अपने खेतों का सपना देखने वाले एक भूमिहीन मजदूर की दर्दभरी दास्तांशाहरुख खान की ताज़ा फिल्म ‘जवान’ के आजकल बहुत चर्चे हैं. इस फिल्म ने न सिर्फ बॉक्स ऑफिस के कई रिकॉर्ड तोड़े हैं, बल्कि फिल्म ने किसानों, भ्रष्टाचार, महिलाओं आदि के कई प्रासंगिक मुद्दों पर टिप्पणी करके आम लोगों के बीच अपनी एक जगह बनाई है. इस फिल्म की एक खासियत हैं. विलेन के किरदार में तमिल फिल्मों के सुपरस्टार विजय सेथुपति. 2015 में विजय सेथुपति ने एक फिल्म की पटकथा पढ़ी और उन्हें वह कहानी बहुत पसंद आई. कहानी थी लेनिन भारथी की और इसका नाम था ‘मेरकु थोडर्ची मलई’ यानि पश्चिमी घाट.
यह कहानी इसलिए कुछ खास थी क्योंकि इसमें केरल और तमिलनाडू की सीमा पर स्थित पश्चिमी घाट के सुदूर और दुर्गम इलाकों में रहने वाले ग्रामीणों के जीवन का ज़िक्र है. इन लोगों का जीवन हम शहरी और आम ग्रामीणों से अलग होता है क्योंकि वे ना सिर्फ जंगल और जानवरों से जूझते हैं बल्कि वहाँ के बड़े जमींदारों की एस्टेट में हो रहे शोषण के खिलाफ भी संघर्ष करते हैं.
मेरकु थोडर्ची मलई के निर्देशक लेनिन भारथी भी इसी क्षेत्र से आते हैं और यहां की समस्याओं को बखूबी जानते हैं. हाल ही में उनके एक इंटरव्यू ने तमिल सिनेमा जगत में सनसनी फैला दी थी. जिसमें उन्होने साफ कहा था कि वे आम आदमी, ज़मीनी हकीकत और मिट्टी से जुड़ी कहानियों पर फिल्में बनाना चाहते हैं. ‘पोन्निईन सेल्वम’ जैसी बड़े बजट की ऐतिहासिक या फैंटासी फिल्में उन्हें पसंद नहीं.
ये फिल्म बनाने से पहले भारथी स्क्रिप्ट लेखन करते थे. जब ये कहानी विजय सेथुपति जैसे बड़े स्टार को पसंद आ गयी तो इस फिल्म पर काम शुरू हुआ 2016 में. कहानी के अनुरूप निर्देशक ने अभिनेता चुने. फिल्म में काम करने वाले 90 प्रतिशत से अधिक अभिनेताओं ने इससे पहले कभी अभिनय नहीं किया था और वे सभी इसी क्षेत्र से ताल्लुक रखते थे. इसलिए फिल्म में हर व्यक्ति बहुत स्वभाविक लगता है- मानो वह अपने रोजाना का जीवन ही जी रहा हो.
फिल्म की सिनेमैटोग्राफी का काम संभाला थेनी ईश्वर ने और संगीत दिया तमिल के विश्व प्रसिद्ध संगीतकार इल्लयाराजा ने. यहां संगीत और दृश्य का ज़िक्र करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि यह दोनों मिल कर फिल्म की कलात्मकता और प्रभावशीलता को तो बढ़ाते ही हैं साथ ही, उस क्षेत्र से हमारा भली भांति परिचय करवाते हैं.
अब बात करते हैं ‘मेरकु थोडर्ची मलई’ की कहानी के बारे में. फिल्म एक भूमिहीन किसान और मजदूर रंगू के इर्द गिर्द घूमती है, जिसका बस एक ही सपना है. किसी तरह थोड़ी बहुत ज़मीन खरीद लेना और खेती करना. उसके जीवन की सारी मशक्कत इसी सपने को पूरा करने के लिए है. फिलहाल वह इलाइची से भरे बोरों को पहाड़ी के ऊपर पहुँचाने का काम करता है. पेट काट कर जमा किए गए पैसों से वह दो बार ज़मीन खरीदने की कोशिश करता है, लेकिन असफल हो जाता है.
तीसरी बार वह कर्जा लेकर ज़मीन खरीदता है और उस पर खेती भी शुरू कर देता है. अब उसका प्रयास है कि खेती से हुई कमाई से धीरे धीरे कर्ज़ चुका दे. इसी बीच उसकी शादी ईश्वरी से हो जाती है जो एक बड़े एस्टेट में काम करती है. ईश्वरी के जरिये रंगू का परिचय यूनियन लीडर चाको से होता है जो एस्टेट मजदूरों के हकों के लिए लड़ रहा है. रंगू भी चाको की यूनियन का सदस्य बन जाता है. हालात कुछ ऐसे होते हैं गुस्साये मजदूरों की भीड़ यूनियन के एक वरिष्ठ नेता और एक एस्टेट मालिक की हत्या कर देते हैं. बदकिस्मती से इस भीड़ मे रंगू भी शामिल है. अन्य मजदूरों के साथ रंगू को भी जेल हो जाती है.
