गेहूं खेती की टिप्सरबी के सीजन में गेहूं हमारी मुख्य फसल है, लेकिन खेत में बिना बुलाए मेहमानों की तरह उगने वाले खरपतवार हमारी सारी मेहनत पर पानी फेर देते हैं. वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि फसलों को कीड़ों या बीमारियों से जितना नुकसान नहीं होता, उससे कहीं ज्यादा (लगभग 33%) नुकसान इन खरपतवारों से होता है. गेहूं के खेत में मुख्य रूप से 'मंडूसी' (गुल्ली डंडा), 'जंगली जई', 'बथुआ', और 'कटीली' जैसे खरपतवार उगते हैं. ये खरपतवार हमारी फसल के हिस्से का खाद, पानी और धूप खुद ले लेते हैं, जिससे गेहूं कमजोर हो जाता है और पैदावार 15% से लेकर 80% तक गिर सकती है. आज के समय में बौनी किस्मों की खेती और ज्यादा खाद-पानी के उपयोग ने इन खरपतवारों को बढ़ने का और भी मौका दे दिया है, जिससे खेती की लागत बढ़ रही है और मुनाफा घट रहा है.
अगर आप साल-दर-साल एक ही खेत में धान और गेहूं ही उगाते रहेंगे, तो खरपतवारों को उस माहौल की आदत हो जाती है और वे मरते नहीं हैं. इसे तोड़ने के लिए 'फसल चक्र' अपनाना बहुत जरूरी है. गेहूं की जगह बीच-बीच में बरसीम, आलू, सरसों, या सूरजमुखी जैसी फसलें लगाएं. जैसे, बरसीम की फसल में बार-बार कटाई होती है, जिससे गुल्ली डंडा के बीज बन ही नहीं पाते और उसका वंश खत्म हो जाता है.
आलू की खेती से भी खरपतवार नियंत्रण में बहुत मदद मिलती है. इसके अलावा, गेहूं की ऐसी किस्मों का चुनाव करें जो शुरुआती दिनों में तेजी से बढ़ती हैं और खरपतवारों को दबा देती हैं. एचडी 2967, पीबीडब्ल्यू 725, या एचडी 3086 जैसी किस्में न केवल अच्छी पैदावार देती हैं, बल्कि अपनी मजबूत बनावट के कारण खरपतवारों से मुकाबला करने में भी सक्षम हैं.
आजकल देखने में आ रहा है कि किसान खरपतवार नाशक दवाओं का छिड़काव तो करते हैं, लेकिन खरपतवार मरते नहीं हैं. इसे 'हर्बिसाइड रेजिस्टेंस' या दवाओं के प्रति सहनशीलता कहते हैं. पंजाब और हरियाणा के कई इलाकों में मंडूसी पर अब पुरानी दवाओं का असर होना बंद हो गया है. इसका कारण है—लगातार एक ही तरह की दवा का इस्तेमाल करना और छिड़काव का गलत तरीका. इसलिए, रासायनिक नियंत्रण करते समय बहुत सावधानी बरतें. हर साल एक ही "ग्रुप" की दवा न डालें, बल्कि दवाओं को बदल-बदल कर (रोटेशन) इस्तेमाल करें.
हमेशा सही नोजल (फ्लैट फैन नोजल) का प्रयोग करें और सही मात्रा में पानी (लगभग 150-200 लीटर प्रति एकड़) मिलाकर छिड़काव करें. पेंडिमेथालिन जैसी दवाओं का प्रयोग बुवाई के तुरंत बाद (अंकुरण से पहले) करना भी एक सुरक्षित विकल्प है.
किसानों को यह समझना होगा कि केवल रसायनों के भरोसे खेती करना अब न तो सस्ता है और न ही टिकाऊ. हमें "समन्वित खरपतवार प्रबंधन" (Integrated Weed Management) को अपनाना होगा. इसका मतलब है खेती के सभी तरीकों को मिलाकर वार करना. समय पर बुवाई, फसल चक्र, सही बीज दर, मशीनों से निराई-गुड़ाई और जरूरत पड़ने पर बदल-बदल कर रसायनों का प्रयोग. जब हम इन सब तरीकों को एक साथ अपनाएंगे, तभी हम अपनी लागत कम कर पाएंगे और मुनाफा बढ़ा पाएंगे. अपने खेत की नियमित निगरानी करें और अगर कोई नया या जिद्दी खरपतवार दिखे, तो कृषि विशेषज्ञों की सलाह जरूर लें. याद रखें, एक जागरूक किसान ही अपनी फसल को सुरक्षित रख सकता है और देश की खाद्य सुरक्षा में योगदान दे सकता है.
खरपतवारों को हराने का सबसे पहला नियम है-सही समय पर और सही तरीके से बुवाई करना. अगर आप गेहूं की बुवाई अक्टूबर के आखिरी हफ्ते से लेकर नवंबर के पहले हफ्ते तक कर देते हैं, तो मंडूसी (गुल्ली डंडा) की समस्या काफी हद तक कम हो सकती है, क्योंकि उस समय का तापमान इसके जमाव के लिए सही नहीं होता.
इसके अलावा, एक बहुत ही कारगर तरीका है 'बासी बीज क्यारी' तकनीक इसमें आप बुवाई से पहले खेत में पलेवा (रौनी) कर दें, जिससे खरपतवार उग आएं. इसके बाद हल्की जुताई करके या रसायनों से उन्हें नष्ट कर दें और फिर गेहूं बोएं. इससे खेत में पहले से मौजूद खरपतवारों का बीज बैंक खत्म हो जाता है. साथ ही, बुवाई के समय बीज की मात्रा थोड़ी बढ़ाकर (सामान्य 100 किलो की जगह 150 किलो प्रति हेक्टेयर) डालें और लाइनों के बीच की दूरी कम रखें (15 सेमी) या 'क्रॉस बुवाई' करें. इससे गेहूं के पौधे घने उगेंगे और खरपतवारों को सिर उठाने की जगह ही नहीं मिलेगी.
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