प्रकृति और पर्यावरण हमें बहुत कुछ देते हैं और हम इसी का नाजायज फायदा उठाते हैं. जब खुद इंसान ने धरती पर खतरा महसूस किया.तो जागरुकता के लिए धरती की रक्षा और पर्यावरण को बचाने का संकल्प लिया और पर्यावरण दिवस मनाना शुरू किया. हर साल 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाने का निर्णय लिया गया है. मगर क्या हम आज भी इस बारे में पूरी तरह जागरुक हो पाए हैं? या जितने भी जागरुक हुए हैं, उसे अमल में ला रहे हैं? आज इसे परखने का दिन है. इस बार पर्यावरण दिवस की थीम है-भूमि बहाली, मरुस्थलीकरण और सूखा सहनशीलता'. क्या हम आज के दिन, इस दिशा में संकल्प लेकर, इस पर काम करने को तैयार हैं. 5 जून 1972 का दिन मानव इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ, जब संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNO) ने मानव पर्यावरण पर स्टॉकहोम सम्मेलन के दौरान एक प्रस्ताव पारित किया. इस प्रस्ताव में हर साल 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाने का निर्णय लिया गया.
विश्व पर्यावरण दिवस का उद्देश्य है, पर्यावरणीय मुद्दों पर वैश्विक जागरूकता बढ़ाना और पर्यावरण संरक्षण के प्रति समर्पण को प्रोत्साहित करना. इस बार पर्यावरण दिवस की थीम भूमि-बहाली, मरुस्थलीकरण और सूखा सहनशीलता' रखी गई है'. एक आंकड़े के अनुसार दुनिया की लगभग 70 फीसदी भूमि अनुर्वर हो चुकी है और साल 2050 तक 90 फीसदी से अधिक भूमि के क्षरण का अनुमान है. भूमि क्षरण की सभी प्रक्रियाओं के कारण हर साल 1 करोड़ 20 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि और प्रत्येक मिनट 23 हेक्टेयर भूमि अनुपयोगी हो रही है. यानी लगभग प्रति सेकंड लगभग एक एकड़ भूमि अनुपयोगी हो रही है. विश्व स्तर पर नई मृदा बनने में लगने वाले समय की तुलना में मृदा क्षरण 10 से 20 गुना तेजी से हो रहा है.
आईसीआर के कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार भारत में मृदा क्षरण औसतन 30 से 40 गुना तेजी से हो रहा है. भारत में हर साल 15.35 टन प्रति हेक्टेयर की दर से से मृदाक्षरण हो रहा है. लगभग 6,00 करोड़ टन सतही मृदा हर साल खो रहा है. भूमि क्षरण के वैश्विक पर्यावरणीय प्रभाव को देखते हुए, संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशनयू एनसीसीडी और खाद्य और कृषि संगठन, ने सतत विकास लक्ष्यों के अंतर्गत साल 2030 तक शून्य भूमि क्षरण का लक्ष्य निर्धारित किया है.
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अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र से लिए गए आंकड़ों के मुताबिक साल 2002-2003 में भारत में खराब भूमि का क्षेत्रफल 9 करोड़ 45 लाख हेक्टेयर है. 2018-19 में यह बढ़कर 9 करोड 78 लाख हेक्टेयर हो गया, आईसीएआर और राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी के अनुमान के अनुसार भारत में कृषि योग्य एवं असिंचित भूमि में से 8 करोड 25 लाख हेक्टेयर भूमि जल अपरदन से प्रभावित है, जबकि 1 करोड़ 24 लाख हेक्टेयर वायु अपरदन से और लगभग 2 करोड़ 46 लाख हेक्टेयर भू-रसायन के कारण अनुपयोगी है.
भारत, जिसमें उपजाऊ वनों से लेकर शुष्क रेगिस्तानों तक व्यापक भूमि है, भूमिगत परिसंपत्तियों, रेगिस्तानीकरण और सूखे संबंधित बहुत सारे पर्यावरणीय मुद्दों का सामना करता है. ये मुद्दे न केवल देश की जैव विविधता को खतरे में डालते हैं बल्कि भूमि संसाधनों पर निर्भर लाखों लोगों के लिए गंभीर सामाजिक-आर्थिक परिणाम भी हैं जो अपनी आजीविका के लिए भूमि संसाधनों पर निर्भर हैं. मुख्य रूप से वनों की कटाई, अस्थायी कृषि प्रथाओं और शहरीकरण भारत में महत्वपूर्ण चिंता है. वनों के कटाव, मृदा अपघटन और उपजाऊ भूमि को धीरे-धीरे कम होना या खोना खाद्य सुरक्षा, जल संसाधन और पारिस्थितिक स्वास्थ्य के लिए मुख्य खतरे हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां कृषि एक प्रमुख आय का स्रोत बनी हुई है, उसमें भूमि का पतन गरीबी को अधिक प्रभावित करता है और विकास के प्रयासों को स्थायी रूप से प्रभावित करता है.
