पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में संडा विधि से धान की खेती किसानों के बीच काफी प्रचलित हो रही है. इस तकनीक का उपयोग मुख्य रूप से वाराणसी और आजमगढ़ मंडल जिलो के किसान वर्षों से अपनाए हुए हैं. इस तकनीक में किसान लाभों की गांरटी के प्रति निश्चिंत रहते हैं. इस विधि की उत्पत्ति कब और कहां हुई, ये नहीं पता है. लेकिन इसमें धान की दो बार रोपाई की जाती है. अब यह तकनीक गोरखपुर मंडल और पूर्वी बिहार, झारखंड के कुछ जिलों में भी अपनाई जा रही है. संडा विधि में दो बार धान की रोपाई की जाती है, जिसे डबल ट्रांसप्लांटिंग कहा जाता है. संडा विधि एक पुरानी परंपरागत तकनीक है जो किसानों को आधुनिक चुनौतियों का सामना करने में मदद कर रही है. यह तकनीक न केवल उत्पादन बढ़ाने में सहायक है, बल्कि जलवायु परिवर्तन और असमान बारिश की समस्याओं का समाधान भी देती है. किसानों के लिए यह विधि एक स्थायी और लाभकारी विकल्प बन रही है.
संडा विधि से धान की नर्सरी तैयार करने के लिए मई महीने में नर्सरी डाल दी जाती है. इस तकनीक में 40 से 50 वर्गमीटर में नर्सरी तैयार की जाती है. एक हेक्टेयर खेत के लिए 4 से 5 किलो बीज की जरूरत होती है. लेकिन कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि इस तकनीक में 6 से 8 किलो बीज उपयोग करना बेहतर होता है. अगर इस बिधि से धान की खेती करनी है तो 7 मई से 15 मई के बीच नर्सरी डाल दी जानी चाहिए और पहली रोपाई सघन की जाती है जहां सिंचाई की सुविधा होती है.
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इस तकनीक में धान की पहली रोपाई 400 से 600 वर्गमीटर क्षेत्र में 8x8 सेंटीमीटर की दूरी पर की जाती है. इसमें 8 से 10 पौधे एक जगह लगाए जाते हैं जबकि सामान्य तकनीक में एक जगह 1 से 2 पौधे लगाए जाते हैं. इसे कुछ एरिया में कलम तैयार करना भी कहते हैं. पहली रोपाई के 21 से 25 दिन बाद मुख्य खेत में दूसरी रोपाई की जाती है. मुख्य खेत में 15x15 सेंटीमीटर की दूरी पर एक-एक पौधा की रोपाई की जाती है. मुख्य खेत में रोपाई के समय सामान्य धान की रोपाई की तरह ही खाद उर्वरक दिया जाता है. इस तकनीक में लंबी अवधि की किस्मों के लिए ये तकनीक काफी बेहतर होती है.
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संडा तकनीक असमान बारिश और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम है. धान की फसल को जुलाई के प्रारंभ से लेकर मध्य अक्टूबर के 100 दिनों तक अत्यधिक नम अवस्था का सामना करना पड़ता है. इन क्षेत्रों में धान की खेती उपरहान (ऊंची जमीन) या नीचले खेतों में की जाती है. उपरहार खेतों में मॉनसून आने के बाद लंबे ब्रेक की स्थिति में धान की फसल को पानी की कमी का सामना करना पड़ता है. निचले खेतों में अधिक पानी होने से रोपाई में बिलंब होता है. दोनों परिस्थितियों में धान के कल्ले कम निकलते हैं. बढ़वार अच्छी नहीं होने से पैदावार कम हो जाती है, लेकिन इस तकनीक में दूसरी रोपाई मॉनसून के समय होती है, जिससे पौधे मजबूत होते हैं और फसल स्वस्थ रहती है. इस तकनीक से धान में पइया (खाली दाना) निकलने की संभावना कम होती है और पौधों में गलन भी कम होती है. उत्पादन सवा से डेढ़ गुना अधिक होता है और पहली सघन रोपाई कम क्षेत्र में होने के कारण पानी की बचत होती है.
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