तीन साल में हम देश में ही उगी हींग खा सकेंगे. इसके बाद हींग आयात करना तो दूर की बात हम हींग को निर्यात करने की हालत में होंगे. इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी (आईएचबीटी), पालमपुर, हिमाचल प्रदेश रात-दिन इसके लिए मेहनत कर रहा है. चार राज्यों के ठंडे इलाकों में आईएचबीटी की रिसर्च चल रही है.
आईएचबीटी की मानें तो हींग के पौधे प्राकृतिक रूप से बढ़ रहे हैं. अभी तक पौधों पर किसी भी तरह का कोई खतरा नहीं है. अगर सब कुछ अच्छा रहा तो दो से तीन साल बाद पौधों से अच्छी क्वालिटी का ओलियो गम रेजिन (दूध) मिलना शुरू हो जाएगा. अभी तक एक साल में करीब एक हजार करोड़ रुपये का रेजिन विदेशों से आ जाता है.
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आईएचबीटी के साइंटिस्टक डॉ. अशोक कुमार ने किसान तक को बताया कि हींग के पौधे को ठंडा और शुष्क मौसम चाहिए होता है. ऐसा जहां बारिश कम हो और बर्फ पड़ती हो. इस तरह की जगह को ठंडे मरुस्थल कहा जाता है. इस तरह का मौसम 22 सौ मीटर की ऊंचाई पर ही मिलता है. हमारे देश में इस तरह की जगह हिमाचल प्रदेश के लाहौल, स्पीती, मंडी, किन्नौर और चंबा में है. इसके साथ ही लद्दाख, जम्मू -कश्मीर और उत्तराखंड के चमोली में है.
इन्हीं जगहों पर हमने साल 2020 में ईरान और अफगानिस्तान से आए हींग के बीज से बने पौधे लगाए थे. बीज को पहले हमने अपने इंस्टीहट्यूट की नर्सर में लगाकर उन्हें पौधे का रूप दिया था. जब पौधे तैयार हो गए तो हमने इन जगहों के बारे में रिसर्च करने के बाद उन्हें वहां स्थानीय किसानों और हिमाचल प्रदेश के कृषि विभाग की मदद से लगा दिया.
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हींग प्रोसेस का सदियों पुराना काम आज भी हाथरस में ही होता है. 15 बड़ी और 45 छोटी यूनिट हींग प्रोसेस का काम कर रही हैं. मैदा के साथ पौधे से निकले ओलियो गम रेजिन को प्रोसेस किया जाता है. कानपुर में भी अब कुछ यूनिट खुल गई हैं. देश में बनी हींग देश के अलावा खाड़ी देश कुवैत, कतर, सऊदी अरब और बहरीन आदि देशों में एक्सपोर्ट होती है.
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