रेगिस्तानीकरण एक प्रक्रिया है जिसमें उपजाऊ भूमि विभिन्न कारकों के बाद रेगिस्तान बन जाती है. जैसे कि जलवायु परिवर्तन और मानव गतिविधियां कई क्षेत्रों में भारत के लिए एक खतरे का संकेत है. विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में प्रभाव अधिक है. तेजी से मिट्टी का पतन, जल की कमी, और वनस्पति के नुकसान अधिक रेगिस्तानीकरण को बढ़ाते हैं, जो समुदायों को बदलते हैं और जैव विविधता की हानि करते हैं. सूखा, भारत के कई हिस्सों में एक अभिशाप है, जो भूमि के पतन और रेगिस्तानीकरण द्वारा उत्पन्न चुनौतियों को बढ़ाता है. अनियमित बारिश के पैटर्न, जल संसाधनों के अत्यधिक उपयोग के साथ, जल की कमी को बढ़ाते हैं, जिससे कृषि उत्पादकता, ग्रामीण आजीविका और मानव कल्याण प्रभावित होते हैं. सूखा भोजन की उपलब्धता को घटाता है और सामाजिक-आर्थिक असमानता को तेजी से बढ़ाता है, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में जो अत्यंत वंचित जनजातियों में हैं.
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद पटना के मृदा और जल संरक्षण डिवीजन के हेड डॉ आशुतोष उपाध्याय ने किसान तक को बताया कि इन जटिल चुनौतियों का सामना करने के लिए एक बहुपक्षीय दृष्टिकोण जरूरी है. भूमि प्रबंधन के तहत जैव विविधता को संरक्षित करना बेहद जरूरी है. इससे वनस्पतियों और जीवों के विभिन्न प्रकार संरक्षित रहते हैं, जो पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन में सहायक होते हैं. दूसरा मृदा की गुणवत्ता और संरचना को बनाए रखना जरूरी है ताकि वह उपजाऊ बनी रहे और फसल उत्पादन में कमी न हो. जल संसाधनों का प्रबंधन करते हुए जल संरक्षण और जलग्रहण क्षेत्र की सुरक्षा करना जरूरी है. स्थायी भूमि प्रबंधन जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में सहायक हो सकता है. वृक्षारोपण और वन संरक्षण कार्बन उत्सर्जन को कम करने में मदद करते हैं.
डॉ आशुतोष उपाध्याय ने बताया कि वृक्षारोपण और वनीकरण से भूमि की उर्वरता बढ़ती है और जलवायु संतुलन में सहायता मिलती है. विभिन्न फसलों की चक्रीकरण प्रणाली अपनाने से मृदा की उर्वरता बनाए रखी जा सकती है और कीट प्रबंधन में सहायता मिलती है. रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग कम करके जैविक खेती को प्रोत्साहित करना मृदा और जल के लिए बेहतर है. वर्षा जल संग्रहण, ड्रिप सिंचाई और अन्य जल संरक्षण तकनीकों का उपयोग करके जल का अपव्यय कम किया जा सकता है. स्थानीय समुदायों को भूमि प्रबंधन की प्रक्रिया में शामिल करना और उनके पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करना स्थायी प्रबंधन के लिए अहम है. भारत में भूमि पुनर्स्थापन, रेगिस्तानीकरण और सूखे की प्रतिरक्षा को प्राथमिकता देना बेहद जरूरी है. इसके लिए सामूहिक कार्य, नवाचार, और साझेदारी को बढ़ाकर, हम अपनी भूमि संसाधनों को सुरक्षित रख सकते हैं, जैव विविधता को संरक्षित कर सकते हैं और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक और स्थायी और प्रतिरक्षित भविष्य बना सकते हैं.
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विश्व पर्यावरण दिवस हमें याद दिलाता है कि पर्यावरण की रक्षा करना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है. साल 1972 में शुरू हुई यह पहल आज भी हमारे समाज में जागरूकता और परिवर्तन लाने में सहायक सिद्ध हो रही है. हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ और सुरक्षित पर्यावरण छोड़कर जाएं. विश्व पर्यावरण दिवस का मुख्य उद्देश्य लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाना और उन्हें पर्यावरण संरक्षण के प्रति प्रेरित करना है. आज के दौर में जब प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की कमी जैसी समस्याएं हमारे सामने हैं, विश्व पर्यावरण दिवस की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है. हम छोटे-छोटे प्रयास भी बड़े बदलाव ला सकते हैं.
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