पंजाब में एक जून से धान के सरकार के फैसले ने हलचल मचाकर रख दी है. विशेषज्ञ जहां परेशान हैं तो मुख्यमंत्री भगवंत मान इन सबसे बेखबर धान की रोपाई के लिए सरकारी तैयारियों में बिजी हो गए हैं. सरकार के फैसले को कृषि विशेषज्ञ गलत करार दे रहे हैं. पंजाब में भूजल की कमी के लिए धान की खेती को जिम्मेदार बताया जा रहा है. विशेषज्ञों की मानें तो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा पर बने कुछ नीतिगत उपायों और तकनीकी तत्वों की वजह से साल 1960 के दशक की शुरुआत से चावल के रकबे में कई गुना इजाफा किया है. इससे पंजाब में पानी का संकट बढ़ गया है.
विशेषज्ञों का कहना है कि भूमिगत जल संरक्षण अधिनियम 2009 के तहत सरकार को चावल की नर्सरी तैयार करने और उसके बाद रोपाई शुरू करने की तारीख के बारे में नोटिफाइड करने का अधिकार मिला हुआ है. यह मानसून से पहले की अवधि में चावल की जल्दी बुवाई को रोकने के लिए किया जाता है ताकि चावल की खेती के मौसम और साल के शुष्क और गर्म चरण के बीच अंतराल को कम कर सके और जिससे सिंचाई के लिए पानी की जरूरत कम हो.
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अखबार द ट्रिब्यून ने लिखा है कि पंजाब यूनिवर्सिटी लुधियाना की सिफारिश के अनुसार सन् 1985 तक चावल की बुवाई का समय जुलाई का पहला पखवाड़ा हुआ करता था. उसके बाद, इसे 10 जून कर दिया गया. लेकिन उसी समय यह भी देखा गया कि कई किसान मई के दूसरे पखवाड़े या आखिरी हफ्ते में चावल की रोपाई कर रहे थे. जल्दी रोपाई की आदत प्रवासी मजदूरों, कीटों के जमाव से बचने और पूसा 44 (अनुशंसित नहीं) जैसी लंबी अवधि की किस्मों की वजह से मिलने वाले फायदों की वजह से बढ़ती जा रही थी.
मई और जून दो ऐसे महीने होते हैं जब वाष्पीकरण-वाष्पोत्सर्जन में बहुत ज्यादा नुकसान होता है. साथ ही फसल उगाने के लिए सिंचाई की भी बहुत ज्यादा जरूरत होती है. इससे अनियमित चावल की रोपाई और बढ़ते रकबे की वजह से पंजाब में असाधारण तौर पर पानी के स्तर में कमी देखी गई. फिर साल 2008 में आए एक अध्यादेश के जरिये चावल की रोपाई की तारीख को विनियमन के तहत लाया गया जो 2009 में अधिनियम के तौर पर सामने आया.
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इस महत्वपूर्ण घटनाक्रम के बाद कई अध्ययन हुए. इन अध्ययनों में मोहाली, रोपड़, अमृतसर, तरनतारन, जालंधर, कपूरथला, मोगा और फाजिल्का जिलों में जल स्तर में गिरावट की दर में पर्याप्त कमी और बाकी जगहों पर अलग-अलग प्रभाव नजर आए. पंजाब में पिछले 20 सालों में मॉनसून के दौरान कोई खास बारिश नहीं हुई है और इसमें औसत से कम की गिरावट देखी गई है. इस वजह से राज्य में जल स्तर में और गिरावट हुई. इसकी वजह से स्थिति और विकट हो गई है.
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सरकार ने रोपाई की तारीख 2015 से 2017 तक 10 जून से 15 जून तक बढ़ा दी थी. साल 2018 में इसे आगे बढ़ाकर 20 जून कर दिया गया. साल 2013 में चावल की किस्म PR 121 को जारी किया गया जो 110 दिन की अवधि में पककर तैयार होती है. साल 2017 में, PR 126 जो 93 दिन में पकती है, जारी की गई. किसानों ने पूसा 44 की जगह इन किस्मों को अपनाना शुरू कर दिया. पानी की बचत के अलावा, किसान कम अवधि वाली किस्मों से बेहतर या बराबर मुनाफा कमा सकते हैं क्योंकि उन्हें कीटनाशकों और बाकी इनपुट की जरूरत कम होती है.
इसके अलावा, इन किस्मों के कम बायोमास ने धान के भूसे को इन-सीटू बनाए रखने यानी मल्च या मिट्टी में मिलाने को आसान बनाया. इससे धान के भूसे को साफ करने और अगली फसल की बुवाई के लिए खेत में काम करने की जरूरत कम हो गई. इससे दो फसलों के बीच समय की जरूरत खत्म हो गई. चावल की रोपाई की तारीख, एक मुख्य तत्व के तौर पर काम करती है. इसके साथ कम अवधि की चावल की किस्में और इन-सीटू धान के भूसे का प्रबंधन मिलकर फसल प्रणाली की पानी की जरूरत को कम कर सकता है. साथ ही मिट्टी में कार्बनिक तत्वों को भी जोड़ सकता है.
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