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फिल्म का अंत हृदय विदारक है. सालों बाद सज़ा काट कर रंगू जब वापिस आता है तो देखता है कि कर्ज़ की रकम वापिस न कर पाने की वजह से उसकी ज़मीन को साहूकार ने वापिस अपने कब्जे में ले लिया है और अब उस ज़मीन पर एक पवन चक्की खड़ी हो गई है. आखिरकार रंगू जीविका चलाने के लिए इसी पवन चक्की पर एक सुरक्षा गार्ड की नौकरी करने लगता है.
हालांकि ये लेनिन भारथी की पहली फिल्म थी, लेकिन वे इसे बनाने को लेकर बिलकुल स्पष्ट थे. विजय सेथुपति तमिल फिल्मों के स्टार हैं, उन्हें जब ये फिल्म पसंद आई तो भारथी ने उन्हें मुख्य भूमिका में लेने से इंकार कर दिया. “क्योंकि विजय सेथुपति का शरीर ऐसे मजदूर का नहीं दिखता जो रोज़ दुर्गम पहाड़ियों पर चढ़ता-उतरता हो. फिर सेथुपति की अपनी एक इमेज थी सिनेमा में. हम किसी ऐसे अभिनेता को नहीं लेना चाहते थे जिसकी पहले से ही एक छवि हो.“ भारथी ने एक इंटरव्यू में बताया. इसलिए उन्होने लगभग सभी नए कलाकारों को चुना.
फिल्म के अन्य कलाकारों की भूमिका में स्थानीय लोगों को ही चुना गया. तीन साल तक फिल्म की तैयारी की गई. रंगू की भूमिका में थे एंटनी. दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूरों का रहनसहन और हाव-भाव जानने के लिए एंटनी ने एक साल तक केरल और तमिलनाडू की सीमा पर स्थित एक गांव में स्थानीय मजदूरों के साथ काम किया. उनकी पत्नी की भूमिका में थीं गायत्री कृष्णा. निर्देशक के कहने पर गायत्री ने भी एक साल तक उसी गांव की एक इलायची की फैक्ट्री में काम किया.
सिनेमैटोग्राफर को बताया गया कि क्लोज़ शॉट्स से बचना है, और पूरे लैंडस्केप को दृश्यों में दिखाना है ताकि दर्शकों को पश्चिमी घाट के इस दुरूह इलाके का एहसास हो सके और फिल्म एक नायक की कहानी ना लग कर वहां रहने वाले लोगों की दास्तां लगे. फिल्म के संगीतकर इल्लयाराजा भी इसी क्षेत्र से आते हैं, इसलिए वे फिल्म में बहुत से भाव संगीत के माध्यम से ही बयान कर देते हैं और निर्देशक को न तो अतिरेक संवादों का सहारा लेना पड़ता है ना ही सेंटीमेंटल सिचुएशन्स का.
‘मेरकू थोडरची मलई’ 2018 में रिलीज हुई और इसने फिल्म जगत में धूम मचा दी. इटालियन फ़िल्मकारों के द्वारा चलन में लाये गए नवयथार्थवाद से भी अलग और विशिष्ट शैली स्थापित की लेनिन भारथी ने. तमाम राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समाराहों में इस फिल्म की सराहना हुई. लेनिन का कहना भी था कि इस फिल्म से उनका मकसद पुरस्कार जीतना या हिट होना नहीं था बल्कि पश्चिमी घाट के इस खास इलाके में रहने वाले लोगों की व्यथा को लोगों के सामने लाना, एक दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूर के छोटे-छोटे सपने, और असलियत में उन सपनों का क्या अंजाम होता है- यह सब बगैर कोई राय या फैसला दिए पेश करना था.
बाद में एक इंटरव्यू के दौरान भारथी ने कहा, “मैं उन्हीं विषयों पर फिल्म बनाऊंगा जो मुझे बहुत प्रभावित करते हैं. अगर मुझे अपने बच्चों के लिए कार और बंगला चाहिए तो मैं भी साल में दो फिल्में बना सकता हूं, लेकिन मुझे लगता है कि विजुअल माध्यम का फोकस ठीक होना चाहिए. मैं एक रेगुलर कमर्शियल फिल्म नहीं करना चाहता क्योंकि एक रचनाकार के तौर पर मुझे अपनी जिम्मेदारियों का एहसास है.“
इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर भी औसत कारोबार किया. लेकिन केरल और तमिलनाडु की सीमा पर रहने वाले किसान-मजदूरों के जीवन को मर्मस्पर्शी रूप से चित्रित करने वाली यह एकमात्र और अविस्मरणीय फिल्म साबित हुई.
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